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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 243 ☆ व्यंग्य – ‘ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य  – ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 243 ☆

☆ व्यंग्य – ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार

आम आदमी के लिए भले ही ‘ग़म’ या ‘दर्द’ या ‘रंज’ नागवार रहा हो, लेकिन शायरों और गीतकारों ने इसे ख़ूब पाला-पोसा है। उनके उनवान से लगता है कि ज़िन्दगी में ग़म न हो तो ज़िन्दगी दोज़ख हो जाए। शायरों और गीतकारों के लिए ग़म ख़ूबसूरत भी है और मीठा भी। फिल्मी गीतों के नमूने देखिए— ‘शुक्रिया अय प्यार तेरा, दिल को कितना ख़ूबसूरत ग़म दिया।’ और, ‘एक परदेसी मेरा दिल ले गया, जाते-जाते मीठा मीठा ग़म दे गया।’

यह ग़म या दर्द शायरों को बेतरह परेशान करता रहा है। न इसका कारण समझ में आता है, न उपचार। प्रमाण के तौर पर ‘ग़ालिब’ को देखें— ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?’

ज़ाहिर है कि यह ग़म या दर्द इश्क से पैदा होने वाला ग़म है, इसका ग़मे-रोजगार से कोई ताल्लुक़ नहीं है। ग़मे-रोज़गार से उलट यह ग़म सुकून और चैन देने वाला होता है, इसीलिए शायर उससे निजात पाने की ख्वाहिश नहीं रखता।

शायरों,गीतकारों की ज़िन्दगी में ग़मों की आवाजाही बनी रहती है। एक फ़िल्मी गीतकार ने लिखा— ‘घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश में, ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिये।’ हालत यह होती है कि ग़म या दर्द ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा बन जाते हैं। एक फ़िल्मी गीत का मुलाहिज़ा करें—‘मुझे ग़म भी उनका अज़ीज़ है, कि उन्हीं की दी हुई चीज़ है। यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी,इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?’ यानी   महबूबा को प्रेमी का दिया हुआ ग़म भी इतना प्यारा है कि उसे दिल से जुदा करना मुश्किल हो जाता है।

एक और फ़िल्म में नायिका फ़रमाती है— ‘न मिलता ग़म तो बरबादी के अफ़साने कहाँ जाते, अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहाँ जाते?’ मतलब यह कि ज़िन्दगी में बरबादी के अफ़साने ज़रूरी हैं और उनकी पैदावार के लिए ग़मों का होना ज़रूरी है। अगर चमन ज़रूरी हैं तो वीराने भी ज़रूरी हैं।

इसी गीत में आगे देखें—‘तुम्हीं ने ग़म की दौलत दी, बड़ा एहसान फ़रमाया। ज़माने भर के आगे हाथ फैलाने कहाँ जाते?’ यानी ग़म न  हों तो ग़मों को हासिल करने के लिए ज़माने के आगे हाथ फैलाने की नौबत आ सकती है।

एक और नायिका ग़मों से मिली समृद्धि से गद्गद है— ‘दिल को दिये जो दाग़, जिगर को दिये जो दर्द, इन दौलतों से हमने ख़ज़ाने बना लिये।’ यानी, दूसरों के लिए भले ही ग़म या दर्द तक़लीफ़देह हों, नायिका के लिए वे ख़ज़ाने से कम नहीं हैं।

दर्द की स्वाभाविकता के बारे में ‘ग़ालिब’ ने लिखा, ‘दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यों : रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों?’ और, ‘दर्द मिन्नत कशे दवा न हुआ, मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।’

मतलब यह कि मेरे दर्द का अच्छा न होना बेहतर है क्योंकि मुझे दवा का मोहताज नहीं होना पड़ा।

प्रेमी के प्रति नायिका का लगाव इस मयार का है कि नायिका प्रेमी से इल्तिजा करती है कि वह अपने दुख उसे देकर हल्का हो जाए। ‘तुम अपने रंजो-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो।’ और, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है, मुझे सब अपने ग़म दे दो।’ वैसे यह समझना मुश्किल है कि ग़मों का स्थानांतरण कैसे हो सकता है। ग़म अगर कर्ज़- वर्ज़ का है तो बात अलहदा है।

हमारे शायरों ने ज़िन्दगी में ग़म को बहुत तरजीह दी। ‘शकील’ साहब ने लिखा— ‘मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम तेरे ग़म से आशकारा, तेरा ग़म है दर हकीकत मुझे ज़िन्दगी से प्यारा।’

एक दिलचस्प थियरी हमारे शायरों ने पेश की है, जिस पर आज के औषधि-विशेषज्ञों को तवज्जो देना चाहिए। अनेक शायरों का मत है कि दर्द हद से गुज़र जाए तो ख़ुद ही दवा बन जाता है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा— ‘इशरते क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।’ दूसरी जगह ‘ग़ालिब’ लिखते हैं—‘रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गयीं।’

शायर का मक़सद शायद यह है कि दर्द या ग़म के हद से गुज़रने पर आदमी उसका आदी हो जाता है, जो बड़ी सीमा तक सच भी है। हर दिल अज़ीज़ गायक तलत महमूद के जिस गीत में ‘ख़ूबसूरत ग़म’ देने के लिए प्यार का शुक्रिया अदा किया गया है, उसी में आगे गीतकार कहता है— ‘आँख को आँसू दिये जो मोतियों से कम नहीं, दिल को इतने ग़म दिये कि अब मुझे कोई ग़म नहीं।’

इसी तबियत के एक गीत की पंक्ति है— ‘ये दर्द दवा बन जाएगा, इक दिन जो पुराना हो जाए।’ लेकिन गीत के रचने वाले ने यह नहीं बताया कि दर्द से निजात देने वाला वह शुभ दिन कब आएगा।

शायर ‘जिगर’ मुरादाबादी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें उनका दर्द मज़ा देने लगता है— ‘आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किये जा रहा हूँ मैं।’ इसी रंग के एक फ़िल्मी गीत के बोल हैं— ‘जब ग़मे इश्क सताता है तो हँस लेता हूँ।’

एक दूसरी ग़ज़ल में, जिसे बेगम अख़्तर ने अपना ख़ूबसूरत स्वर दिया, ‘जिगर’ फ़रमाते हैं— ‘तबीयत इन दिनों बेगानए ग़म होती जाती है, मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है।’ यानी ज़िन्दगी में ग़म के न रहने से ख़ुशियाँ भी घटती जाती हैं। ग़रज़ यह कि ख़ुशियाँ ग़मों पर ही मुनहसिर हैं।

ग़ालिब ने लिखा— ‘इश्क से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया, दर्द की दवा पायी, दर्द बे-दवा पाया।’ यानी इश्क से ज़िन्दगी का मज़ा भी मिला और दर्द की दवा और  लाइलाज दर्द भी।

प्रेमी के लिए दर्दे-इश्क इतना ज़रूरी है कि सोये दर्द को जगाया जाता है— ‘जाग दर्दे  इश्क जाग। दिल को बेक़रार कर, छेड़ के आँसुओं का राग।’

कहने की ज़रूरत नहीं कि ये ग़म और दर्द इश्के-मजाज़ी से  पैदा होते हैं, इनका ताल्लुक़ ग़मे-रोज़गार से क़तई नहीं है। ग़मे- रोज़गार से यह ख़ूबसूरत और मीठा-मीठा दर्द हासिल होना मुमकिन नहीं है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा कि किसी न किसी ग़म में मुब्तिला होना इंसान की नियति है— ‘ग़मे इश्क गर न होता, ग़मे रोज़गार होता।’

लेकिन सब शायर ग़म को ओढ़ने- बिछाने के क़ायल नहीं हैं। उनके लिए ग़म कोई पालने-पोसने की चीज़ नहीं है। शायर जाँनिसार अख़्तर लिखते हैं— ‘ग़म की अँधेरी रात में, दिल को न बेक़रार कर, सुबह ज़रूर आएगी, सुबह का इन्तज़ार कर।’

और वह ‘फ़ैज़’ साहब का सदाबहार शेर— ‘दिल नाउमीद तो नहीं, नाकाम ही तो है। लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।’

‘ग़ालिब’ के फलसफ़े के अनुसार ग़म ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा हैं, उन्हें ज़िन्दगी से अलग करना मुमकिन नहीं है— ‘क़ैदे हयात बन्दे ग़म अस्ल में दोनों एक हैं, मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों?’

‘फ़ैज़’ साहब की एक और मशहूर नज़्म, जिसे महान गायिका नूरजहाँ ने स्वर देकर अमर बना दिया, का शेर है— ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ वहीं एक दूसरी तबियत का, प्यारा शेर, शायर अमीर ‘मीनाई’ का है— ‘ख़ंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।’

ग़म को पालने-पोसने वाला क्लासिक पात्र मशहूर अंग्रेज़ उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में मिस हैविशाम के रूप में मिलता है। मिस हैविशाम का प्रेमी उन्हें धोखा देकर उस वक्त भाग जाता है जब वे शादी की पूरी तैयारियों के साथ उसका इंतज़ार कर रही थीं। उसके धोखे की ख़बर पाकर मिस हैविशाम ने समय को उसी क्षण पर रोक देने की कोशिश की। घर की घड़ियाँ उसी क्षण पर रोक दी गयीं, वे जीवन भर शादी की वही पोशाक पहने रहीं, शादी की केक पर मकड़जाले तन गये, एक जूता पैर में और एक मेज़ पर ही रहा। लेकिन उनकी सारी कोशिशों के बावजूद वक्त उनकी बन्द मुट्ठी से रिसता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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