हाथी की रस्सी
एक आदमी एक मंदिर के सामने से गुजर रहा था जिसके परिसर में एक हाथी बंधा था। वह हाथी मस्ती से उसके आगे डाली गई घास-फूस खा रहा था। राहगीर यह देखकर ठिठक ही नहीं गया अपितु परेशान हो गया कि इतने विशाल जानवर को एक छोटी सी रस्सी से, वो भी सामने एक टांग पर बांधकर रखा गया था। न कोई जंजीर और न कोई पिंजरा यह बात तो जाहिर सी थी कि इतना विशालकाय हाथी कभी भी में इस रस्सी को तोड़कर जा सकता था, मगर किसी कारण से ऐसा नहीं कर रहा था। तभी उस राहगीर ने हाथी के प्रशिक्षक को देखा तो पूछा कि यह जानवर यहाँ खड़ा है, भागने की कोई चेष्टा भी नहीं कर रहा | आखिर क्यों ? प्रशिक्षक ने बताया कि जब यह छोटा था, तब इसको इसी साइज की रस्सी से बांधते थे, जो कि इसके लिए सही तब यह भान था कि यह उसको तोड़ नहीं सकता। जब यह बड़ा गया तब भी हमने इसको इसी रस्सी से बांधना जारी रखा। इस तरह इसी रस्सी को मानस में लेकर बड़ा हुआ। इसके दिमाग में यह बात घर कर चुकी है कि यह इस बंधन को नहीं तोड़ सकता। यही विश्वास इसको यहीं पर टिकाये हुए है। हमारे जीवन में अक्सर ऐसा होता है। हम एक विश्वास या धारणा को ही अंतिम सत्य मानकर उसके साथ जीते रहते हैं । उसमें हमारे विचारों और संस्कारों की स्वतंत्रता भी कैद हो जाती है। हम उससे निकलकर आगे सोचने या बढ़ने की पहल भी नहीं करत हते । यदि ऐसा प्रयत्न करें तो संभवत: हमारे आगे नया संसार खुले ! राहगीर यह जानकर सोच-विचार में डूबा हुआ आगे बढ़ गया ।