आज फिर सुबह दफ्तर जाते समय
उससे आमना सामना हो गया,
आज फिर उसकी सवालिया निगाहें मेरी ओर उठी
ओर मेरी नज़रें फिर शर्म से झुक गयीं.
किन्तु देर हो रही थी दफ्तर को,
आज दफ्तर का वार्षिक उत्सव था,
जिसका कार्यभार मुझ पर ही था,
वरना शायद मैं कुछ...
पिछले दस दिनों में ये तीसरी बार था,
जब वह रूबरू हो रहा था,
ओर हर बार मैं नज़रें नीची कर
उसके करीब से गुज़र गया,
उसे अनदेखा करने का प्रयत्न करते हुए.
किन्तु यह मुमकिन न था....
उसकी नज़रें मानो मेरी पीठ पर चिपक गयी थीं,
ओर मुझे शर्मिंदगी के साथ साथ
हो रही थी कोफ़्त भी,
उसके इस प्रकार सामने आ जाने पर -
क्यों अच्छा भला दिन बर्बाद कर देता है हर बार!
शाम को घर जाते समय
निगाहें बचा कर
एक बार फिर उस ओर देखा
जहाँ सुबह ही मुलाकात हुई थी उससे,
वह अभी भी वहीँ था,
सड़क पर फैला हुआ...
सूख चूका था हालांकि,
ओर वितृष्णा भरी नज़रों से
पूछ रहा था मुझसे -
तुम चाहते तो क्या सुबह
मुझे बचा न लेते?
वह लाल लहु,
किसी बदकिस्मत राहगीर का,
अब हंस रहा था ठहाके लगा कर
मेरे इस बहाने पर
की देर हो रही है मुझे घर पहुँचने में,
समय नहीं है मेरे पास उससे नज़रें मिलाने को,
कल सुबह फिर दफ्तर भी तो जाना है.......