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सुगम गीता (द्वितीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

द्वितीय अध्याय (भाग -२)

नष्ट न करे प्रयत्न ये, होय न कुछ प्रतिकूल। 
स्वल्प साधना बुद्धि की, हरे मृत्यु की शूल।।२६।। 

एक बुद्धि इस योग में, निश्चित हो कर रहती। 
अस्थिर मन में बुद्धि की, कई तरंगें बहती।।२७।। मुक्तामणि 

इच्छाओं में चूर जो, करके शास्त्र सहायी। 
कर्म करे ठहरा उचित, निम्न भोग फल दायी।।२८।। मुक्तामणि 

त्रिगुणाश्रित फल वेद दे, ऊँचा उठ तू पार्थ। 
चाह न कर अप्राप्य की, रहे प्राप्य कब साथ।।२९।। 

चित्त लगा उस नित्य में, जो जल-पूर्ण तड़ाग। 
गड्ढों से बाहर निकल, क्षुद्र कामना त्याग।।३०।। 

कर्म सदा अधिकार में, फल न तुम्हारे हाथ। 
त्यज तृष्णा फल-हेतु जो, त्यज न कर्म का साथ।।३१।। 

सफल-विफल में सम रहो, ये समता ही योग। 
योगास्थित हो कर्म कर, तृष्णा का त्यज रोग।।३२।। 

बुद्धि-योग बिन कर्म सब, निम्न कोटि के जान। 
आश्रय ढूँढो बुद्धि में, दीन फलाशा मान।।३३।। 

पाप-पुण्य के फेर से, बुद्धि-युक्त है मुक्त। 
समता से ही कर्म सब, होते कौशल युक्त।।३४।। 

बुद्धि मुक्त जब मोह के, होती झंझावात से। 
मानव मन न मलीन हो, सुनी सुनाई बात से।।३५।। उल्लाला 

कर्मों से फल प्राप्त जो, बुद्धि-युक्त त्यज कर उसे।
जन्म-मरण से मुक्त हो, परम धाम में जा बसे।।३६।। उल्लाला 

भाँति भाँति के सुन वचन, भ्रमित बुद्धि जो पार्थ।
थिर जब हो वह आत्म में, मिले योग का साथ।।३७।। 

क्या लक्षण, बोले, चले, बैठे जो थिर प्रज्ञ। 
चार प्रश्न सुन पार्थ के, बोले स्वामी यज्ञ।।३८।। 

मन की सारी कामना, त्यागे नर जिस काल। 
तुष्ट स्वयं में जो रहे, थिर-धी बिरला लाल।।३९।। 

सुख में कोउ न लालसा, दुःख न हो उद्विग्न। 
राग क्रोध भय मुक्त जो, वो नर थिर-धी मग्न।।४०।। 

स्नेह-रहित सर्वत्र जो, मिले शुभाशुभ कोय। 
प्रीत द्वेष उपजे नहीं, नर वो थिर-धी होय।।४१।। 

विषय-मुक्त कर इन्द्रियाँ, कच्छप जैसे अंग। 
हर्षित मन थिर-धी रहे, आशु-बुद्धि के संग।।४२।। 

इन्द्रिय संयम से भले, होते विषय निवृत्त, 
सूक्ष्म चाह फिर भी रहे, मिटे तत्त में चित्त।।४३।। 

बहुत बड़ी बलवान, पीड़ादायी इन्द्रियाँ। 
यत्नशील धीमान, का भी मन बल से हरे।।४४।। सोरठा 

मेरे आश्रित बैठ, वश कर सारी इन्द्रियाँ। 
जिसकी मुझ में पैठ, थिर-मति जग उसको कहे।।४५।। सोरठा 

विषय-ध्यान आसक्ति दे, फिर ये बाढ़े कामना। 
पूर्ण कामना हो न जब, हुवे क्रोध से सामना।।४६।। उल्लाला 

मूढ़ चित्त हो क्रोध से, उससे स्मृति-भ्रम होय फिर।
बुद्धि-नाश भ्रम से हुवे, अंत पतन के गर्त गिर।।४७।। उल्लाला 

राग द्वेष से जो रहित, इन्द्रिय-जयी प्रवीन। 
विषय-भोग उपरांत भी, चिरानन्द में लीन।।४८।। 

धी-अयुक्त में भावना, का है सदा अभाव। 
शांति नहीं इससे मिले, मिटे न भव का दाव।।४९।। 

मन जिस इन्द्रिय में रमे, वही हरे फिर बुद्धि। 
उस अयुक्त की फिर कहो, किस विध मन की शुद्धि।।५०।। 

अतः महाबाहो उसे, थिर-धी नर तुम जान। 
जिसने अपनी इन्द्रियाँ, वश कर राखी ठान।।५१।। 

जो सबकी है रात, संयमी उस में जागे। 
जिसमें जागे लोग, निशा लख साधु न पागे।।५२।। रोला 

सागर फिर भी शांत, समाती नदियाँ इतनी। 
निर्विकार त्यों युक्त, कामना घेरें जितनी।।५३।। रोला 

सभी कामना त्याग, अहम् अभिलाषा ममता।
विचरै जो स्वच्छंद, शांति अरु पाता समता।।५४।। रोला 

ये ब्राह्मी स्थिति पार्थ, पाय नर हो न विमोहित। 
सफल करे वो अंत, ब्रह्म में होय समाहित।।५५।। रोला 

इति द्वितीय अध्याय (भाग -२)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 14-4-2017 से प्रारम्भ और 17 -4-2017 को समापन)





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