दरिया के तट पर,
सर को पटक कर,
भीगी पलकों से निहारती,
खारे जल को अपने में समेटती,
लौट गयी लहरें.
कसम खाई फिर न आने की,
पत्थर से सर न टकराने की,
मगर चंचल मन,
बेकाबू साँसें,
दौड़ पड़ी फिर से
तट को मनाने.
किन्तु फिर वही क्रम,
रेत-सा बिखर गया,
संजोया हुआ भ्रम,
और, हृदय की गहराई में
पलकों से मोती तराशती,
बर्फीली सर्द हवाओं से टकराती,
लौट गयीं लहरें.
पत्थर तो पत्थर है,
पिघलता ही नहीं,
लहरों का दिल पर
संभालता ही नहीं....
कि थक कर हार कर,
गुमसुम हो जाती हैं,
फिर नईं उमंगों से
तट की और आती हैं,
और, सर को पटक कर
स्वयं में सिमट कर,
लौट लौट जाती हैं,
लौट लौट जाती हैं......