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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता में विज्ञान…, आत्मकथ्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

संजय दृष्टि – कविता में विज्ञान…, आत्मकथ्य

विज्ञान को सामान्यतः प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है जबकि कविता को कल्पना की उड़ान। ज्ञान, ललित कलाओं और विज्ञान में धुर अंतर देखनेवालों को स्मरण रखना चाहिए कि राइट बंधुओं ने पक्षियों को उड़ते देख मनुष्य के भी आकाश में जा सकने की कल्पना की थी‌। इस कल्पना का परिणाम था, वायुयान का आविष्कार।

सांप्रतिक वैज्ञानिक काल यथार्थवादी कविताओं का है। ऐसे में दर्शन और विज्ञान में एक तरह का समन्वय देखने को मिल सकता है। मेरा रुझान सदैव अध्यात्म, दर्शन और साहित्य में रहा। तथापि अकादमिक शिक्षा विज्ञान की रही। स्वाभाविक है कि चिंतन-मनन की पृष्ठभूमि में विज्ञान रहेगा।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ कविता स्वत: संभूत है। यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है।

अपनी कविता की चर्चा करूँ तो उसका आकलन तो पाठक और समीक्षक का अधिकार है। मैं केवल अपनी रचनाप्रक्रिया में अनायास आते विज्ञान की ओर विनम्रता से रेखांकित भर कर सकता हूँ।

‘मायोपिआ’ नेत्रदोष का एक प्रकार है। यह निकट दृष्टिमत्ता है जिसमें दूर का स्पष्ट दिखाई नहीं देता। निजी रुझान और विज्ञान का समन्वय यथाशक्ति ‘मायोपिआ’ शीर्षक की कविता में उतरा। इसे नम्रता से साझा कर रहा हूँ।

वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

आइंस्टिन का सापेक्षता का नियम सर्वज्ञात है। ‘ई इज़ इक्वल टू एम.सी. स्क्वेयर’ का सूत्र उन्हीं की देन है। एक दिन एकाएक ‘सापेक्ष’ कविता में उतरे चिंतन में गहरे पैठे आइंस्टिन और उनका सापेक्षता का सिद्धांत

भारी भीड़ के बीच

कर्णहीन नीरव,

घोर नीरव के बीच

कोलाहल मचाती मूक भीड़,

जाने स्थितियाँ आक्षेप उठाती हैं

या परिभाषाएँ सापेक्ष हो जाती हैं,

कुछ भी हो पर हर बार

मन हो जाता है क्वारंटीन,

….क्या कहते हो आइंस्टीन?

(कवितासंग्रह ‘क्रौंच’ से)

कविता के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है,” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।’

न्यूक्लिअर चेन रिएक्शन की आशंकाओं पर मानुषी प्रकृति की संभावनाओं का यह चित्र नतमस्तक होकर उद्धृत कर रहा हूँ,

वे देख-सुन रहे हैं

अपने बोए बमों का विस्फोट,

अणु के परमाणु में होते

विखंडन पर उत्सव मना रहे हैं,

मैं निहार रहा हूँ

परमाणु के विघटन से उपजे

इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन,

आशान्वित हूँ हर न्यूक्लियस से,

जिसमें छिपी है

अनगिनत अणु और

असंख्य परमाणु की

शाश्वत संभावनाएँ,

हर क्षुद्र विनाश

विराट सृजन बोता है,

शकुनि की आँख और

संजय की दृष्टि में

यही अंतर होता है।

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

अपनी कविता के किसी पक्ष की कवि द्वारा चर्चा अत्यंत संकोच का और दुरूह कार्य है। इस सम्बंध में मिले आत्मीय आदेश का विनयभाव से निर्वहन करने का प्रयास किया है। इसी विनयभाव से इस आलेख का उपसंहार करते हुए अपनी जो पंक्तियाँ कौंधी, उनमें भी डी एन ए विज्ञान का ही निकला,

ये कलम से निकले,
काग़ज़ पर उतरे,
शब्द भर हो सकते हैं
तुम्हारे लिए,
मेरे लिए तो
मन, प्राण और देह का
डी एन ए हैं !

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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