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लाहुल स्पीती यात्रा वृत्तांत -- 2 (सराहन, सांगला, चितकुल )

नारकंडा से हम सुबह दस के करीब ,सराहन  की तरफ चले .रास्ता बहुत ही खूबसूरत  था ,पतली घुमावदार सडकें, ढेर सारी हरियाली के बीच सेब के बाग़ . मैंने पहली बार पेड़ों पर लगे सेब को देखा . सेब के पेड़ तो देखे थे पर सेबों के मौसम में कभी हिमाचल आना नहीं हुआ था . गुच्छे में लटके लाल लाल सेबों को देखकर  मैं तो जैसे पागल हुई जा रही थी. एक जगह मैंने गाड़ी रुकवाई और फोटो खींचने के लिए उतर पड़ी. मेरा उत्साह देख सब डर गए कि मैं कोई सेब तोड़ ना लूँ, पर बिना पूछे कैसे हाथ लगा सकती थी .अक्ल घर थोड़े ही भूल आई थी, साथ लेकर चल रही थी :)  .लिहाजा पेड़ों के सामने ढेर सारे फोटो खिंचवाए .कई जगह  सतलज नदी भी संग संग चली और उसका कल कल करता  मधुर स्वर...सफर को संगीतमय बना रहा था . तीन बजे के करीब हमलोग सराहन पहुँच गए .
सराहन हिमाचल का एक छोटा सा गाँव है .इसे किन्नौर का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. यह शिमला से १६५ और नारकंडा से  100 किलोमीटर की दूरी पर   समुद्र तल से लगभग 7100 फुट की उंचाई पर स्थित है. पहले यह 'बुशहर रियासत 'की  राजधानी था .शायद कठिन भोगोलिक परिस्थितिओं को देखते हुए बाद में राजा राम सिंह ने रामपुर को बुशहर की राजधानी के रूप में विकसित किया और अंतिम राजा के रूप में श्री वीरभद्र सिंह जी ने इसका प्रतिनिधित्व किया.  हिमाचल के लोग उन्हें आज भी राजा साहब कह कर बुलाना पसंद करते हैं.
सराहन के बारे में एक पौराणिक कथा के अनुसार यह स्थान कभी शोणितपुर कहलाता था. और यहाँ का सम्राट बाणासुर था, जो राजा बलि का पुत्र था. वह भगवान् भोले शंकर का परम भक्त था. “ त्रेता युग में रावण और बाणासुर के बीच में काफी संघर्ष होता रहा है, उस वक़्त बाणासुर ही एक अकेला ऐसा योधा था, जिससे रावण कभी जीत नहीं सका”. 


होटल में सामान रख कर खाना खाया और यूँ ही भटकने निकल गए . एक छोटे कस्बे के बाज़ार सा था जहां जरूरत की सारी चीज़ें मिल रही थीं .स्कूल  यूनिफ़ॉर्म में बच्चे स्कूल से लौट रहे थे . स्कोल कि इमारत भी बड़ी सी थी. कुछ बच्चों से रोक कर स्कूल के विषय में बात की तो पता चला, अच्छी पढ़ाई होती है और  सारे विषयों के शिक्षक भी हैं . छोटे से कस्बे के हिसाब से अच्छी खबर थी. हिमाचल में शिक्षा  का स्तर अच्छा दिखा और जितने भी लोगों से मिली , स्त्री-पुरुष, सभी बारहवीं  पास जरूर थे .
दूसरे दिन सुबह तैयार हो हम भीमकाली मंदिर देखने निकल पड़े.
सराहन का भीमाकाली मंदिर बहुत प्रसिद्ध है. दूर दूर से लोग भीमा देवी के दर्शन करने आते हैं और मन्नतें माँगते हैं . 'बुशहर राजवंश' की ये कुलदेवी हैं .आज भी विजयादशमी के समय वीरभद्र सिंह यहाँ पूजा करने आते हैं. यह मंदिर राजाओं के महल के अंदर स्थापित था और उनका निजी मंदिर था पर अब यहाँ सार्वजनिक स्थान है. यह मंदिर सब तरफ से सेबों के बाग़ से घिरा हुआ  है.पर्वत शिखर श्रीखंड की  पृष्ठभूमि में यह बहुत ही मनमोहक लगता है. 
यह ५१ शक्तिपीठों में से एक है .कहते हैं शिव जी जब सती का शव कंधे पर लेकर तांडव नृत्य कर रहे थे तो सती का कान यहाँ गिरा था और भीमाकाली देवी प्रगट हुई थीं. मन्दिर के  दो भव्य भवन है . एक का जीर्णोद्धार  किया गया है और एक अपेक्षाकृत नया है. 
 हिंदू और बौद्ध वास्तुशिल्प से निर्मित यह मंदिर लगभग 2,000 वर्ष पुराना है, मगर इसका जीर्णोद्धार कर इसको पुनः वही आकार दिया गया है। पत्थरों और लकड़ी के इस्तेमाल से बना यह मंदिर शत-प्रतिशत भूकंपरोधी है। मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर आप हिमालय को साक्षात निहार सकते हैं।  यह मंदिर अपनी विशिष्ट निर्माण शैली, लकड़ी की कलात्मक नक्काशी, और चांदी  चढ़े दरवाजों के लिए विख्यात है. उलटे पिरामिड की शक्ल में बने इस मन्दिर का नीचे बना आधार छोटा है, पहली मंजिल बड़ी और दूसरी मंजिल पहले से भी बड़ी है.,जिसके ऊपर छत्र है . मुख्य मन्दिर भी दुरी मंजिल पर ही है. मन्दिर निर्माण की एक और विशिष्टता यह है कि यहाँ लकड़ी के स्लीपर तथा पत्त्थर की  सिलें एक एक ऊपर एक रखकर मुख्य दीवारें  बनाई गई है. ये दीवारें और ढलवां छत बौद्ध प्रभाव को दर्शाती हैं. निर्माण की इस विशिष्टता के कारण यह गर्मी सर्दी आसानी से शसन कर लेती हैं. अनुमानतः यह सातवीं, आठवीं, शताब्दी में बना था .. इस से पता चलता है कि उस समय तिब्बत के साथ भारत का व्यापार शुरू हो चुका था . लकड़ी और पत्थर से बनी दीवारें हैं और छत काफी नीची है. 
  

मन्दिर का बाहरी दृश्य भी  मंत्रमुग्ध कर देने वाला है. यह मन्दिर बहुत बड़े भाग में फैला हुआ है. मुख्य मन्दिर तक जाने में बड़े बड़े तीन आंगन पार करने पड़ते हैं .जहां देवी शक्ति के तीन अलग अलग रूपों की मूर्ति मन्दिर में स्थापित है. देवी भीमा की अष्टधातु से बनी अष्टभुजा वाली मूर्ति सबसे ऊपर वाले प्रांगण में है. पैगोडा आकार के छत वाली इस मंदिर में पहाड़ी शिल्पकारी के बहुत सुंदर नमूने देखने को मिलते हैं.दीवारों पर लकड़ी के ऊपर देवी देवताओं, फूल पत्तीकी सुंदर नक्काशी है. मंदिर के प्रांगण में जाने वाले बड़े बड़े दरवाजों से गुजरना होता है उनपर चांदी मढ़ी हुई थी . 
मंदिर के अंदर स्त्री या पुरुष बिना सर ढके नहीं जा सकते .गार्ड उन्हें एक हिमाचली टोपी पहनने के लिए देता है. चमड़े की  बनी कोई वस्तु बेल्ट या पर्स भी लेकर नहीं जा सकते . इन्हें रखने के लिए बाहर लॉकर बने हुए हैं. हैरानी की बात ये लगी कि लॉकर के पास ही ,ताले चाबी भी रखे थे . लॉकर में अपना समान रखो और ताला लगाकर चाबी जेब में डाल कर ले जाओ. कहने में शर्म आ रही है पर अपना उत्तर भारत होता तो ताले-चाबी कब के चोरी हो गए होते . यहाँ ट्रेन के टॉयलेट में मग और बैंक,ऑफिस  वगैरह में पेन भी जंजीर में बंधी होती है :( 
पुरानी मन्दिर वाले प्रांगण में बहुत बड़े घड़े और कडाही पर्यटकों के दर्शनार्थ रखे गए हैं. हमने भी उनके संग कुछ  फोटो खिंचवाए .
सराहन का पक्षी विहार भी मशहूर है.हम वहाँ गए भी पर पता चला आजकल बंद है वह पक्षियों का प्रजनन काल है, उस वक्त पर्यटकों की आवाजाही से वे डिस्टर्ब  हो सकते हैं.. सही है,पक्षी हैं तो क्या,उन्हें भी आराम और  प्राइवेसी चाहिए ही. . वहीँ पर कुछ खूबसूरत मजदूर औरतें किसी भवन निर्माण में काम कर रही थीं और सुस्ताने के लिए रेत पर बैठी थीं. मुझे इतनी प्यारी लगीं कि मैंने उनकी तस्वीर ले ली .
सराहन में कई बौद्ध मठ भी हैं . एक मठ के प्रांगण में गए तो पाया, मठ बंद था .पर वहां मेरे मन  की मुराद पूरी हो गई. मठ कुछ उंचाई पर था उस से लगा हुआ कुछ नीचे एक सेब का बाग़ था .सेब से लदे डाल,मठ के प्रांगण में झूल रहे थे .पहले तो मैंने उन्हें तोड़ने की एक्टिंग करती  हुई तस्वीरें खिंचवाई. वहीँ दो तीन औरतें बैठी हुई थीं .वे मेरा कौतूहल  देख ,मुस्करा रही थीं.पता चला उनका ही बाग़ है और मैंने उनसे आग्रह किया, 'एक सेब तोड़ लूँ '.उन्होंने हंसते हुए इजाज़त दे दी...'एक क्या दो चार तोड़ लो'.पर मैंने दो ही तोड़े  .सेब अभी खट्टे ही थे पर इतने रसभरे और क्रंची कि मजा आ गया.

एक बहुत ही भव्य मठ एक पहाड़ी  के ऊपर बना हुआ था .वहाँ बुद्ध की विशालकाय मूर्ति थी .ऊपर से देखने से धुंध में लिपटा पूरा सराहन दिख रहा था . एक बौद्ध भिक्षु ने कतार से चमचमाते दीयों में दिया और बत्ती सजा रखी थी. पीतल के कई दीप स्तम्भ भी थे, जो सब चमचमा रहे थे . निश्चय ही वो बौद्ध  भिक्षु बहुत ही श्रद्धा लगन से अपना काम करता था . मठ के नीचे एक सेब का पेड़ दिख रहा था , जो फलों से इतना ज्यादा लदा हुआ   था कि उसकी पत्तियाँ भी नजर नहीं आ रही थीं. लौटते हुए हमें पानी बहने का स्वर तो सुनाई दे रहा था पर कहीं कोई धारा दिखाई नहीं दे रही थी....आवाज़ का पीछा करते रहे तो पाया...पत्थरों के नीचे से एक पतला सा झरना बह रहा था .इतनी बड़ी बड़ी शिलाएं भी उसकी आवाज़ नहीं दबा पा रही थीं ( हम स्त्रियों की आवाज़ सी :) ) 


अब शाम होने को आई थी...हम होटल लौट आये .दुसरे दिन सांगला के लिए प्रस्थान करना था .
'सांगला' हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित एक सुरम्य पहाड़ी शहर है। भारत-चीन सीमा पर अपनी स्थिति की वजह से 1989 तक इस स्थान के दौरे के लिये, यात्रियों को भारत सरकार से एक विशेष अनुमति लेनी पड़ती थी। हालांकि, बाद में इस क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये इस नियम को समाप्त कर दिया गया। बस्पा नदी की घाटी में स्थित यह जगह तिब्बती सीमा से काफी निकट है।तिब्बती भाषा में 'सांगला काअर्थ है 'प्रकाश का रास्ता'। इसकी  की प्राकृतिक सुंदरता अद्भुत  है चारों तरफ हिमालय की उंची पहाड़ियों से घिरा और वन, ढलानों और पहाड़ों से छाया हुआ है।यहाँ सेब, खुबानी, अखरोट, देवदार के वृक्ष बहुतायत में हैं. बताया जाता है कि प्राचीन समय में यह घाटी वनों और प्राकृतिक सम्पदा से इतनी ज्यदा घनी थी कि अग्यात्वास के दौरान ,पांडव यहीं छुपे  थे .  
इन पहाड़ी रास्तों पर कहीं कोई होटल या ढाबा नहीं मिलता कि रुक कर कुछ खाया पिया जाए. हमें बेतहाशा भूख लग गई थी. जब होटल पहुंच कर खाना ऑर्डर करने के लिए बुलाया तो उसने पूछा, 'आप जो कहें वही बना देंगे , हमें सामान लाने बाज़ार  जाना होगा.' .अगस्त का महीना वहाँ घुमने के लिए बहुत मुफीद मौसम है पर पर्यटकों के लिए ऑफ सीजन है. पर्यटक, गर्मी या दशहरे की छुट्टियों में ही ज्यादातर आते हैं. 
 खाना तैयार होने में वक्त लगने वाला था . हमने कहा, 'हम बाज़ार में जाकर ही कुछ खा लेते हैं, अब आप शाम  को खाना बनाना' . होटल का कुक भी हमारे साथ ही बाज़ार आया .वहाँ एक रस्टोरेंट में दाल रोटी और सब्जी आर्डर की  सब्जी का स्वाद कुछ अजीब सा था , चाइनीज़ जैसा पर पूरी तरह वैसा भी नहीं .लेकिन हमें इतनी भूख लगी थी कि गर्म गर्म फुलके के साथ वो सब्जी भी स्वादिष्ट लगी . पास की टेबल पर एक कपल बैठा था . वो हमारे होटल में नहीं ठहरा  पर शायद  उनके होटल में भी खाना नहीं बना था. वे लोग भी दाल रोटी सब्जी खा रहे थे .वहाँ वाशबेसिन पर गजब जुगाड़ दिखा. एक बड़े से प्लास्टिक डब्बे में नल लगा हुआ  था और वही डब्बा वाश बेसिन के ऊपर टंगा था . 
होटल में पहुंचे तो पीछे की तरफ एक अद्भुत दृश्य दिखा . हमारे होटल और पहाड़ियों के बीच एक इन्द्र्धनुष तना हुआ था . इतने करीब से इन्द्रधनुष पहली बार देख रही थी, हमने इन्द्रधनुष के साथ एक सेल्फी  ले ली :) खिड़की से दिखता दृश्य बचपन में बनाई पेंटिंग सरीखा लग रहा था .बर्फ से लदी चोटिया ,पहाड़ों के ढलान पर देवदार के वृक्ष ,उसके ऊपर मखमल सा बिछा हरा चारागाह और नीचे बहती बलखाती चंचल  नदी ...नदी के किनारे फलों से लदे सेब के बाग़ .नदी की कलकल धरा का मधुर संगीत हमें यहान तक सुनाई दे रहा था .बहुत देर तक  हम उन दृश्यों में खोये रहे . फिर ख्याल आया नदी तक घूम आया जाए .   नदी के किनारे ढलान पर एक गाँव बसा हुआ था . हम पूछते पाछते चल दिए ,.रास्ते में कई महिलायें पत्तों का बड़ा सा बोझा लादे ,घर की तरफ लौट रही थीं. . वे सर्दी के मौसम के लिए पशुओं का चारा इकठा करके रख  रही थीं.लाल लाल गालों वाली सुंदर पतली छरहरी महिलायें ,तेजी से इधर उधर काम से आ जा रही थीं. एक से रुक  र्मैने कुछ बात की तो वो पूछने लगी, कहाँ से आई हैं? और बम्बई कहने पर उसकी आँखें चमक उठीं, फिर उसने पूछा, '...कैसा लगा हमारा देस?" मेरे  'बहुत अच्छा ' कहने पर मुस्करा कर बड़ी मीठी आवाज़ में बोली, ;"फिर आना' . अनजान लोगों को भी अपने देस फिर फिर आने का न्योता, ये पहाड़ों के निश्छल लोग ही दे सकते हैं. 
थोडा नीचे जाने पर ,नाग देवता का बहुत सुंदर मन्दिर मिला . उसके द्वार पर बड़े बड़े नागों की आकृति बनी हुई थी. वहाँ लिखा था ,'पारम्परिक वेशभूष में ही मंदिर के अंदर प्रवेश करें' .वैसे भी मंदिर बंद था . उस प्रांगण में ऐसे चार मंदिर थे ....कुछ लड़के लडकियाँ ,मन्दिर के प्रांगण में इक्खट दुक्खट खेल रहे थे . पूरे देश में ही लडकियां इसे खेलती हैं . खेलने के लिए बस थोड़ी सी जगह और एक पत्थर का टुकड़ा ही  तो चाहिए . शाम गहराने लगी थी , होटल से इतनी पास  दिखती नदी अब भी दूर नजर आ रही थी. और हम सोच रहे थे, जितना नीचे उतरते जायेंगे, वापस चढना भी पड़ेगा.सो लौट पड़े. एक छोटी सी दूकान में चाय पी और समोसे को याद करते  हुए मोमोज खाए .यहाँ समोसे चाट पकौड़ी की जगह बस मोमोज ही मिलते थे, जो मुझे नहीं पसंद :( (नॉनवेज खाने  वाले कहते हैं , वेज मोमोज अच्छेनहीं होते, नौन्वेज ज्यादा स्वादिष्ट होते हैं , अब  अहम शाकाहारियों को ये कैसे पता चलेगा )
दूसरे दिन हमें भारत-तिब्बत  की सीमा पर बसे अंतिम गाँव 'चिट्कुल' के लिए निकलना था. चितकुल बस्पा नदी के किनारे बसा बहुत ही खूबसूरत छोटा सा गाँव है. सांगला से २८ किलोमीटर की दूरी पर है. सांगला से चितकुल का रास्ता इतना खूबसूरत है कि आज भी आँखें बंद करती हूँ तो सारे दृश्य साकार हो उठते हैं. यह पूरा रास्ता फैले हुए जंगल के बीच से होकर गुजरता है.रास्ते के ,पार्श्व में बहती बसपा नदी...पिघलते ग्लेशियर की छोटी छोटी धाराएं, आस-पास पड़े बड़े बड़े सफेद गोल पत्थर, तरह तरह के घने हरे पेड़, दूर चमकती बर्फीली चोटियाँ रास्ते को नयनाभिराम बना देती हैं.  महसूस होता है , स्वर्ग अगर कहीं है तो ऐसा ही होगा..हर तरफ हरियाली से भरा यह क्षेत्र ,भोजपत्र के घने जंगलों के लिए विख्यात है. कभी भोजपत्र का उपयोग कागज़ की तरह किया जाता था ,हमारे ऋषि मुनियों ने भोजपत्


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