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श्वेता सोनी की नजर में "काँच के शमियाने "

शायद किसी भी लेखक को लिखते वक्त बिलकुल पता नहीं होता कि उसकी कौन सी कृति पाठकों को भा जायेगी पहले उपन्यास के लिए तो मन ज्यादा ही आशंकित रहता है। 'काँच के शामियाने ' के साथ भी ऐसा ही था ।पर पाठकों का इतना प्यार इसे मिल रहा है कि नतमस्तक हूँ , उनके समक्ष ।

Sweta Soni एक वकील हैं, हाल में ही मेरी फ्रेंडलिस्ट में शामिल हुई हैं ।उन्होंने ये उपन्यास पढ़ा और बहुत दिल से अपनी प्रतिक्रिया दी है ।उनका लिखा पढ़ , उनके कई मित्र भी अब इसे पढ़ने के इच्छुक हैं ।थैंक्यू सो मच श्वेता ।तुमने समय लगा कर पढ़ा भी और फिर इतनी मेहनत से इतना खूबसूरत लिखा भी है ।बहुत शुक्रिया :)

काँच के शामियाने 

दोस्तों, कहीं पढ़ी थी अच्छी बातों का फैलाव अधिक से अधिक होना चाहिए ।सो आज आप सब से साझा कर रहीं हूँ Rashmi ji के पहले उपन्यास "काँच के शामियाने की"...ये हमारे समाज का एक ऐसा आईना है जिसे पढ़ने वाला खुद को इसके किसी एक पन्ने पर जरूर पाएगा। रश्मि जी से मेरी पहचान "वन्दना अवस्थी दी" के पोस्ट से हुई,जहाँ कभी कभार उनके विचार को पढ़ अपने विचार उनसे साझा करती थी।तब तक ये मालूम न था के वो बिहार की बेटी हैं, जो भले स-शरीर मायानगरी में रह रहीं हो परन्तु दिल में अभी भी यहाँ की गलियों के लिए जगह कायम है।आगे जाकर मालूम हुआ ये बहुत अच्छा लिखती भी है।इस उपन्यास में इन्होंने जिस जगह का (पटना) जिक्र किया, वहाँ मेरा मायका है(मेरा गाँव अलग है, पर अब तो जहाँ हमारे परिजन बस गए घर या मायका वही बन गया)इससे पढ़ने की उत्सुकता और भी तीव्र हो गई।मँगा तो जल्द ली पर बीच में त्योहार की तैयारियो में लगी रह गई।कल घर के काम से निपट कर अचानक study room में जाते ही इसपर नजर पड़ गई, और बिना समय गंवाए मै शुरू हो गई।दोपहर को बेडरूम में भी साथ ले गई ये सोच के पढ़ते-पढ़ते अपने आप नींद आ जाएगी, पर हुआ इसका उल्टा..आगे जानने की उत्सुकता इतनी बढ़ती गई के कब शाम के 3:30 हो गए क्या खबर।वो तो स्कूल बस के हौर्न की आवाज से ध्यान बटा, तो बुक मार्क लगाकर बाहर गई।जितनी देर बच्चों को ड्रेसअप कर खाना खिलाने में लगी, उतनी देर बस दूरी बनी रही।पर अब कोई disturbance नहीं चाहती थी, सो data भी off कर दी और टेरेस पर चली गई और फिर से शुरू हो गई...
"काँच के शामियाने"....इस कहानी की नायिका-जया,जो अपने परिवार में सबसे छोटी और सबकी लाड़ली होने के साथ-साथ अपने पिता की राजकुमारी थी।रश्मि जी ने उसकी खुबसूरती की जो बखान की है वो हमें अनसुना और जीवंत लगा जो जया के आँखों के लिए था कि उसकी आँखें गुड़िया सी बेजान नहीं बल्कि चपल मछलियों जैसी चंचल थीं।किताबें उसकी पहली पसन्द थी, और पढ़ लिखकर कुछ बनना उसका मकसद । पर अचानक फूलों की तरह मुस्काने वाली, बासंती हवा की तरह इठलाने वाली, बादलों-सी हल्की और चाँदनी-सी शफ्फाक उसकी जिन्दगी देखते-देखते दर्द के दरिया में तब्दील हो गई, उसके सारे सपने धरे रह गए जब एक रात दिल के गंभीर दौरे ने उसके पिता को हमेशा के लिए उससे दूर कर दिया।अब तो वह, बस आकाश की ओर देखकर रोती और ये सोच खुद चुप भी हो जाती के अगर उपर से बाबूजी देख रहें होंगे तो उन्हें दुःख होगा और फिर माँ को भी सम्भालना था उसे उससे बड़े सबों की शादी हो गई थी और वे सब अपने-अपने परिवार को सम्भालने मे लगें थें जो बाबूजी के तेरहवीं के बाद हीं चले गए थे।
फाईनल इम्तहान खत्म कर वो अपने माँ के साथ अपने बाबूजी के बनाए मकान..जो पटना के कंकड़ बाग में था वही आ कर रहने लगी, क्योंकि सरकारी क्वार्टर बाबूजी के बाद छिन गया।यहाँ वही हुआ जो हर युवा लड़की के जीवन में होता है।राजीव नाम का लड़का न चाहते हुए भी इसकी जिन्दगी में आ गया।बार- बार इसके ठुकराने के बाद भी जाॅब वाला लड़का था सो माँ और भैया ने खुशी से हामी भर दी।
अब इस चिड़िया को नया संसार बसाने के लिए बाबुल का घोंसला छोड़ना पड़ा।जहाँ पग-पग पर उसे नई यातना और ताने दिए जाने लगे,राजीव हर बात पर (पहले) खुद को ठुकराए जाने का बदला लेने लगा।
बहुत देर से हीं सही पर,आखिर एक दिन वो भी आता है, जब जया अपने तीनों बच्चों के साथ मिलकर खुद को साबित करते हुए अपना अस्तित्व कायम करती है।अंत तो बहुत सुखद हुआ, परन्तु रशिम जी ने बीच-बीच में जया के साथ-साथ हमें भी खूब खुब रूलाया।अंत के सुख के एहसास के बाद भी जम के रोयी-ये कहते हुए के काश जया जैसी हर औरत का अंत ऐसा ही सुखद हो।
यह मेरी प्रतिक्रिया कम और उपन्यास के शौकीन मेरे सभी मित्रों से एक सुझाव ज्यादा है के इसे एक बार पढ़ कर जरूर देखें,अगर अभी तक न पढ़ा हो तो।इसकी जीतनी तारीफ करूँ कम है।बहुत बधाई आपको।आपके अगले उपन्यास के इन्तजार में.......श्वेता सोनी । :)


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