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लाहुल स्पीती यात्रा वृतांत -- 3 ( रेकॉंग पियो, काल्पा, नाको, टाबो )


रेकॉंग पियो 
सांगला के बाद हमारा अगला पड़ाव काल्पा था. चंडीगढ़ से ही हमें खूबसूरत रास्ते मिल रहे थे पर काल्पा तक का रास्ता तो वर्णनातीत था. काल्पा से पहले एक छोटा सा शहर है ,रेकौंग पियो (Reckong Peo ) . अगर 'लव एट फर्स्ट साईट' जैसा कुछ होता है तो वो पहली बार महसूस किया मैंने. इस शहर को देखते ही मैं इसके प्यार में पड़ गई. चारों  तरफ से झुके झुके से पहाड़ ,उनके नीचे फूलों से लदे पेड़ और इन सबसे घिरा ये खुबसूरत छोटा सा कस्बा. लिटरली पहाड़ों  की  गोद में बसा लग रहा था .पहली बार इच्छा हुई कि बस यहीं बस जाऊं. थोड़ी देर ही रुके वहां, चमचमाती सडकें थीं, बड़ी बड़ी दुकानें थीं....यानि अनुपम प्राकृतिक छटा के साथ सारी आधुनिक सुविधाएं भी मौजूद थीं. एकाध घंटे वहाँ बिता बाद बड़े बेमन से हम कार में सवार हुए .

काल्पा पहुँच कर होटल की  खिड़की से पर्दा हटाया और सामने नजर आती कैलाश  किन्नर की बर्फ ढंकी चोटियों  ने विस्मय विमुग्ध कर दिया. इतने पास से हिमालय की चोटियों को देखने  का पहला अवसर था.. काल्पा सतलज नदी के किनारे समुद्र तल से 9,711 फीट की उंचाई पर बसा हुआ  है. यहाँ सेब और चिलगोज़े के बड़े बड़े बाग़  हैं. ऊँची नीची पहाड़ियों पर घर और होटल बने हुए हैं. .यहाँ रहने वाले  हिन्दू और बौद्ध धर्म दोनों  के अनुयायी  हैं ,इसी वजह से बहुत भव्य मन्दिर  और  बौद्ध मठ हैं.  शिक्षा का स्तर काफी अच्छा है .करीब 83.75% लोग साक्षर हैं. काल्पा के साथ एक बहुत रोचक जानकारी जुडी हुई है. भारत के पहले वोटर ''शायम शरण नेगी'  काल्पा से ही थे .२५ अक्टूबर १९५१ के सर्वप्रथम चुनाव में सबसे पहले वोट उन्होंने ही डाला था .

काल्पा से टूरिस्ट 'चाक ट्रेकिंग' के लिए जाते हैं, सुंदर पेड़ पौधों और झरनों से घिरा ये छोटा सा ट्रेक है. ऊपर से बहुत ही नयनाभिराम दृश्य देखने को मिलते हैं.  हिमाचल के ग्रामवासियों का जीवन करीब से देखने के लिए 'रोघी गाँव 'भी जाया जा सकता है. वहीँ बीच में सुसाइड पॉइंट भी है .वहाँ से बहुत सुंदर सूर्योदय-सूर्यास्त दिखते हैं. शायद किसी ने आत्महत्या कर ली होगी या फिर वहाँ से गिर कर बचा नहीं  जा सकता, शायद इसीलिए इसका नाम सुसाइड पॉइंट है. काल्पा में  बहुत ही पुराना 'नारायण नागिनी मन्दिर' और' हू-बू-लान-कार  मॉनेस्ट्री' भी देखने योग्य हैं. ये मॉनेस्ट्री  (950-1055 AD) में स्थापित किया गया था पर बाद में इसका नवीनीकरण भी होता रहा है, क्यूंकि यह बहुत ही अच्छी अवस्था में था . मॉनेस्ट्री शहर के बिलकुल बीच में है या शायद इसके गिर्द ही शहर बस गए होंगें.खूब चटख रंगों में दीवारे पेंट की हुई थीं और रंगीन प्ताके,(प्रेयर फ्लैग्स ) बंधे थे .मॉनेस्ट्री देखते हुए हम हम कस्बे के मार्केट की तरफ निकल गए. पतले से रास्ते के किनारे किनारे बने लकड़ी के मकान .कुछ मकान बहुत ही जर्जर अवस्था में नजर आरहे थे.पता नहीं उसमें लोग कैसे रहते होंगे .एक घर के बाहर चार महिलायें अपने काम से फुर्सत पाकर बैठीं गपशप कर रही थीं .सबने हिमाचली टोपी पहनी हुई थी.मैं उनकी तस्वीरें लेने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. 
कैलाश किन्नर 

मार्केट से निकल कर हम नीचे जाने वाले सडक पर निकल गए. खुले में आते ही  किन्नर कैलाश की खूबसूरत चोटी बिलकुल साफ़ नजर आने लगी , देखकर ऐसा लगता, जैसे बिल्कुल पास ही हो .इस स्थान को शिव जी का शीतकालीन प्रवास माना जाता है. . शायद जीवन की पहली सेल्फी मैंने किन्नर कैलाश के साथ ली :) . सामने सर्पीला रास्ता और बिलकुल सुनसान पर किसी तरह का डर नहीं. इक्का दुक्का लोग आते दिखते या फिर गाड़ी में सर्र से पार हो जाते. शाम ढल रही थी ,ढलान पर फैले चीड़ के वृक्षों के बीच से हवा सिटी बजाती हुई निकल जा रही थी. इतना सुहाना लग रहा था कि मेरा लौटने का मन ही नहीं हो रहा था और मैं नीचे उतरती चली गई .जबकि पता था ,वापसी में इतनी ही चढाई चढनी पड़ेगी पर उपाय सोच लिया था ,जब बिलकुल थक जाउंगी या अन्धेरा हो जाएगा तो ड्राइवर  को फोन कर बुला लूँगी . बेटे को मेरा साथ देना पड़ा.  कहते बुरा लग रहा है पर शायद अपने जाने पहचाने शहरों में हम यूँ अन्धेरा होते वक्त सुनसान सडक पर नहीं घूम पाते. हमारे पास महंगे मोबाइल फोन्स और महंगे  कैमरे भी थे पर पहाड़ों में ज़रा भी खतरा नहीं है . एक मित्र ने विस्तार से व्याख्या कि थी कि पहाड़ में कम जनसंख्या होती है. पुलिस करीब करीब सबको जानती है. फिर कोई वारदात, चोरी वगैरह करके वे भाग भी नहीं सकते , सुरक्षा की इन वजहों के साथ पहाड़ियों का ईमानदार होना भी एक बहुत बड़ा कारण है.अक्सर खाली सड़कों के बिलकुल बीच में बैठकर ,या डांस का पोज देते हुए लोगों की तस्वीरें देखी हैं. मैंने सोचा, मेरी उम्र वो सब करने नहीं पर हिमालय की चोटियों की पृष्ठभूमि में घने जंगलों के बीच से गुजरती सडक पर योगा तो किया ही जा सकता अहै :) और मैंने कई योग मुद्रा में फोटो खिंचवा लीं. जब बिलकुल ही अँधेरा हो गया तो ड्राइवर आकर हमें वापस होटल ले गया. हमें एक घर के अहाते में नाशपाती से लदा एक बहुत बड़ा पेड़ मिला. नाशपाती के पेड़ देखने का भी मेरा पहला अवसर था.सेब के पेड़ तो हर गली कुचे में थे .
हिमाचल में मैंने एक चीज़ गौर की.वहां बहुत शराब पीते हैं लोग .अब शायद निठल्लापन भी इसकी वजह हो.पहाड़ों पर बहुत सुस्त जीवन है और ढेर सारा वक्त है .हर जगह सडक के किनारे खाली बोतल पड़े हुए मिले. एक छोटे से टीले पर चढ़कर हमने फोटो लेने की सोची ,पर चढने के बाद देखा, एक पत्थर की आड़ में दो लोग शराब पी रहे हैं, हम झट से उतर गए.

अगले दिन नाश्ते के बाद अब हम 'टाबो' के लिए निकल पड़े.  अब तक बहुत ही ख़ूबसूरत रास्ते मिल रहे थे .दोनों  तरफ सेब के पेड़, ढेर सारी हरियाली और कलकल बहती नदी.पर अब डेजर्ट माउन्टेन' यानि पहाड़ों का रेगिस्तान शुरू हो गया था . सडक भी बहुत खराब थी. ज्यादातर धूल और पत्थर भरी कच्ची सडक और बहुत ही पतली ,पहाड़ के किनारे बस एक गाड़ी चलने भर जगह. गाड़ी का एक तरफ का पहिया बिलकुल रास्ते के किनारे होता और नीचे गहरी खाई . गाड़ी की स्पीड बीस-तीस से ज्यादा नहीं होती . कहीं कहीं नदी मिलती भी तो बिलकुल मटमैले पानी वाली उफनती हुई। यह विश्व का सबसे लहटरनाक रास्ता है।यू ट्यूब पर कई वीडियो हैं।देखकर कलेजा मुँह को आ जाता है और विश्वास नहीं होता
इन्हीं रास्तों पर हम भी चलकर गए है . हमारे साथ ही एक गाड़ी और थी जिसमें तीन लडकियां और एक लड़का था . ये लोग भी हमारी तरह ही लाहुल स्पीती ट्रिप पर थे.दोनों ड्राइवर की दोस्ती हो गई थी और दोनों एक ही जगह चाय पानी के लिए गाड़ी रोकते. इस इलाके में हर होटल के सामने हमें  'थुक्पा ' लिखा हुआ दिखता .यहाँ की लोकल डिश है. हमने एक जगह ऑर्डर की .पतले से सूप में नूडल्स थे ,कुछ बारीक कटी सब्जियां डली थीं .हमें तो स्वाद पसंद नहीं आया . उस रेस्टोरेंट को दो बहनें चला रही थीं ,बड़े इसरार से हमें खिला रही थीं पर हमसे पूरा खत्म नहीं हुआ. हिमाचल में ज्यादातर स्त्रियाँ दुकानदार ही दिखीं. टाबो जाने के लिए हमें एक पहाड़ के ऊपर जाकर फिर दूसरी तरफ नीचे उतरना था .पहाड़ पर गोल गोल गाड़ी चढ़ते देख रोमांच हो रहा था. ऊपर हवाएं खूब ठंढी हुई जा रही थीं और बादल जैसे राह रोक ले रहे थे. करीब 12,014 फीट की उंचाई पर एक गाव 'नाको 'स्थित है. . नाको में हमने गरमागरम राजमा और चावल खाया ..इतनी ऊँचाई पर ऐसा खाना खाकर मजा आ गया . कुछ ही देर में रेस्टोरेंट कहकहों से गुलज़ार हो गया. किसी  शादी से लौटते हुए एक ग्रुप आया. सब रिश्तेदार बहुत चहक रहे थे . एक जैसे जेवर और हिम्ह्क्ली टोपी पहने स्त्रियाँ बहुत सुंदर लग रही थीं. दूसरी कार वाले लोग 'नाको' में ही रुक कर अगले दिन 'टाबो' पहुँचने वाले थे. उनका ट्रिप तेरह दिन का था जबकि हमार ग्यारह दिन का. नाको झील बहुत खूबसूरत है ,जिसे देखने से हम वंचित रह गए . पहाड़ पर से उतरते हुए मन बड़ा उदास हो गया. 
कल्पा
'टाबो' पहुँचते हमें शाम हो गई. टाबो 10,760 फीट की ऊँचाई पर स्थित है. इसलिए यहाँ अन्धेरा 8.15 के बाद ही होता है. ये एक छोटा सा गाँव है. होटल पहुंच कर हमने बालकनी से एक अद्भुत नज़ारा देखा . आसमान में चाँद टंगा हुआ था , पहाड़ों के नीचे अंधेरा उतर आया था पर ऊपर के हिस्से सूरज की  रौशनी में नहाये हुए थे .यानि एक ही फ्रेम में चाँद, सूरज की  रौशनी और अंधेरा सब थे :) .पता चला हज़ार वर्ष पुरानी मॉनेस्ट्री बिलकुल पांच मिनट की दूरी पर है . पतली गलियों से होते हुए हम 996 में स्थापित भव्य मॉनेस्ट्री द्वार तक पहुँच गए. यह स्पीती नदी के किनारे स्थित है. इसकी भव्यता और शांति अभिभूत कर देती है.  1996 में दलाई लामा ने यहाँ 'कालचक्र समारोह' का आयोजन किया था जिसमें दुनिया भर से बौध्द भिक्षु आये थे . अन्धेरा हो गया था ,इलिए उनलोगों ने कमरे नहीं खोले .हमें अगले दिन सुबह आने के लिए कहा .हम बाहर स यही घूम घूम कर मॉनेस्ट्री देखते रहे.मॉनेस्ट्री के पीछे बड़े बड़े  स्तूप बने हुए हैं. हल्के घिरते अंधियारे में एक विदेशी युगल हाथों में हाथ डाले बहुत गंभीरता से कुछ बातें करते टहल रहा था. एक झाडी पर कई सारी गौरय्या चहचहा रही थीं, घड़ी देखी साढ़े सात बज गए थे ,पर पर्याप्त उजाला था . काफी देर तक मॉनेस्ट्री की दिव्य शांति की अनुभूति ले हम लौट पड़े. संकरे रास्ते पर मोबाइल का टॉर्च जलाना चाहा पर जरूरत नहीं थी. चटख चांदनी बिछी हुई थी .

होटल में हमारे बगल वाले कमरे में दो लडके ठहरे हुए थे .डिनर के वक्त देखा वे हाथ से दाल चावल खा रहे हैं .मुझे लगा वे जरूर बिहार के होंगें.पर बात की तो पता चला, वे दक्षिण के हैं. दक्षिण में भी लोग हाथों से ही दाल-चावल खाते हैं. दोनों लडके एक महीने की छुट्टी लेकर बैंगलोर से अपनी बाईक पर निकल पड़े हैं. उन्होंने अपनी यात्रा की कोई रूपरेखा नहीं बनाई थी .जहाँ मन हो जाता रुक जाते . रोहतांग से वे लद्दाख की तरफ निकल जाने वाले थे . 
टाबो

अगले दिन सुबह हम फिर मॉनेस्ट्री में हाज़िर थे . आज उन्होंने सारे कमरे खोल कर दिखाए . मॉनेस्ट्री की भीतरी दीवारों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित भव्य विशाल पेंटिंग्स लगी हुई थीं.जो सिल्क के कपड़ों पर की हुई है, पर उनका रंग वैसा ही बना हुआ  है.छत भी पेंटिंग से ढके हुए थे. उन सबको निरखते एक दिव्य अनुभूति हो रही थी. वहाँ से हमने कुछ सुवेनियर्स खरीदे. एक सुंदर सी महिला की  दूकान थी. वहाँ हमने एक प्रेयर बाउल खरीदा . ये एक बड़ा सा कटोरा होता है, जिसकी बाहरी सतह पर लकड़ी का एक छोटा सा स्टिक धीरे धीरे फिराने से बहुत ही मधुर ध्वनि उत्पन्न होती है. इन ध्वनि की तरंगों पर ध्यान लगाते हैं . हमने भी कर  के देखा और उस मधुर संगीत पर मुग्ध हो गए .पर जब मुंबई वापस आकर वही क्रिया दुहराई तो बड़ी क्षीण सी आवाज़ निकली . हमें लगा हमने ठीक से नहीं किया पर बार बार लकड़ी फिराने के बाद भी टाबो जैसी गूंजती आवाज़ नहीं निकली तब ध्यान आया .वह हिमालय की गोद में बसा एक छोटा सा शांत गाँव था . फिजां बिलकुल शांत थी, कहीं कोई शोर नहीं. मुम्बई में खिड़की दरवाजे बंद करने के बाद भी वातावरण में इतना शोर घुला हुआ है कि उतनी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ ही नहीं सकती . पर अब यही मधुर दवानी बहुत प्यारी लगती है ,टाबो वाली ध्वनि हम भूल चुके हैं :)



कल्पा


हू-बू-लान-कार  मॉनेस्ट्री' 


नारायण नागिनी मन्दिर' 







मन्दिर के चांदी मढ़े दरवाजे 








इतनी सारी ईंटें लेकर चढाई चढ़ता मजदूर 





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