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हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया-अपने पीर-ओ-मुर्शिद की बारगाह में

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की उ’म्र अभी 12-13 साल की थी और बदायूँ में मौलाना अ’लाउद्दीन उसूली से किताब ‘क़ुदूरी’ पढ़ रहे थे कि एक क़व्वाल जिसका नास अबू बक्र ख़र्रात था सौर-ओ-सियाहत करता हुआ,बदायूँ हाज़िर हो चुका था।और मुल्तान से भी होकर आ रहा था। उसने मौलाना अ’लाउद्दीन उसूली को अपने मुशाहदात और मुख़्तलिफ़ ख़ानक़ाहों के हालात और दरवेशों के अह्वाल-ओ-वाक़िआ’त सुनाए। पहले उसने हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी रहि· और उनकी ख़ानक़ाह का ज़िक्र किया कि वहाँ हज़ारों अ’क़ीदत- मंदों का हुजूम रहता है। नज़्र में लाखों रुपया आता है। बड़े-बड़े उमरा आपके अ’क़ीदत-मंद हैं। दौलत की इतनी इफ़रात होने के बावजूद इ’बादत-गुज़ारी का ये हाल है कि आपके घर की बांदियाँ भी चक्की पीसती जाती हैं और ज़िक्र करती हैं। इस तरह की बहुत सी बातें कहीं और ये भी कहा कि आ’म तौर पर ये मशहूर है कि हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया समाअ’ नहीं सुनते। मगर ख़ुद मैं ने आपको समाअ’ सुनाया है| आपने हुज्रा बंद कर के चराग़ गुल कर दिया था। फिर मुझे समाअ’ का हुक्म दिया। मैं ने ये अश्आ’र पढ़े। अबू बक्र क़व्वाल ने जो अश्आ’र सुनाए उसमें पहला मिस्रा’ दूसरे शे’र का जोड़ दिया और दूसरा मिस्रा’ भूल गया था| मौलाना उसूली ने उसे सही शे’र याद दिलाया वो अश्आ’र ये हैं।

बि-कुल्ल सुब्हिन-व-कुल्लि-इश्राक़िन

तब्की-क- ऐ’नी बे-दम्अ’-ए-मुश्ताक़िन

लक़द ल-सुअ’त हय्यतुल-हवा कब्दी

फ़ला तबी-ब लहा व-ला राक़िन

इल्लल हबीबल-लज़ी शग़फ़त बिहि

फ़-इं’दहु रुक़ियतिन व-तिर्याक़िन

मुझे अंधेरे में कुछ नज़र नहीं आ रहा था कि हज़रत क्या कर रह हैं। अलबत्ता कभी कभी आपका दामन मेरे मुँह पर लगता था जिस से अंदाज़ा होता था कि आप रक़्स कर रहे हैं।

मज़्कूरा बाला अश्आ’र के बारे में हज़रत अनस बिन मालिक रज़ि-अल्लाहु अ’न्हु की रिवायत है “रसूलुल्लाह सल्ललाहु अ’लैहि वसल्लम व-तवा-ज-द अस्हाबबुहु  मअ’हु हत्ता सक़-त रिदाअहु मिन-मन्कबिहि (इस पर रसूलुल्लाहि सल्ललाहु अ’लैहि वसल्लम ने वज्द किया और आप सल्ललाहु अ’लैहि वसल्लम के साथ अस्हाब ने वज्द किया। यहाँ तक कि आपकी चादर कंधों से गिर गई थी)।

हज़रत बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी रहि· की ख़ानक़ाह के हालात और कर्र-ओ-फ़र के क़िस्से सुन कर हज़रत निज़ामुद्दीन रहि· पर कोई असर नहीं हुआ। लेकिन उसके बा’द अबू बक्र क़व्वाल ने बताया कि मुल्तान के क़रीब ही एक छोटा सा गाँव अजोधन भी है।  वहाँ एक दरवेश फ़रीदुद्दीन गंज शकर रहते हैं जिन्हें आ’म तौर पर बाबा फ़रीद कहा जाता है। उनका कच्ची मिट्टी की दीवारों को मकान मस्जिद के पास ही वाक़े’ है| वहाँ उनके मुरीद और अ’क़ीदत-मंद भी रहते हैं। क़रीब ही ज़नाना हवेली भी है। बाबा फ़रीद की ख़ानक़ाह में हमा वक़्त ग़रीब इंसानों की भीड़ इक्ट्ठी रहती है| इ’बादत-ओ-रियाज़त के सिवा न कोई मश्ग़ला है न तवक्कुल के सिवा कोई दुनयवी अस्बाब हैं। कभी कई कई वक़्त तक मुसलसल फ़ाक़े हो जाते हैं। मगर उनकी इस्तिक़ामत में जुंबिश नहीं होती।ज़्यादा तंगी होती है तो ख़ानक़ाह से एक शख़्स ज़ंबील ले कर निकलता है वो सारी बस्ती का चक्कर लगाता है| कुछ लोग उसमें खाने पीने का सामान डाल देते हैं| वही खाना ख़ानक़ाह में रहने वालों के काम आ जाता है। कभी कोई दरवेश जंगल की तरफ़ निकल जाता है और करेल के फूल चुन कर ले आता है जिन्हें पानी में उबाल कर सब खा लेते हैं।

ये बातें अबू बक्र क़्ववाल की ज़बानी सुन कर हज़रत निज़ामुद्दीन रहि· के दिल पर असर हुआ। और आपने महसूस किया कि शैख़ फ़रीद की मुहब्बत आपके दिल में जा-गुज़ीं हो गई है।

न तंहा इ’श्क़ अज़ दीदार ख़ेज़द

ब-साकिन दौलत अज़ गुफ़्तार ख़ेज़द

आपने शायद उसी वक़्त से ये सोच लिया था कि अगर कभी बैअ’त करेंगे तो हज़रत बाबा फ़रीद से करेंगे। आपने हर नमाज़ के बा’द ब-तौर-ए-ख़ुद वज़ीफ़ा पढ़ना शुरुअ’ कर दिया। चुनाँचे दस बार मौलाना फ़रीदुद्दीन और दस बार शैख़ फ़रीदुद्दीन ब-तौर-ए-विर्द पढ़ते थे। रफ़्ता रफ़्ता आपके साथियों को भी इस ग़ाइबाना अ’क़ीदत-ओ-इरादत का हाल मा’लूम हो गया। यहाँ तक कि अगर उन्हें किसी बात पर क़सम खिलानी होती तो यूँ कहते थे कि शैख़ फ़रीद की क़सम खाओ”

अभी आपकी उ’म्र 20 साल भी नहीं हुई थी कि बदायूँ से निकल कर देहली आए|यहाँ रह कर तलाश-ए-मआ’श और मज़ीद तह्सील-ए-इ’ल्म का इरादा था। पहली बार आप देहली के लिए तन्हा रवाना हुए थे। उस सफ़र में एक बूढ़ा शख़्स आपके साथ था जिसका नाम इ’वज़ था। रास्ते में अगर कहीं दरिंदे या पाकिट-मार का ख़तरा होता था तो वो ब-आवाज़-ए-बुलंद कहता था “या पीर हाज़िर बाश मा दर पनाह-ए-तू मी-रवेम” (ऐ पीर हाज़िर रहना हम आपकी पनाह में सफ़र कर रहे हैं) हज़रत ने इ’वज़ से पूछा कि तुम कौन से पीर को पुकारते हो? उसने हज़रत बाबा फ़रीद रहि· का नाम लिया तो उस से हज़रत का ज़ौक़-ओ-शौक़ और सिद्क़-ओ-इरादत जो पहले ही ज़्यादा था और भी पुख़्ता हो गया।

हालात का जाएज़ा लेने के बा’द देहली का दूसरा सफ़र हज़रत ने अपनी वालिदा माजिदा और बेवा बहन के साथ किया। और यहाँ उन्हें एक सराए में ठहराया जिसके सामने कीसी कमान-गर के दरवाज़े में आप ख़ुद रहने लगे। उसी मोहल्ले में अमीर ख़ुसरौ के नाना इ’मादुल-मुल्क का मकान भी था। और क़रीब ही हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन गंज शकर रहि· के छोटे भाई हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल रहि· भी रहते थे।शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल पुलमंदा के पास एक मस्जिद में इमामत करते और बच्चों को पढ़ाते थे। उनका घर छोटा सा और ग़ालिबन दो मंज़ीला था जिसकी दूसरी मंज़िल पर छप्पर पड़ा हुआ था|इसी हाल में वो सत्तर साल तक देहली में रहे और 19 बार अजोधन का सफ़र किया। 9 रमज़ान 660 हिज्री को देहली में इंतिक़ाल हुआ |उनका मज़ार-ए-मुबारक आज देहली में अध चिनी के मक़ाम पर विजय मण्डल के क़रीब मौजूद है। ये सफ़दरजंग  से मेहरौली जाने वाली सड़क पर दाएं हाथ को वाक़े’ है। उस वक़्त ये जगह मण्ड़ा दरवाज़ा कहलाती थी।

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया रहि· ने अपनी मज्लिसों में अक्सर शैख़ मुतवक्किल का हाल बयान किया कि मैं ने उस शहर में उन जैसा याद-ए-ख़ुदा में मुस्तग़रक़ कोई दूसरा शख़्स नहीं देखा। वो नहीं   जानते थे कि गोश्त कैसे पकता है और आटा किस तरह तैयार होता है। न ये ख़बर थी कि आज कौन सा दिन और कौन सा महीना है या ये सिक्का कौन सा सिक्का है। फ़क़्र और तवक्कुल ऐसा था कि ई’द की नमाज़ के बा’द कुछ क़लंदर आपके घर आ गए| उन्हें बिठा कर ऊपर कोठे पर गए| घर में खाने पीने की कोई चीज़ मौजूद नहीं थी। मुसल्ला उठा कर देखा तो वो भी फटा हुआ था| बिकने के लाएक़ नहीं था। अपनी अह्लिया की ओढ़नी देखी कि शायद ये एक आध दिरहम में बिक जाए मगर वो भी इस लाएक़ नहीं थी। आख़िर उन क़लंदरों को एक एक प्याल पानी पिला कर रुख़्सत कर दिया।

हज़रत शैख़ मुतवक्किल हर साल अपने भाई हज़रत बाबा फ़रीद रहि· से मिलने के लिए अजोधन जाया करते थे |एक बार अपनी बूढ़ी वालिदा को साथ ले कर जा रहे थे। रासेत में माँ ने पानी  माँगा| ये उन्हें एक दरख़्त के नीचे बिठा कर पानी ले कर आए तो वालिदा को उस जगह नहीं पाया। परेशानी के आ’लम में इधर उधर घंटों तलाश करते रहे और जंगल में हर तरफ़ अपनी बूढ़ी माँ को आवाज़ें दीं मगर सारी सदाएं जंगल के मुहीब सन्नाटे में गुम हो गईं।आपको यक़ीन हो गया कि किसी दरिंदे ने आपकी वालिदा को हलाक कर दिया है|वहाँ से बहुत ही रंज और मायूसी के आ’लम में अजोधन पहुँचे और भाई को सारा माजरा सुनाया |उन्हों ने ईसाल-ए-सवाब के लिए फ़ातिहा पढ़ी और सब्र कर लिया।

दोबारा जब हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल अजोधन जाते हुए उसी जंगल से गुज़रे तो उन्हों ने उसी दरख़्त के नीचे जहाँ वालिदा को बिठाया था, वहीं कुछ इंसानी हड्डियाँ पड़ी हुई देखीं| आपको ख़याल हुआ कि शायद वालिदा मरहूमा की हड्डियाँ हों। उन्हें चुन कर एक थैले में रख लिया। अब जो हज़रत बाबा फ़रीद की ख़िदमत में आए तो अ’र्ज़ किया कि इस तरह कुछ हड्डियाँ उसी दरख़्त के नीचे मिली थीं। मैंने सोचा कि शायद ये वालिदा मरहूमा की हों,उन्हें ले कर रख लिया कि अजोधन में दफ़्न कर दूंगा। बाबा साहिब ने फ़रमाया कि वो थैला कहाँ है लाओ।उन्हों ने वो थैला निकाल कर भाई के सामने रखा |उस में  हाथ ड़ाल कर भी ख़ूब टटोला, कुछ नहीं मिला| ये मुअ’म्मा ब-दस्तूर बाक़ी रहा और हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन फ़रमाते थे कि ये वाक़िआ’ अ’जाएब-ए-रोज़गार में से है।

देहली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के लिए शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल की ज़ात-ए-गिरामी बड़ी ने’मत साबित हुई। उनकी हैसियत आपके लिए शफ़ीक़ सर-परस्त की थी |इसके अ’लावा उनके बे-मिस्ल किर्दार, ख़ुदा दोस्ती, तवक्कुल, इस्तिग़ना, शान-ए-फ़क़्र-ओ-दरवेशी और मुहब्बत-ए-इ’ल्म ने हज़रत निज़ामुद्दीन के ज़ेहन की तर्बियत और मिज़ाज की तश्कील में बड़ा हिस्सा लिया।

जब किसी बुज़ुर्ग से दुआ’ करानी होती तो फ़ातिहा के लिए इल्तिमास किया जाता था |वो हाथ उठाकर सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़ता और मक़्सद-ए-दिली के लिए दुआ करता था। क़ियाम-ए-देहली के इब्तिदाई ज़माने में जब हज़रत निज़ामुद्दीन रहि· किसी से बैअ’त नहीं हुए थे और सर पर बाल रखते थे|उन्हों ने हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल से फ़ातिहा का इल्तिमास किया। शैख़ ने सुनी-अन-सुनी कर दी। हज़रत निज़ामुद्दीन रहि· ने तीन बार गुज़ारिश की कि मेरे लिए इस नियत से फ़ातिहा पढ़ दीजिए कि मैं कहीं क़ाज़ी मुक़र्र हो जाऊँ। शैख़ मुतवक्किल ने फ़ातिहा के लिए हाथ नहीं उठाए और मुस्कुरा कर फ़रमायाः-

तू क़ाज़ी मशो चीज़े दीगर शो

हज़रत निज़ामुद्दीन रहि· के दिल में बाबा फ़रीद रहि· की मुहब्बत और उनकी ज़ात-ए-गिरामी से बे-पनाह अ’क़ीदत तो बरसों से परवरिश पा रही थी, शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल की सोहबत ने उस तअ’ल्लुक़ को और भी रासिख़ कर दिया था। लेकिन अभी तक अजोधन जाने की सबील नहीं निकली थी।सब से बड़ा सबब ग़ालिबन ये था कि वालिदा ज़ई’फ़ थीं।एक बेवा बहन और उनके दो बच्चे थे जिनकी देख रेख करने वाला हज़रत के सिवा कोई न था। लेकिन एक सुब्ह को फ़ज्र के वक़्त कीसी ने मस्जिद के मीनारे से निहायत ख़ुश-अलहानी के साथ ये आयत पढ़ी।

अलम यानि-लिल्लज़ी-न-आमनू अन-तख़्श-अ’-क़ुलूबहुम-लि-ज़िक्रिल्लाहि।

ये अल्फ़ाज़ कानों में पड़े तो जादू का सा असर दिखा गए।वज्द-ओ-शौक़ की क़ैफ़ियत सब्र-ओ-तहम्मुल की हदों से निकल गई और अजोधन की हाज़िरी का इश्तियाक़ जो बरसों से दिल में करवट ले रहा था क़ुव्वत से फ़े’ल में आने लगा। आपने जोश-ए-अ’क़ीदत में सफ़र-ए-अजोधन के लिए उसी तरह एहराम बाँधा जैसे हज के लिए बाँधा जाता है। और सफ़र पर रवाना होने से पहले मस्जिद में नफ़िल पढ़ने के लिए आए।उस वक़्त दिल में ये ख़याल पैदा हुआ कि मैं ने जो एहराम बाँध लिया है ये शरीअ’त की रू से जाएज़ भी है या नहीं।उसी मस्जिद के एक कोने में फटे पुराने कम्बल में लिपटे हुए एक मज्ज़ूब पड़े थे। जो उन्हें देख भी नहीं रहे थे। वो अचानक ज़ोर से बड़बड़ाए। अल-इ’ल्मु हिजाबुल्लाहि-अल-अकबर (इ’ल्म अल्लाह का बहुत बड़ा हिजाब है) आपने ये आवाज़ सुनी तो सोचा कि ख़ैर इ’ल्म पर्दा तो हो सकता है मगर हिजाब-ए-अकबर क्यूँ होने लगा? वो मज्ज़ूब उस क़ल्बी ख़तरे से भी आगाह हो गए और फिर बड़बड़ाए।

“बड़ा पर्दा है या छोटा है ये तो वहाँ जाकर मा’लूम हो जाएगा”।

चुनाँचे यही हुआ |जब आप अजोधन पहुँचे और ये बुध का दिन था। अगर राहतुल-क़ुलूब को सही माना जाए तो रजब 655 हिज्री की कोई तारीख़ थी। हज़रत बाबा फ़रीद रहि· ने एक दिन ख़ुद ही पूछा। “मौलाना निज़ामुद्दीन हमारे जमाल का फ़र्ज़न्द मिला था।”? अ’र्ज़ किया जी हाँ जिस दिन मैं अजोधन के लिए रवाना होने वाला था वो मस्जिद के कोने में पड़े थे। बाबा साहिब ने पूछा कि वो क्या कहता था? आपने उनकी गुफ़्तुगू दोहराई तो बाबा साहिब रहि· ने फ़रमाया कि वो ठीक कहता था। हिजाब दो तरह के होते हैं| एक ज़ुल्माती हिजाब होता है दूसरा अनवरी। इ’ल्म नूरानी हिजाब है इसलिए हिजाब-ए-अकबर है। इ’ल्म चूँकि हक़ के सिवा है और हर मा-सिवल्लाह हिजाब है।

आप पूरी बे-सर-ओ-सामानी के आ’लम में या हाफ़िज़ या नासिर या मुई’न का वज़ीफ़ा पढ़ते हुए जब अजोधन पहुँचे तो अ’क़ीदत और मुहब्बत के नशे में सरशार थे| उस सर-ज़मीन के एक एक ज़र्रे को निगाहें बोसा दे रही थीं। दिल क़दम-क़दम पर सज्दे कर रहा था। रास्ते की धूल में अटे हुए कपड़े की मशक़्क़त से चेहरा कुम्हला  गया था। मगर दिल खिला हुआ था और आँखें नूर-ए-मसर्रत से चमक रही थीं। जब शैख़ का सामना हुआ तो दिल भर आया और इतनी सी बात भी न कह कसे कि आपकी क़दम-बोसी का इश्तियाक़ मुद्दत से ग़ालिब था। बाबा साहिब ने उन्हें देखते ही ख़ुश-आमदीद कहा और ये शे’र पढ़ा।

ऐ आतिश-ए-फ़िराक़ दिल-हा कबाब कर्दः

सैलाब-ए-इश्तियाक़त जाँ-हा ख़राब कर्दः

फिर ख़ैर-ओ-आ’फ़ियत और रास्ते की कैफ़ियत दर्याफ़्त करते रहे। आपकी ज़बान से सिर्फ़ इतना निकला कि “इश्तियाक़-ए-पा-बोसी  ग़ालिब शुदः बूद”|

उसके आगे ज़बान ने यारा न किया। शैख़ ने फ़रमायाः

लि-कुल्लि दाख़िलिन-दहशतुन फ़-आनिसूहु बित्तहिय्यति। ये हज़रत अ’ब्दुल्लाह बिन अ’ब्बास का मक़ूला है कि दुनिया में आने वाला  कुछ डरा होता है गर्म-जोशी से सलाम दुआ’ कर के उसे मानूस बनाना चाहिए।

हज़रत निज़ामुद्दीन फ़रमाया करते थे कि बाबा साहिब रहि· के हुस्न-ए-इ’बारत, लताफ़त-ए-तक़रीर और लज़्ज़त-ए-बयान का ये आ’लम था कि मुख़ातब के दिल की बात कहते थे। शीरीनी-ए-कलाम ऐसी थी कि अल्फ़ाज़ कानों में रस घोतले थे और जी चाहता था कि ग़ायत ज़ौक़-ओ-कैफ़ियत में उसी वक़्त दम निकल जाए तो कितना अच्छा हो। ग़ालिबन इसीलिए आपको गंज शकर भी कहा गया है।

आपने ख़िदमत-ए-शैख़ में पहुँचने से पहले ही दिल में तय कर लिया था कि शैख़ की ज़बान-ए-मुबारक से जो कुछ सुनुँगा उसे लिख लिया करूँगा।चुनाँचे जमाअ’त-ख़ाने में वापस आकर जो कुछ शैख़ से सुना था वो कीसी काग़ज़ पर लिख कर रख लिया। और इसी तरह जो कुछ सुनते रहे मुतफ़र्रिक़ पर्चों पर लिखते रहे और ये बात शैख़ को बता भी दी थी कि मैं आपके मल्फ़ूज़ात लिख रहा हूँ। चंद रोज़ के बा’द आपको सफ़ेद काग़ज़ की एक बयाज़ जिल्द बंधी हुई ख़ुद ही हदिया में दे दी। आपने उसे एक ग़ैबी इशारा समझा और वो सब फ़वाइद जो मुख़्तलिफ़ पर्चों पर लिखते रहे थे उसमें दर्ज कर लिए। उस बयाज़ पर सब से पहले आपने अपने क़लम से लिखा –

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्हीम सुब्हानल्लाहि-वल-हम्दुलिल्लाहि वला-इलाहा इल्ललाहु वल्लाहु अकबर व-लाहौला-व-ला-क़ूव्व-त-इल्ला-बिल्लाहिल-अ’लीइल अ’ज़ीम।

फिर मल्फ़ूज़ात-ए-शैख़ दर्ज करना शुरुअ’ कर दिया। शैख़ जब महफ़िल में कोई हिकायत या कोई नुक्ता बयान करने लगते तो पूछ लेते थे कि मौलाना निज़ामुद्दीन तो मौजूद हैं। अगर हज़रत उस वक़्त मौजूद न होते तो जब वापस आते शैख़ उन फ़वाएद का इआ’दा करते ताकि हज़रत निज़ामुद्दीन उन्हें अपनी बयाज़ में लिख लें। ये मज्मूआ’-ए-मल्फ़ूज़ात 8 शव्वाल 708 हिज्री तक हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के पास मौजूद था।

जब हज़रत निज़ामुद्दी



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