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शुक्रिया ब्लॉग पाठकों का जिनका बोया सपना अब पल्लवित हो चुका

बचपन में सबको कहानी  सुनना अच्छा लगता है। फिर धीरे धीरे हम कहानियाँ पढ़ने लगते हैं। उसके बाद कहानी  लिखने की शुरुआत भी हो जाती है. मैंने भी कुछ जल्दी ही लिखना शुरू कर दिया था। 18  की थी तो दो लम्बी कहानियां ,लघु उपन्यास सी  ही लिखी थी। मोटा सा रिजस्टर पूरा भरा हुआ। फिर कुछ छोटी कहानियां भी लिखीं। पर कहीं भेजी नहीं ,जबकि आलेख वगैरह भेजा करती थी और वे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने भी लगे थे। पर कहानी भेजने में एक संकोच था , हमारी पीढ़ी को खुलकर प्रोत्साहित नहीं किया जाता था।  लिखना यानि पढ़ाई लिखाई की उपेक्षा, ऐसा समझा जाता था। इसलिए छुप छुपा कर लिखने का चलन था। जब गर्मी की दुपहरी में सब सो जाएँ तो गर्म हवा के थपेड़े खाते बरामदे में बैठ कर लिखना और तब बरामदे में भी पंखे कहाँ हुआ करते थे। या फिर देर रात तक जागकर लिखना।  पर दोस्तों ने कहानी  को हाथो हाथ लिया। पूरे कॉलेज में रजिस्टर इतना घूमा कि पन्ने फट जाते। तीन बार मैंने फेयर किया यानी दुबारा लिखा। अभी भी पीले भुरभुरे होते पन्ने वाली रजिस्टर मेरे पास पड़ी है. 

शादी के बाद मुंबई आ गई और तब हिंदी से दूरी काफी बढ़ गई। हिंदी की बड़ी पत्रिकाएं बंद हो गईं।  नई पत्रिकाएं यहाँ मिलती नहीं थी। कोई समान रूचि वाले फ्रेंड नहीं। गृहस्थी और बच्चो की देखरेख की जिम्मेवारी भी थी पर अगर हिंदी पत्र/पत्रिकाएं/ उपन्यास मिलते रहते तो पढ़ने के साथ लिखने का सिलसिला भी बना रहता। 

फिर आया  इंटरनेट युग और आई हिंदी में टाइपिंग की सुविधा। मुझे थोड़ी देर ही हो गयी , २००९  में मैंने बहुत हिचकते हुए ब्लॉग बनाया सिर्फ यह सोच कर कि अब तक का अपना लिखा पोस्ट कर दूंगी । पर दो रचनाएँ डालने के बाद ही ,नए नए विषय सूझते गए और लिखती गई। लघु उपन्यास पोस्ट करने की बारी बहुत दिनों बाद आई। 2010  में पहला लघु उपन्यास  पोस्ट किया। थोड़े बदलाव के साथ , उसे वर्षों पहले एक किशोरी ने लिखा था और अब वो दो किशोर बच्चों की माँ बन चुकी थी :)

यहाँ भी पाठकों ने बहुत पसंद किया और मेरी आँखों में एक सपना भी बोने  की कोशिश की कि यह प्रकाशित होनी चाहिए। पर मैंने बिलकुल ही गंभीरता से नहीं लिया। उन दिनों लिखने का जोश था। पाठक बड़े  प्यार से ,ध्यान से पढ़ते ,बड़ी सार्थक टिप्पणियाँ किया करते। और मैंने कई छोटी -लम्बी कहानियाँ ,और किस्तों में कुछ लघु उपन्यास भी लिखे। ब्लॉग पर ,आकाशवाणी से ,बिग एफ  .एम  पर लोग कहानियां पढ़ लेते, सुन लेते ,पसंद करते , कहानियों पर विश्लेष्णात्मक टिप्पणियाँ करते  और मैं पूरी तरह संतुष्ट हो जाती।  पत्रिकाओं में भेजने की सलाह भी मिलती।  एक बड़े विशिष्ट कवि ने मेरी कहानी की pdf फ़ाइल भी भी बना कर भेजी कि इसे अमुक पत्रिका में भेज दें। 
 मैंने सोचा , कहानी  को दुबारा-तिबारा पढ़ कर कुछ सुधार कर  भेजूंगी पर वो दिन कभी नहीं आया। यही मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है। अपना लिखा दुबारा पढ़ना, एडिट करना मुझे बहुत भारी पड़ता है। 

जब जया वाली कहानी लिखी तो कई लोगों ने फोन करके मैसेज करके बार बार आग्रह किया कि ये पुस्तक के रूप में आनी चाहिए। सहेलियों ने तो नाराज़ होकर डांट भी  दिया। पर फिर वही मेरी कमजोरी ,इसे दुबारा-तिबारा पढ़ना है ,एडिट करके तब किसी प्रकाशक को भेजना है और इन सबमें मैंने लम्बाsss वक्त लिया। 

पर  अब उन सारे अवरोधों को पार कर मेरा पहला  उपन्यास 'कांच के शामियाने'  मेरे हाथों में है.

अपनी पहली कृति के कवर का स्पर्श , उसके पन्नों की ताज़ी खुशबू  ,इन सारे अहसासों को शब्द देना मुश्किल सा है. अब तक मेरी रचनाएँ मेरे दोस्तों ने ही पढ़ी हैं। ब्लॉग के नियमित पाठक भी दोस्त से ही बन गए थे।  नके बीच अपनी रचना भेजने में कोई संकोच नहीं होता था था , मेरी लेखन शैली से परिचित थे। मेरे लिखे की   खुल कर तारीफ़ भी करते थे और कोई कमी नज़र आई तो उस तरफ बेहिचक इंगित भी कर देते थे। 

अब यह उपन्यास लोगों के समक्ष रखते कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही है ,जैसे अपने बच्चे को हॉस्टल भेजते वक़्त होती है। घर में बच्चे को आस-पड़ोस, दोस्त ,रिश्तेदार सब जानते हैं। उनके बीच बच्चा, बेख़ौफ़ विचरता है और उसकी माँ भी आश्वस्त रहती है.  पर हॉस्टल एक अनजान जगह होती है, जहाँ ,बच्चे को अपनी जगह आप बनानी होती है। अपनी चारित्रिक दृढ़ता  ,अपने सद्गुणों, का परिचय देकर लोगों को अपना बनाना  होता है। 

आशा है, इस उपन्यास में भी कुछ ऐसी विशेषतायें होंगी जो उसे अपनी छोटी सी पहचान बनाने में सफल बनाएंगी। 

निम्न लिंकों पर ये पुस्तक मंगवाई जा सकती 
Amazon : http://www.amazon.in/Kanch-Ke-Shamiyane-Rashmi-Ravija/dp/9384419192 (मात्र रु 98, घर मँगाने का कोई अतिरिक्त ख़र्च नहीं)
infibeam : http://www.infibeam.com/Books/kanch-ke-shamiyane-rashmi-ravija/9789384419196.html 






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