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चलो बेटियों को पंख लगाएं

चलो बेटियों को पंख लगाएं ,
ताकि वे भी उड़ सकें,
बेटों के समान,
नीले आसमान में.

बेटियों के हक़ नहीं होते,
फ़र्ज़ होते हैं,
और उनसे ये अपेक्षा,
की उठाएंगी वे फ़र्ज़,
सर पर ताज़ की मानिंद,
किन्तु उठाती हैं पीठ पर,
भारी गठरी की तरह.

बेटियों के फ़र्ज़ भी
बेटों के हक़ बन जाते हैं.
और बेटों के हक़
बन जाते हैं बेटियों के फ़र्ज़।
कभी - कभार
बेटों के हिस्से कोई फ़र्ज़ आ जाता है,
तो उसे भी लाद देते हैं,
उन्हीं की पीठ पर,
जैसे हम छोटी अटैची भी,
कुली को ही पकड़ा देते हैं.

और जब कभी
वे डगमगा जाती हैं,
तो कोसते हैं उनको,
संस्कारों के नाम पर,
तो कभी माँ-बाप का वास्ता देकर,
या फिर इस बात का एहसान जताकर ,
की उन्हें पैदा होने दिया गया.

बेटीयों की ज़ुबानें तो होती हैं,
पर उनपर लगे होते हैं ताले,
और चाबियां होती हैं,
कभी पिता के हाथ,
तो कभी भाई के हाथ.

बेटियां जब कॉलेज जाती हैं,
तो सहमती हुई,
नज़रें नीची कर,
दो-चार सहेलियों के साथ,
की कहीं उन्हें देख किसी का
बेटा  कोई गलती कर बैठा,
तो उसका इलज़ाम भी
लाद दिया जाएगा,
उन्ही की पीठ पर,
क्योंकि बेटे कभी गलती नहीं करते,
गलत तो सदा बेटियां ही होती हैं.

बेटियों को हम ज़रा-भर
उड़ने भी देते हैं,
एक पतंग की तरह,
जिसकी डोर होती है
किसी के बेटे के हाथ में.

तो आज,
चलो, बेटियों को पंख लगाएं,
ताकि वे भी उड़ सकें,
बेटों के समान,
नीले आसमान में.




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