श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
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आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 119 ☆
☆ सुधारीकरण की आवश्यकता ☆
दूसरों को सुधारने की प्रक्रिया में हम इतना खो जाते हैं कि स्वयं का मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में गलत रास्ते पर चल देना आजकल आम बात हो गयी है। पुरानी कहावत है चौबे जी छब्बे बनने चले दुब्बे बन गए। सब कुछ अपने नियंत्रण करने की होड़ में व्यक्ति स्वयं अपने बुने जाल में फस जाता है। दो नाव की सवारी भला किसको रास आयी है। सामान्य व्यक्ति सामान्य रहता ही इसीलिए है क्योंकि वो पूरे जीवन यही तय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना है। कभी इस गली कभी उस गली भटकते हुए बस माया मिली न राम में गुम होकर पहचान विहीन रह जाता है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि एक ओर ध्यान केंद्रित करें। सर्वोच्च शिखर पर बैठकर हुकुम चलाने का ख्वाब देखते- देखते कब आराम कुर्सी छिन गयी पता ही नहीं चला। वो तो सारी साजिश तब समझ में आई कि ये तो खेला था मुखिया बनने की चाहत कहाँ से कहाँ तक ले जाएगी पता नहीं। अब पुनः चौबे बनना चाह रहे हैं, मजे की बात दो चौबे एक साथ कैसे रहें। किसी के नियंत्रण में रहकर आप अपना मौलिक विकास नहीं कर सकते हैं। समय- समय पर संख्या बल के दम पर मोर्चा खोल के बैठ जाने से भला पाँच साल बिताए जा सकेंगे। हर बार एक नया हंगमा। जोड़ने के लिए चल रहे हैं और स्वयं के ही लोग टूटने को लेकर शक्तिबल दिखा रहे हैं। देखने और सुनने वालों में ही कोई बन्दरबाँट का फायदा उठा कर आगे की बागडोर सम्भाल लेगा। वैसे भी लालची व्यक्ति के पास कोई भी चीज ज्यादा देर तक नहीं टिकती तो कुर्सी कैसे बचेगी। ऐसे में चाहें जितना जोर लगा लो स्थिरता आने से रही। हिलने- डुलने वाले को कोई नहीं पूछता अब तो स्वामिभक्ति के सहारे नैया पार लगेगी। समस्या ये है कि दो लोगों की भक्ति का परीक्षण कैसे हो, जो लंबी रेस का घोड़ा होगा उसी पर दाँव लगाया जाएगा। जनता का क्या है कोई भी आए – जाए वो तो मीडिया की रिपोर्टिंग में ही अपना उज्ज्वल भविष्य देखती है। ऐसे समय में नौकरशाहों के कंधे का बोझ बढ़ जाता है व उनकी प्रतिभा, निष्ठा दोनों का मिला- जुला स्वरूप ही आगे की गाड़ी चलता है। कुल मिलाकर देश की प्रतिष्ठा बची रहे, जनमानस इसी चाहत के बलबूते सब कुछ बर्दाश्त कर रहा है।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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