≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्याऊ और … “।)
Related Articles
यह तब की बात है, जब मिल्टन के वॉटर कंटेनर और बिसलेरी की बॉटल का आविष्कार नहीं हुआ था, क्योंकि हमारे प्रदेश में कुएं, बावड़ी, नदी तालाब, ताल तलैया और सार्वजनिक प्याऊ की कोई कमी नहीं थी। शायद आपने भी सुना हो ;
मालव धरती गहन गंभीर,
डग डग रोटी, पग पग नीर
हम बचपन में, सरकारी स्कूल में कभी टिफिन बॉक्स और वॉटर बॉटल नहीं ले गए। कोई मध्यान्ह भोजन नहीं, बस बीच में पानी पेशाब की छुट्टी मिलती थी, जिसे बाद में इंटरवल कहा जाने लगा।
इतने बच्चे, कहां का पब्लिक टॉयलेट, मैदान की हरी घास में, किसी छायादार पेड़ की आड़ में, तो कहीं आसपास की किसी दीवार को ही निशाना बनाया जाता था। हर क्लास के बाहर, एक पानी का मटका भरा रहता था, तो कहीं कहीं, पीने के पानी की टंकी की भी व्यवस्था रहती थी। कुछ पैसे जेब खर्च के मिलते थे, चना चबैना, गोली बिस्किट से काम चल जाता था।
शहर में दानवीर सेठ साहूकारों ने कई धर्मशालाएं बनवाई और सार्वजनिक प्याऊ खुलवाई। हो सकता है, कई ने कुएं बावड़ी भी खुदवाए हों, लेकिन सार्वजनिक पेशाबघर की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि यह जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन अथवा नगर पालिका की ही रहती थी। हो सकता है, नगरपाल से ही नगर पालिका शब्द अस्तित्व में आया हो। ।
आज भी शहर में आपको कई ऐसी धर्मशालाएं और सार्वजनिक प्याऊ नजर आ जाएंगी, जिनके साथ दानवीर सेठ साहूकार का नाम जुड़ा हो, लेकिन इनमें से किसी के भी नाम पर, शहर में कोई सार्वजनिक पेशाब घर अथवा शौचालय नजर नहीं आता। इतिहास गवाह है, केवल एक व्यक्ति की इन पर निगाह गई, और परिणाम स्वच्छ भारत अभियान के तहत खुले में शौच से मुक्ति, घर घर शौचालय, और सार्वजनिक शौचालय और पेशाबघर के निर्माण ने देश का कायाकल्प ही कर दिया।
इसके पूर्व सुलभ इंटरनेशनल ने पूरे देश में सुलभ शौचालयों का जाल जरूर बिछाया, लेकिन उसमें जन चेतना का अभाव ही नज़र आया।
पानी तो एक आम आदमी कहीं भी पी लेगा, लेकिन पेशाब या तो घर में ही की जा सकती है अथवा किसी पेशाब घर में। भाषा की अपनी एक सीमा होती है, और शर्म और हया की अपनी अपनी परिभाषा होती है। कुछ लोग इसे लघुशंका कहते हैं तो कुछ को टॉयलेट लग जाती है।
मौन की भाषा सर्वश्रेष्ठ है, बस हमारी छोटी उंगली कनिष्ठा का संकेत ही काफी होता है, अभिव्यक्ति के लिए। जिन्हें अधिक अंग्रेजी आती है वे इस हेतु पी (pee) शब्द का प्रयोग करते हैं। बच्चे तो आज भी सु सु ही करते हैं। खग ही जाने खग की भाषा। ।
एक समग्र शब्द प्रसाधन सभी को अपने आपमें समेट लेता है। बोलचाल की भाषा में आज भी इन्हें पब्लिक टॉयलेट कहा जाता है, पुरुष और महिला के भेद के साथ। प्रशासन ऐप द्वारा भी आजकल आपको सूचित करने लगा है, यह सुविधा आपसे कितनी दूरी पर है।
हर समस्या का हल सुविधा से ही होता है, लेकिन कुछ आदिम प्रवृत्ति आज भी पुरुष को स्वेच्छाचारी, उन्मुक्त और उच्छृंखल बनाए रखती है। सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान और मल मूत्र का विसर्जन वर्जित और दंडनीय अपराध है लेकिन उद्दंडता सदैव कानून कायदे और अनुशासन का उल्लंघन ही करती आ रही है। हद तो तब होती है, जब इनके कुछ शर्मनाक कृत्य लोक लाज और मान मर्यादा की सभी हदें पार कर जाते हैं, और कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो आम भाषा में कांड की श्रेणी में शामिल हो जाता है, कभी तेजाब कांड तो कभी पेशाब कांड ! एक जानवर कभी अपनी कौम को शर्मिंदा नहीं करता, लेकिन एक इंसान ही अक्सर इंसानियत को शर्मिंदा करते देखा गया है। हम कब सुधरेंगे।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
The post हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 97 ⇒ प्याऊ और …… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆ appeared first on साहित्य एवं कला विमर्श.
This post first appeared on ई-अà¤à¤¿à¤µà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿ - साहितà¥à¤¯ à¤à¤µà¤‚ कला विमरà¥à¤¶ (हिनà¥à¤¦à¥€/मराठी/अङà¥à¤—à¥à¤°à¥‡à¥›à¥€), please read the originial post: here