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काउंट ग्लारज़ा का ख़त हज़रत वारिस पाक के नाम

सबा वारसी कहते हैं-

दिलबर हो दिलरुबा हो आलम-पनाह वारिस
सुल्तान-ए-औलिया हो आलम-पनाह वारिस


किस की मजाल है जो कशती मेरी डुबो दे
जब आप नाख़ुदा हो आलम-पनाह वारिस


ये जान-ओ-दिल जिगर सब उस को निसार कर दूँ
जो तेरा बन गया हो आलम-पनाह वारिस


हसरत यही है मेरी कि तो मेरे सामने हो

बाब-ए-करम खुला हो आलम-पनाह वारिस

ऐसा लगता है कि सबा वारसी ने ये मनक़िबत काऊंट गलार्ज़ा की तरफ़ से लिखी है
काऊंट गलार्ज़ा- जिनका क़िस्सा हम आप को सुनाएँगे, और उनके एक ख़त को भी यहां पेश करेंगे

हज़रत वारिस-पाक रहमतुल्लाह अलैह के मुरीद हर जगह थे। कई सेंट्रल एशिया के थे। बहुत से जर्मन थे, अंग्रेज़ थे और कुछ स्पेनी मुरीदों के बारे में भी हवाले मिलते हैं

हाजी औघट शाह साहिब वारसी ने अपनी किताब रिसालये ज़ियाफ़तुल अहबाब में कई ऐसे ख़तों का हवाला दिया है जो उनको काउंट गलार्ज़ा ने लिखे थे । काउंट गलार्ज़ा का एक और ख़त बहुत अहम है जो उन्होंने मलिक ग़ुलाम मुहम्मद साहिब वारसी को लिखा था, जो कि डाक और तार के महिकमे के अस्सिटैंट डायरेक्टर जनरल थे.

इस ख़त से हमको पता चलता है कि काउंट गलार्ज़ा स्पेन के रहने वाले थे। और उनके अँदर एक अलग तरह की रुहानी बेचैनी थी। वो किसी सच्चे दरवेश की बल्कि एक सच्चे पीर या रहनुमा की तलाश में थे। यही तलाश उनको मिस्र ले गई. मिस्र में उनकी मुलाक़ात हुई जामिआ अज़हर में हसन अस्करी साहिब से, जिन्हों ने काउंट गलार्ज़ा को हज़रत वारिस-पाक के बारे में बताया। कि हिन्दोस्तान में एक ऐसे बुज़ुर्ग हैं जो सच्चे दरवेश हैं.

काउंट गलार्ज़ा के माँ बाप नहीं चाहते थे कि बेटे बहुत दूर जाएं। काउंट गलार्ज़ा  को मालूम था कि माँ बाप हिन्दोस्तान जाने की इजाज़त नहीं देंगे। इस लये वो माँ बाप को बताए बग़ैर मुंबई पहुंचे और फिर वहां से वो देवा शरीफ़ आए और ये सारी बातें ख़तों के हवाले से मौजूद हैं
हम आज आपकी ख़िदमत में एक ख़त पेश कर रहे हैं जो काउंट गलार्ज़ा ने मलिक ग़ुलाम मुहम्मद ख़ान साहब वारसी को लिखा था.

तो याद रखने की बात ये है जो ख़त हम पेश कर रहे हैं, वो एक ईसाई इन्सान लिख रहा है और सिर्फ़ ऐसा ही नहीं वो स्पेन के शाही ख़ानदान से ताल्लुक़ रखता है। लेकिन उस को रूहानियत में गहरी दिलचस्पी है। उस को सूफ़ी मसलक में दिलचस्पी है। उस को अरबी ज़बान में दिलचस्पी है और यही वजह है कि वो जब औघट शाह वारसी को ख़त लिखता है तो अरबी में लिखता है लेकिन जब मलिक ग़ुलाम मुहम्मद ख़ान वारसी को लिखता है तो अंग्रेज़ी में लिखता है.

किताबों में मौजूद है कि काउंट गलार्ज़ा अपने साथ एक मुतरज्जिम यानी एक इंटरप्रेटर को अपने साथ लाये थे। देवा शरीफ़ पहुंचे तो उन्हों ने ने वारिस-पाक से मुलाक़ात की। लेकिन चार पाँच मिनट से ज़्यादा वक़्त नहीं मिल सका.

हज़रत वारिस-पाक ने उन को मुहब्बत गले लगाया और इस तरह से एक रुहानी ताल्लुक़ पैदा हुआ जिसने काउंट गलार्ज़ा की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल  दी.

दूसरे दिन फिर जब काउंट गलार्ज़ा वारिस-पाक से मिलने आए, तो हज़रत ने कुछ मिठाई दी और एक धोती दी। और कहा कि जाओ
“एक सूरत को पकड़ लो- वही तुम्हारे साथ रहेगी”

काउंट ग्लारज़ा का ख़त

जनाब-ए-आ’ली !

मुझे हज़रत वारिस अ’ली शाह के बारे में आपके सवालात का जवाब देने और आपको वो सब बताने में बहुत ख़ुशी हो रही है जो मैं उनके बारे में जानता हूँ। उस दरवेश से मुलाक़ात का होना मेरी ज़िंदगी का एक अहम वाक़िआ’ था।इसका अंदाज़ा मेरी ख़ुद-नविश्त पढ़ कर लगाया जा सकता है।अगर ये बातें रिकॉर्ड में आ जाऐं और अगर मैं ऐसा कर पाऊं तो, मैं उस शीरीं इलाही-सिफ़ात वाले का शुक्रगुज़ार रहूँगा।

हज़रत वारिस अ’ली शाह के साथ मेरा तअ’ल्लुक़ सिर्फ़ मेरे और एक इन्सान के दरमियान का है जो क़ुदरती ख़ामियों से कभी मुतअस्सिर नहीं हुआ। वो मेरे सबसे प्यारे दोस्त थे और उन्हों ने मेरा दिल मेरी माँ से भी ज़्यादा माला-माल किया। दर हक़ीक़त, उनके माँ जैसे हवाले से मेरी सबसे बड़ी ख़्वाहिश ये थी कि वो अपनी ला-तअल्लुक़ी की हद तक पहुंच जाएं और इस तरह उनकी मौत के बाद , मुस्तक़बिल के किसी भी महदूद वजूद से नजात पाया जा सकता है।

हज़रत ने मेरे तमाम एहसासात का इदराक किया, और उस दिन से बहुत पहले जब मैंने बैरूनी दुनिया में उनसे मुलाक़ात की थी तो वो मेरे अंदर एक मुबहम मिसाली शख़्स की हैसियत से रहते थे। ख़ालिस शुऊ’र और आसमानी ला-तअल्लुक़ी का जौहर, जिसके वो मज़हर थे, वो पहले से ही मेरी लाशुऊ’री के उफ़ुक़ पर मौजूद था।

जब मैं महज़ तेरह साल का था, तब मैं ने कश्मीर के महाराजा ने पूछा था कि क्या हिन्दोस्तान में अब भी कोई हक़ीक़ी योगी मौजूद है? उसके बा’द , शैख़ हबीब अहमद, जो हिन्दोस्तान से आए थे, ने मुझे अपने बारे में इ’ल्म-ए-नुजूम और फ़लसफ़ा से मुतअ’ल्लिक़ कुछ पुर-असरार बातें बताईं, जिससे मुझे इत्मीनान हासिल नहीं हुआ। उसने ने मुझे बताया कि अगर मज़ीद मा’लूमात चाहते हो तो मेरे मुर्शिद वारिस अ’ली शाह से हासिल कर लो।

ये नाम फ़ौरन मेरे लिए कशिश का एक ख़ूबसूरत मरकज़ और रुहानी मरहले की एक अ’लामत बन गया जो उस वक़्त कम-ओ-बेश शुऊ’री तौर पर मेरा मक़्सद भी था। इसलिए मैंने उनके मुर्शिद से मिलने का पुख़्ता इरादा कर लिया। एक साल पहले, मैंने अपने वालिदैन से मिस्र में मौसम-ए-सरमा गुज़ारने की इजाज़त हासिल की थी, और मैंने वहाँ ख़ल्वत का लुत्फ़ भी उठाया था जिसे मैंने एक सूफ़ी तरीक़ा के मुताबिक़ अस्मा-ए-इलाही पर ग़ौर करने के लिए ज़रूरी समझा था और जो शैख़ हबीब अहमद ने मुझे समझाया था। चुनांचे मुझे अ’रबी के उस्ताद हसन अ’स्करी की निगरानी में दुबारा क़ाहिरा जाने की इजाज़त मिल गई। मैं जानता था कि मेरे वालिदैन मुझे इंडिया का सफ़र करने से मना’ कर देंगे , इसलिए मैंने ख़ामोशी से बंबई गया, फिर लखनऊ में आराम किया। रोज़ाना तक़रीबन सात घंटे अंधेरे कमरे में मुराक़बा करता , क्योंकि एक या दो साल से ये मेरी आ’दत सी बन गई थी।

लखनऊ से , मैंने हसन अ’स्करी के साथ एक गाड़ी में देवा शरीफ़ का सफ़र शुरू’ किया , और दोपहर से पहले , मैं वारिस अ’ली शाह के घर की दहलीज़ पर जज़्बात से काँप रहा था।

मैंने हिन्दुस्तानी गांव और फ़क़ीरों को पीले रंग के लिबास में कभी नहीं देखा था , इसलिए मेरे ज़ेहन में एहसास की दुनिया से ख़्वाब की सरज़मीन के ऊपर एक स्टेज सा सज गया था, जहाँ मा’नवी और माद्दी चीज़ें एक दूसरे में मुंतक़िल हो जाती हैं।
अपने दो मुरीदों की आमद की मा’लूमात पाते ही , वारिस अ’ली शाह की क़द्दावर शख़्सियत सामने थी. आसमान की तरह गहरी और शफ़्फ़ाफ़ नीली आँखें; बहुत ऊंची और सीधी पेशानी; सफ़ेद रंग और सफ़ेद दाढ़ी और चेहरे पर उ’न्फ़ुवान-ए-शबाब की सी मा’सूम और पुर-जोश मुस्कुराहट नमूदार हुई।

मैं बे-ख़ुदी में तेज़ी से उनके पास भागा और उनके दिल के उपर अपना सर रख दिया। उन्होंने मुझे अपनी बाँहों में जकड़ लिया,और कहा , मुहब्बत ! (ये मुहब्बत है , मुहब्बत है)।

हम चटाईयों पर बैठ गए। हसन अ’स्करी ने उनके सवालात का तर्जुमा किया। ये कहाँ से आया है? इसका मज़हब क्या है? मैंने अ’स्करी को इस आख़िरी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया , क्योंकि मेरे पास जवाब देने के लिए कुछ था ही नहीं। ता-हम , वारिस अ’ली शाह ने तमाम मज़ाहिब के मक़्सद का निचोड़ बताया जो मुझे बिलकुल याद नहीं रहा , क्योंकि मेरी तवज्जोह  इस पर मर्कूज़ थी जिसका मैं इज़हार करना चाहता था। अ’स्करी ने उन्हें बताया कि मैं फ़क़त उनकी ज़ियारत के लिए ही हिन्दोस्तान आया हूँ। ताज-महल जैसी मशहूर जगहों या यादगारों को देखने का मेरा कोई इरादा नहीं है। क्या इसकी कोई ख़ाहिश है? ये वही सवाल था जिसकी मुझे उनसे तवक़्क़ो’ थी और इसी की फ़िक्र में मैं डूबा था। हाँ , मैंने कहा। मैं आप जैसा बनना चाहता हूँ। वह मुस्कुराये , चारों तरफ़ देखा , जवाब देने से पहले थोड़ा तवक़्क़ुफ़ किया, और फिर कुछ उर्दू में अल्फ़ाज़ कहे जो मेरे लिए तमाम ने’अमतों से बेहतर थे। कहा-


“हम और तुम वहाँ एक जगह होंगे”

एक तवील तनाव के बाद पुर-सुकून नींद की तरह , इन अल्फ़ाज़ ने मेरे दिल और दिमाग़ में काफ़ी इत्मीनान पैदा किया।मुझे ऐसा लग रहा था कि बहुत सी आरज़ूओं का मक़्सद मुकम्मल तौर पर पूरा हो गया था। इसके बा’द मैंने एक पीले रंग का कपड़ा पेश किया जिसे हज़रत वारिस अ’ली शाह ने बतौर-ए-लिबास पहना। मुझे उस के बदले में उन्होंने भूरे रंग का लिबास दिया जो उन्होंने पहन रखा था।
इसके बा’द , मुर्शिद के शागिर्द , औघट शाह ने मुझे गेस्ट हाऊस में पहुंचाया जहाँ मैं नीम बद-हवास रहा। फिर मैं सो गया और मुराक़बा किया। शाम को , औघट शाह ने अ’स्करी के ज़रिये’ मुझे उस्ताद के बारे में बहुत सी बातें बताईं , और उनकी ज़िंदगी के कुछ मो’जिज़ाती वाक़िआ’त से आगाह किया , लेकिन मेरी तवज्जोह बहुत ज़्यादा उन वाक़िआ’त की तरफ़ नहीं थी , क्योंकि सबसे ज़्यादा दिल-चस्प और न भूलने वाले अल्फ़ाज़ मैं पहले ही सन चुका था। 

मुझे ये भी याद है कि औघट शाह ने मा’रूफ़ सूफ़ी नज़रिया के बारे में भी बताया था।

“अपनी (जिस्मानी) मौत से पहले (दुनिया के लिए) मर जाओ”

और वो अस्मा-ए-इलाही के विर्द के दौरान , किसी आ’दाद-ओ-शुमार पर गिनने के एक तरीक़ा से वाक़िफ़ थे , जिस पर मैं अ’मल करता था। शाम के बा’द , एक गुलूकार को बुलाया गया, मेरे ख़याल में वो मुहम्मदी था ।वो दो मूसीक़ारों के साथ आया, और उसने मुहब्बत और आँसूओं से लबरेज़ कुछ सूफ़ियाना नग़्मे गाए।

अगले दिन हमने मुर्शिद से रुख़्सत तलब की , और मैंने अपने टूटे फूटे अल्फ़ाज़ में उनका शुक्रिया अदा किया। उनकी बे-रुख़ी मुझे कुछ तल्ख़ महसूस हुई।

मैं मिस्र वापस आया और क़ाहिरा के क़रीब हेलोमान में तौफ़ीक़ पैलेस में क़ियाम-पज़ीर रहा।मैंने ऐसी जगह का इंतिख़ाब किया था जहाँ मैंने एक साल पहले क़ियाम किया था क्योंकि ये सहरा से घिरा हुआ था। मेरा नफ़्स अब दुनिया के अ’ज़ीम रेगिस्तान से पहले से कहीं ज़्यादा वाज़ेह तौर पर घिरा हुआ था , और रोज़ाना कुछ घंटे कुछ अस्मा-ए-इलाही की तकरार से मेरा हौसला बढ़ गया था।

दो या तीन माह बा’द , मैंने एक ख़्वाब देखा , या यूं कह लीजिए कि बातिनी नज़र का मुशाहदा किया। मैंने वारिस अ’ली शाह को तन्हा देखा जो मेरी तरफ़ देख रहे थे।उनके दाएं हाथ में एक बड़ा फल था। मैंने पहचानने की कोशिश की कि ये कौन सा फल है। मैंने पहले “टमाटर” कहा फिर जर्मन में Paradiesapfel” (जन्नत का सेब) कहा। वारिस अ’ली शाह ने हाथ उठाया , और आधा फल खाया और दूसरा आधा मेरी तरफ़ बढ़ा दिया जिसे मैंने ले लिया।फिर उसी वक़्त वो मेरी नज़रों से ओझल हो गए और औघट शाह मेरे सामने खड़े हो कर बोल रहे थे कि पीर का विसाल हो गया है।

मैं ज़ोर-ज़ोर से रोया लेकिन मैं ख़ुश था , गोया मैं नहीं जानता था कि मैं ग़म से रो रहा हूँ या ख़ुशी से। इसी हालत में मैं बेदार हुआ , या यूँ कह लीजिए कि बेहोशी से बाहर आया। मैं समझ गया कि फल उनका दिल था , और वो उसे मौत की दहलीज़ पर मुझे दे रहे थे। दो या तीन दिन बाद , शैख़ हबीब अहमद , जो लंदन में थे , की तरफ़ से एक टेलीगराम आया, जिसमें कहा गया कि मुर्शिद का विसाल हो गया है।अ’स्करी इस अ’जीब-ओ-ग़रीब ख़्वाब और टेलीगराम के ज़रीया’ उसकी तस्दीक़ से बहुत मुतअस्सिर हुए।मैं बहुत ज़्यादा हैरान नहीं था , मैं ख़ाइफ़ और शुक्रगुज़ार था। मुझे ऐसा लगा कि इस ख़्वाब के ज़रीया’ एक-बार फिर उर्दू के उस मुबारक फ़िक़रे का इज़हार हुआ है जो मैंने देवा में सुना था।
कई सालों तक , मैंने वारिस अ’ली शाह का सुरमई लिबास अपने तकिए के नीचे रखा , और सोने से पहले उसे हमेशा बोसा दिया करता था।
1907 मैं , मैंने आ’ला इ’ल्म हासिल करना शुरू ‘कर दिया जो एहसास की दुनिया से तअल्लुक़ नहीं रखता था। तमाम शक्लों से मावरा होने के ख़्याल ने, मेरे ज़हन में मेरे प्यारे इन्सानी दोस्त , वारिस अ’ली शाह की एक ख़ास शक्ल को मुअ’त्तल कर दिया। ता-हम , मैं हमेशा उनकी शक्ल के मा’नी को अपने इंतिहाई शुऊर और बे-नाम नफ़्स में तलाश कर सकता हूँ।


जनाब-ए-वाला! मैं उम्मीद करता हूँ कि आपने दो दिन पहले जो सवाल किया था उसका जवाब आप को मुकम्मल तौर पर मिल गया होगा।ये वो तमाम चीज़ें हैं जो मैं देवा शरीफ़ के ख़ालिस दरवेश के बारे में जानता हूँ।

आपका ख़ैर-ख़्वाह
गलाराज़ा

(ये ख़त अस्ल में1922 में एक पर्चे की शक्ल में ख़ान बहादुर डिप्टी इफ़्तिख़ार हुसैन वारसी, काकोरी ने मिस्टर बर्नस ,मेंबर आफ़ बोर्ड आफ़ रीवैन्यू रियासतहा-ए-मुत्तहदा आगरा और अवध की ख़ुसूसी गुज़ारिश पर शाए’  किया था।)

यह पूरा ख़त दानिश इक़बाल साहब की आवाज़ में यहाँ सुना जा सकता है –



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