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फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मधु कांकरिया और रोहिणी अग्रवाल जैसी वरिष्ठ लेखिकाओं ने मननशील और गम्भीर विचार प्रगट किये हैं। संचालिका जयश्री सिंह ने जब रोहिणी अग्रवाल जी से पूछा ," क्या हिंदी के पुरुष आलोचक स्त्री लेखन का सही मूल्यांकन करते हैं ?"रोहिणी अग्रवाल जी का जबाब था, "इसका बहुत ही स्पष्ट और सीधा उत्तर है, 'नहीं' पुरुष आलोचक,स्त्री विमर्श और स्त्री लेखन को पुरुष वर्चस्व के लिए खतरा मानते हैं।" सुधा अरोड़ा जी ने भी जिक्र किया कि "बहुत दिनों तक महादेवी वर्मा को भी छायावादी कवयित्री के रूप में ही जाना जाता रहा. उनकी श्रृंखला की कड़ियाँ बहुत बाद में चर्चा में आईं. " फ़िल्म भी इसी विषय पर केंद्रित है कि कैसे महिला लेखन को दरकिनार कर दिया जाता है।उनपर बात नहीं की जाती ,उनके लेखन को नज़रंदाज़ किया जाता हैं, उन्हें हतोत्साहित किया जाता है। इन सबसे एक नवोदित लेखिका इतनी निराश हो जाती है कि उसमें अपने नाम से लिखने की इच्छा ही मर जाती है और एक पुरुष लेखक इसका बखूबी फायदा उठाने लगता है. फिल्म में एक नवोदित लेखिका ,अपने कॉलेज के प्रोफेसर को अपनी लिखी कहानी दिखाती है.प्रोफेसर तारीफ़ तो करता है पर कई सारी कमियां भी बताता है. नायिका एक ऐसी लेखिका से मिलती है जिनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वह लेखिका कहती है, " तुम अपना समय बर्बाद कर रही हो , वे कभी तुम्हें बढ़ावा नहीं देंगे." "कौन वे " "पुरुष लेखक जो समीक्षाएं लिखते हैं, पत्रिकाएं निकालते हैं, प्रकाशन व्यवस्था सम्भालते हैं? तुम कभी उनका ध्यान नहीं आकृष्ट कर पाओगी " "लेकिन लेखक को तो सिर्फ लिखने से मतलब होना चाहिए " " लेखक के लेखन को पढ़ा भी जाना चाहिए " लेखिका प्रोफेसर को अपनी लिखी कहानियाँ भी दिखाती है. प्रोफेसर एक छोटे बच्चे का पिता है.उसकी पत्नी बच्चे की देखभाल को लेकर चिडचिडी रहती है. प्रोफेसर अपने अशांत घरेलू जीवन का जिक्र कर दुखी होता है,(जाने कितने उदाहरण हम सबके भी देखे जाने हुए हैं ) नायिका उसे सांत्वना देने के साथ साथ उसके प्रेमजाल में पूरी तरह गिरफ्त हो जाती है. प्रोफेसर जब अपने उपन्यास का ड्राफ्ट नायिका को पढने के लिए देता है तो नायिका ईमानदारी से उसकी कमियाँ बता देती है. प्रोफेसर को यह नागवार गुजरता है और वह उसे इमोशनली ब्लैकमेल करने लगता है कि जब तुम्हें मेरा लेखन पसंद नहीं तो मैं भी पसंद नहीं हो सकता ।हमें यह प्रेम सम्बन्ध तोडना होगा. तुम एक अच्छी लेखिका हो, तुम्हारी किताब छपेगी ,तुम मशहूर हो जाओगी मैं एक कॉलेज का एक अध्यापक मात्र रह जाऊँगा. हमारा सम्बन्ध आगे नहीं बढ़ सकता. " प्यार में डूबी नायिका कहती है, "ऐसा कभी नहीं होगा. मेरी किताब कभी नहीं छपेगी क्यूंकि मेरा लिखा कोई नहीं पढ़ेगा .आपके पास अच्छे विचार हैं . आप कहें तो मैं आपके उपन्यास को सुधार देती हूँ." प्रोफेसर सहर्ष सहमति देता है और यह सिलसिला चल निकलता है. नायिका लिखती है पर नाम प्रोफेसर का होता है.उसकी किताबें मशहूर होती जाती हैं. उसे बड़े ईनाम ,नोबल प्राइज़ तक मिल जाता है .वह बहुत दरियादिली से स्टेज से पत्नी को थैंक्यू बोलता है लेकिन पार्टी में जब एक अन्य लेखक कहता है, 'मेरी पत्नी मेरी सबसे बड़ी आलोचक है ' तो बड़ी सहजता से नायक कह देता है, 'अच्छा है मेरी पत्नी को पढने-लिखने का शौक नहीं है " नायिका जब कभी शिकायत करती है कि मैंने तुम्हारे लिए इतना कुछ किया है, दिन के आठ घंटे लिखती रही हूँ, समारोह के लिए तुम्हारे कपड़े चुनती हूँ, पार्टी में तुम्हारे साथ खड़ी रहती हूँ. नायक कहता है ,"पर मैंने तुम्हें प्यार किया है " फ़िल्म में और भी बहुत कुछ है.प्रोफेसर का बार बार अफेयर करना फिर पत्नी को ही अपराधबोध महसूस करवाते हुए माफ़ी माँगना. एक पत्रकार का सच ढूँढ़कर ,उसे उजागर करने के लिए उद्धत होना. सभी कलाकारों का अभिनय बहुत अच्छा है पर नायिका का अभिनय उत्कृष्ट है. जब स्टेज से वक्ता, नायक की लिखी किताब की तारीफ़ करते हैं तो नायिका की सजल आँखें और चेहरे पर आते-जाते भाव उजागर कर देते हैं किताब तो आखिर उसी की लिखी हुई. है. पटकथा कसी हुई है और निर्देशन बढ़िया है



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