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काँच टूटे उन पन्नों पर...और किरचें कहीं और जाकर चुभे --- प्रियंका गुप्ता

                                                                                                                                                                                                    
प्रियंका गुप्ता एक युवा लेखिका हैं. खूब सारा लिखती हैं. पत्रिकओं में अखबारों में लगातार छपती रहती हैं .
और इनका लिखा बहुत पसंद किया जाता  है . इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं .
काँच के शामियाने पर इतना बढ़िया लिखने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया :)


काँच के शामियाने-(रश्मि रविजा)-
मन में चुभी किरचें...उफ़!
यूँ तो किताब छप कर हाथ में आते ही रश्मि जी से मैने कहा था...जल्दी ही पढ़ती हूँ...फिर बताती हूँ...। पर उस समय कुछ ऐसी परिस्थितियाँ आई कि चाह कर भी मैं तुरन्त इस उपन्यास को नहीं पढ़ पाई...और पहली फ़ुर्सत मिलते ही जैसे ही इसे पढ़ने लेकर बैठी, जाने कितने सालों बाद पहले के दिनों की तरह एक बैठक में ही सारा उपन्यास पढ़ गई...। आखिरी पन्ना बन्द करने के कुछ ही पलों बाद मैने रश्मि जी को सिर्फ़ एक शब्द में अपनी प्रतिक्रिया दी थी...awesome...
वैसे तो एक लेखक-पाठक के बीच किसी भी रचना के असर को जानने के लिए (मेरे हिसाब से ) महज इतना संवाद ही पर्याप्त था, पर फिर भी जाने क्यों लगा, इस उपन्यास पर अगर कुछ और नहीं कहा तो अन्दर कुछ भरा रह जाएगा...। कहने को तो यह एक कहानी है, पर फिर भी बेहद अपनी-सी...। मेरे ख़्याल से जया महज एक नाम नहीं, एक पात्र भर नहीं है...वो तो जैसे इस सारी क़ायनात की ऐसी औरतों का प्रतिबिम्ब है जो रोज़-ब-रोज़ ऐसे ही किसी नरक से गुज़रते रहने को अभिशप्त हैं...। अत्याचार जया पर होते हैं, उसकी टीस पाठक के कलेजे को बींध जाती है...। सबसे अच्छी बात यह है कि जया सब कुछ सहने के बावजूद हारती नहीं है, हारना चाहती ही नहीं...। वह लड़ने को तैयर है...। परिवार से, समाज से, राजीव से...और शायद अपने आप से भी...।
मुझे लगता है जया जैसी औरतों की लड़ाई सबसे पहले अपने भीतर शुरू होती है...। इस लड़ाई में हर ऐसी औरत को सबसे पहले खुद से जूझते हुए जीतना होता है...। बाहरी लड़ाई तो बहुत बाद में आती है...। जया-राजीव के रूप में रश्मि जी ने बहुत सारे सामाजिक ताने-बाने को पूरी जीवन्तता से उजागर कर दिया है...। भारतीय समाज की न जाने कितनी औरतों ने यही सब झेला है। इस उपन्यास में कपोल-कल्पना जैसा तो कुछ है ही नहीं...। हर दूसरी आम लड़की की तरह जया भी मायके में अपनी सारी तकलीफ़ें सिर्फ़ इस लिए छुपाती है ताकि उनको कोई दुःख न हो...। पर क्या फ़ायदा...? उसके दुःख-तक़लीफ़ें जान कर भी उसकी माँ-भाई क्या करते हैं...? उनकी हर कोशिश तो यही होती है न कि उनकी अपनी बहन/ बेटी अपनी ज़िन्दगी की इतनी बड़ी लड़ाई एक दरिन्दे के हाथों हार जाए...।
सच कहूँ तो रश्मि जी की तरह मैं भी यही मानती हूँ कि राजीव को जानवर कहना भी उन बेज़ुबानों का अपमान होगा...। इस एक वाक्य में सब कुछ शीशे की तरह साफ़ झलक जाता है न...। सबसे अच्छी बात यह...जया अपनी लड़ाई खुद लड़ती है और जीतती भी है...। अगर वह ऐसा न करती तो शायद मैं एक पाठिका के तौर पर राजीव से ज़्यादा जया से नफ़रत कर बैठती...।
इस उपन्यास को पढ़ना एक पीड़ा से गुज़रने सरीखा है...एक ऐसी पीड़ा जो आग में तपते हुए सोने को महसूस होती होगी...। पर उस पीड़ा में कुन्दन बन कर और भी मूल्यवान हो जाने का जो सकून होता होगा, यह वैसी ही एक यात्रा है...। इसे पढ़ते हुए मैं ‘मैं’ रह ही नहीं गई थी...। मुझे नहीं मालूम मैं उस वक़्त कौन थी...। मैं तो जया हो गई थी...उसकी हर लड़ाई खुद लड़ते हुए...डरते हुए कि अगले ही पल कहीं वो हार न जाए...। उसके आँसू अपने गालों पर बहता महसूस करते हुए...। उसके भीतर की आग में खुद जलते हुए, एक अनोखे आक्रोश और ऊर्ज़ा से परिपूर्ण...सिर्फ़ एक औरत...।
मेरे विचार से रश्मि जी के लेखन की सार्थकता तो इसी बात से साबित हो जाती है जब उसका पाठक उनके पात्रों के साथ एकाकार हो जाए...। काँच टूटे उन पन्नों पर...और किरचें कहीं और जाकर चुभे...।


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काँच टूटे उन पन्नों पर...और किरचें कहीं और जाकर चुभे --- प्रियंका गुप्ता

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