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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 113 ☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा बदलेगा बहुत कुछ। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 113 ☆

☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा में आज अनामिका की कविता ‘बेजगह‘ पढानी शुरू की –

अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते, 

केश, औरतें और नाखून,

पहली कुछ पंक्तियों को पढ़ते ही लड़कियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लड़कों पर कोई असर नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ शिक्षिका पढ़ती है –

लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं, 

उनका कोई घर नहीं होता।

शिक्षिका कवयित्री के विचार समझा रही थी और क्लास में बैठी लड़कियां बेचैनी से एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लड़के मुस्करा रहे थे। कविता आगे बढ़ी –

कौन सी जगह होती है ऐसी

जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों, 

कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी

एकदम बुहार दी जाने वाली।

एक लड़की ने प्रश्न पूछने के लिए हाथ ऊपर उठाया- मैडम! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?

हाँ – शिक्षिका ने शांत भाव से उत्तर दिया।

एकदम से कई लड़कियों के हाथ ऊपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा– कचरा थोड़े ही है?

शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर, बुहारकर घर से बाहर कर दिया गया था। किसी के मन – मस्तिष्क को बड़े योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खड़ी थी। उसे एक दिन पति ने बड़ी  सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ —–

 मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।

हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे ? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं, इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करें, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ – शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ

प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं, 

मानसिकता का है।

बात किसी की मानसिकता की हो, 

जरूरी है कि स्त्री

अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले

बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ।

घंटी बज गई थी।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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