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हज़रत ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन अहमद अल-मा’रूफ़ मिर्ज़ा सरदार बेग साहिब क़िब्ला बल्ख़ी सुम्मा हैदराबादी

आपके जद्द-ए-अमजद अशरफ़-ओ-सादात-ए-बल्ख़ और औलाद-ए- हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन नक़्शबंदी रहमतुल्लाह अ’लैह थे।जब वारिद-ए-हैदराबाद हुए तो अपने घराने का नाम छुपा के अपने को ब-इस्म मिर्ज़ा-ए-वाहिद बेग मशहूर किए और तालिबुद्दौला के रिसाला-ए-मुग़लिया में मुलाज़िम हुए और इसी नाम से मशहूर हुए।

घराने का नाम-ए-गिरामी घर में ही रहा और चूँकि रिसाला-ए-मुग़लिया में शरीक थे सब लोग आपको मुग़ल ही जानते थे।यहाँ तक कि मौलवी अस्फ़िया साहिब आपकी साहिबज़ादी की निस्बत से आपका हसब-ओ-नसब दरयाफ़्त किए। गुल बादशाह शहज़ादा-ए-बल्ख़ ने जो निज़ाम अ’ली ख़ाँ आसिफ़ जाह ग़ुफ़रान मंज़िल के दामाद थे,शहादत दी की ये लोग शोरफ़ा-ए-नामदार-ए-बल्ख़ से हैं। उनका मकान और मेरी डेवढ़ी बल्ख़ में मुत्तसिल है।सिर्फ़ एक दीवार का फ़स्ल है।मैं ख़ूब जानता हूँ कि ये लोग शरीफ़-ओ-नजीबुत्तरफ़ैन हैं।उस वक़्त से आपकी औलाद का रिश्ता यहाँ के शोरफ़ा से होने लगा।

ख़ैर जब आफ़्ताब-ए-आ’लमताब ज़ात-ए-बाबरकात हज़रत क़ुद्दिसा सिर्रहु यहाँ ताबाँ-ओ-दरख़्शाँ हुआ तो आपके वालिद-ए-अमजद ने आपका नाम  दस्तूर-ए-घराना के मुवाफ़िक़ मीर ग़ुलाम हुसैन रखा। सिर्रन व-अ’लानिय्यतन और जब आपके बिरादर-ए-ख़ुर्द अल-मा’रूफ़ ब-मिर्ज़ा शहसवार बेग साहिब क़िबला मरहूम पैदा हुए तो उनका नाम भी ब-हसब-ए-क़ाइदा मीर ग़ुलाम हसन रखा।छोटे भाई को हसन और बड़े भाई का नाम हुसैन रखने की ये वजह भी थी कि हज़रत की विलादत-ए-बा-सआ’दत ऐ’न अ’श्रा-ए-शरीफ़ में हुई थी।आपका नाम मीर ग़ुलाम हुसैन रखा गया।और जब आपके छोटे भाई पैदा हुए तो उनको हज़रत इमाम हुसैन के भाई की ग़ुलामी में दे दिया।बस आपका ख़ानदानी नाम-ए-मुबारक मीर ग़ुलाम हुसैन था और वालिद-ए-माजिद के इंतिक़ाल के बा’द आपकी और आपके भाई साहिब मरहूम की इस्म-नवीसी का मौ’क़ा’ आया था तो सर-रिश्ता-दार रिसाला-ए-मुग़लिया ने आपका और आपके भाई का नाम बदल के आपको मिर्ज़ा सरदार बेग साहिब और आपके भाई साहिब को मिर्ज़ा शहसवार बेग साहिब लिख दिया।यही दो नाम मशहूर-ओ-मा’रूफ़ हो गए।

लिहाज़ा मिर्ज़ा सरदार बेग जो आपका इस्म-ए-मुबारक था अ’ता-ए-सरकारी हुआ और जो आपको अहमद क़ाफ़िला-सालार कहते हैं,ये लक़ब-ओ-ख़िताब-ए-मुर्शिदी है।आपका लक़ब अहमद होने की वजह ये है कि एक दिन आप ब-पेश-गाह-ए-मुर्शिद तशरीफ़ रखे थे। आपके पीर भाई ने चिल्ला की इस्तिजाज़त की।जवाब मिला मिस्रा:’ “मुर्शिद चू कामिलत चिल्लः शुद शुद न-शुद न-शुद” और आपको ये इर्शाद हुआ ऐ अहमद ! तू आ’शिक़ी ब-मशीख़त तुरा चे कार,दीवानः बाश सिलसिलः शुद शुद न-शुद न-शुद. पस आपका पूरा नाम-ए-नामी हज़रत ख़्वाजा मीर ग़ुलाम हुसैन अहमद मिर्ज़ा सरदार बेग क़ाफ़िला-सालार होने की ये कैफ़ियत है कि हज़रत क़ुद्दिसा-सिरर्हु अपने पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत ख़्वाजा हाफ़िज़ सय्यद मोहम्मद अ’ली साहिब ख़ैराबादी शाहूरी चिश्ती रहमतुल्लाह अ’लैह के एक सफ़र-ए-मुबारक में हाज़िर थे और हज़रत की और हज़रत के ख़ुद्दाम की और तमाम हम-राहियों की ख़िदमत ऐसी जाँ-फ़िशानी और जाँ-बाज़ी के साथ उस तमाम सफ़र-ए-मुबारक में की कि एक दिन हज़रत के पीर-ओ-मुर्शिद ख़ुश हो कर आपसे फ़रमाए कि मिर्ज़ा क़ाफ़िला-सालार है।अ’लावा इसके आपने क़ाफ़िला-ए-हिजाज की सालारी भी कि है कि ब-यक ज़ात-ए-बा बरकत-ओ-यक नफ़्स-ए-नफ़ीस चहल या पंजाह (चालीस या पचास) मर्द-ओ-ज़न-ओ-अतफ़ाल को हज करवा लाए।

हज़रत को ख़ुद ब-आँ सिग़र-ए-सिन्नी ता’लीम-ओ-तर्बियत के लिए ज़रूरत-ए-तर्ग़ीब-ओ-तअ’द्दी न थी।ख़ुद ब-शौक़-ए-दिल दाख़िल-ए-मकतब हो के क़ुरआन शरीफ़ ख़त्म किए।इसके बा’द ख़ुद ही शौक़ से तहसील-ए-क़वाइ’द-ए-तर्तील-ओ-तज्वीद कर के इ’ल्म-ए-फ़िक़्ह की तरफ़ मुतवज्जिह हुए और हज़रत मौलवी शुजाउ’द्दीन साहिब क़िबला  क़ुद्दिसा सिर्रहु से फ़िक़्ह-ओ-अ’क़ाइ’द पढ़े।फिर फ़न्न-ए-सिपह-गरी की तरफ़ तवज्जुह फ़रमाई।चुनाँचे शमशीर-ओ-नेज़ा-बाज़ी और वर्ज़िश वग़ैरा में बे-नज़ीर थे।बिल-जुमला जिस अम्र की तरफ़ कमर-ए-हिम्मत बाँधी दाद दे दी।मगर कभी तहसील-ए-दौलत-ओ-जाह-ए- दुनिया का कुछ ख़याल न था।सोहबत-ए-सुलहा आपको बहुत पसंद थी।अक्सर मौलवी साहिब ममदूह की सोहबत में रहते थे।चूँकि तहसील-ए-इ’ल्म-ए-ज़ाहिरी फ़र्ज़-ए-ऐ’न और इस से ज़ाएद फ़र्ज़-ए-किफ़ाया है इसलिए आप तहसील-ए-इ’ल्म-ए-बिस्यार की तरफ़ मुतवज्जिह न हुए और इरादा तय-ए-मनाज़िल-ए-सुलूक फ़रमाया और मौलवी साहिब से अ’र्ज़ की कि हज़रत इस अम्र में आप दस्तगीरी फ़रमाएं।हर चंद की मौलवी साहिब साहिब-ए-सिलसिला थे मगर आपका हिस्सा चूँकि हज़रत ख़्वाजा हाफ़िज़ सय्यद मोहम्मद अ’ली साहिब क़िबला क़ुद्दिसा-सिर्रहु के ख़ज़ाना-ए-असरार में था,आपको वहीं ले आए और बैअ’त की हिदायत दी।पस आप ब-मूजिब-ए-हिदायत-ए-मौलवी साहिब मौसूफ़ हाज़िर-ए-ख़िदमत-ए-अक़्दस-ए हज़रत हाफ़िज़ साहिब क़िबला रहमतुल्लाह अ’लैह हो के शरफ़-ए-बैअ’त से मुशर्रफ़ हुए और आपके बा’द आपके भाई और सारा कुंबा बैअ’त से सरफ़राज़ हुआ।

आप हमेशा ख़िदमत-ए-पीर-ओ-मुर्शिद में रहते थे और ब-ज़ुबान-ए-हाल इरादा-ए-ख़ुदा-तलबी फ़रमाते थे। एक दिन जवाबन इर्शाद हुआ कि मिर्ज़ा जिसकी ज़बान चटोरी हो उससे सुलूक-ए-राह-ए-फ़क़ीरी नहीं हो सकता।उस दिन से तो’मा-ए-लज़ीज़ अपने पर हराम कर लिए।सिर्फ़ दाल बे-मिर्च और रोटी आपका तआ’म-ए-वाहिद था।और अगर कभी कहीं से कुछ आ जाता तो बा’द-ए-तक़्सीम-ए-हज़ार कुछ बाक़ी रह जाए उसमें पानी मिला कर बद-मज़ा कर देते औऱ नोश फ़रमाते।और कई महीने चीक की रोटी जो निशास्ता का फ़ुज़ला होता है तनाउल फ़रमाते। मुजाहदात-ओ-रियाज़ात में तो आप फ़रीद-ए-अ’स्र थे।

जब तक आप के पीर-ओ-मुर्शिद रौनक़-अफ़रोज़-ए-हैदराबाद थे शब-ओ-रोज़ पीर-ओ-मुर्शिद की ख़िदमत में हाज़िर रहे और पीर-ओ-मुर्शिद को भी आपसे मोहब्बत थी।जब आपके पीर-ओ-मुर्शिद ने हिन्दुस्तान की तरफ़ मुराजअ’त फ़रमाई तो आप अपने मुर्शिद के हसबल-हुक्म यहीं मुजाहदात-ओ-रियाज़ात में मसरूफ़ रहे। बा’द चंदे तन-तंहा पयादा पा, राही-ए-हिन्दुस्तान हुए।कई महीनों के बा’द जिस वक़्त कि पीर-ओ-मुर्शिद के दौलत-सरा पहुँचे उस वक़्त हज़रत वज़ू फ़रमाते थे।देखते ही यकबारगी दौड़ कर आपको गले लगा लिए और फ़रमाए कि मिर्ज़ा मर्दों का यही काम है।

हज़रत साहिब क़िब्ला का हमेशा तआ’म दो-चार चपातियाँ और एक प्याला भर शोरबा था। जब आपके खाने का वक़्त आता तो आप शोरबा नोश फ़रमाते।रोटियाँ मिर्ज़ा को दे दो फ़रमाते कि वो दकनी है और दकनियों को गोश्त मर्ग़ूब है। दो-चार दिन तक बोटियाँ खा लिए। बा’द अ’र्ज़ किए कि या हज़रत मैं यहाँ बोटियाँ खाने को हाज़िर नहीं हुआ या’नी ख़ुदा-तलबी के लिए हाज़िर हुआ हूँ।हुक्म हुआ कि मिर्ज़ा बे-मरे ख़ुदा नहीं मिलता। ये इर्शाद होते ही आप मरने की तर्कीबें-ओ-तदबीरें सोचने लगे। सोचते सोचते आख़िर को यो तदबीर क़रार पाई कि एक छोटा हुजरा,तंग-ओ-तारीक, जो आपके मुर्शिद के दौलत-सरा में था उसमें दाख़िल हो कर दरवाज़ा बंद कर लिया जाए और तीन महीने के रोज़ा की निय्यत कर ली जाए। चुनाँचे आप उसी हुजरा शरीफ़ में दाखिल होकर दरवाज़ा बंद कर लिए और आठ शबाना रोज़ अंदर रहे। आपके पीर-ओ-मुर्शिद रोज़ उस हुजरा के दरवाज़ा के मुत्तसिल तशरीफ़ रखते। सब जानते मगर अंजान रहते।ये भी नहीं पूछते कि मिर्ज़ा कहाँ है।बा’द आठ रोज़ आपको इस्तिंजा की एहतियाज हुई।ज़ो’फ़-ओ-ना-तवानी हो गई थी। बाहर आ के पेशाब किए तो दो-चार ख़ून के क़तरे टपके। साथ ही ऐसा ज़ो’फ़ ग़ालिब हो गया कि वहाँ एक चारपाई बिछी हुई थी उस पर गिर पड़े और बे-होश हो गए।और गिर पड़ने का ग़ुल-पुकार हो गया। हज़रत साहिब क़िबला को ये कैफ़िय्यत मा’लूम हुई। सुनते ही आप वहाँ तशरीफ़ फ़रमाए और प्याला आश का तलब फ़रमाए।हनूज़ आप बे-होश थे कि ये निदा अज़ ग़ैब आपकी सम्अ’-ए-हाल में पहुँची मिस्रा’

सोता क्या पड़ा सजन दीवाने उठ बहार आई

एक बार आँख खोल दिए। क्या देखते हैं कि हज़रत आश का प्याला लिए हुए उस्तादा हैं और फ़रमा रहे हैं कि मिर्ज़ा उठ ये पी ले। शाद बाश ज़िंदा बाश। आपने अ’र्ज़ की कि “हज़रत मैं तीन महीने के तय-ए-रोज़ा की निय्यत किया हूँ”। इर्शाद हुआ कि मुज़ाइक़ा नहीं पी लो।पस वो पी लिए।आश क्या पिए ने’मत-ए-उ’ज़मा पी लिए। इफ़ाक़ा के बा’द फ़रमाए कि मिर्ज़ा बस अब जाओ तुम्हारा काम हो चुका।एक मियान मैं दो शमसहीर नहीं समाते।अल-हासिल आपको  ख़िलाफ़त-ए-बातिनी से सरफ़राज़ फ़रमाए।वफ़ात आपकी माह-ए-जमादियल-ऊला की तीरहवीं शब 1310 हिज्री में हुई।मज़ार शरीफ़ हैदराबाद दकन भुईगोड़ा में है।“मिर्ज़ा सरदार बेग, वाला मंज़िलत” आपकी तारीख़-ए-विसाल है।1310 हिज्री।



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