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एक इंक़लाबी की डायरी

एक आर्टिस्ट की डायरी पढ़ना हमेशा दिलचस्प होता है। पाश की डायरी में पाश की ज़ाती ज़िंदगी के मुतअल्लिक कम और उनकी तख़्लीक़ी और सियासी फ़िक्र के बारे में ज़ियादा मालूम होता है।

पाश ने मुसलसल डायरी नहीं लिखी। उनकी डायरी कई बरसों पर फैली हुई है। बेशतर साल की शुरूआत में डायरी लिखना शुरूअ किया और फिर बंद कर दिया। पाश की तमाम डायरियाँ संपादित हो कर पंजाबी में प्रकाशित हो चुकी हैं और इनका संपादन अमोलक सिंह ने किया है।

यहाँ पाश की डायरी के इक़्तिबासात का तर्जुमा पेश किया जा रहा है:

1971

28 दिसंबर

आज मैं तड़प उठा हूँ?

नौ बजें या साढ़े नौ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुझे मेरे सुलगते रंगों की झलक मिली। तख़्लीक़ बहुत अज़ीम होती है। ये मुझ पर मेहरबान कैसे हो सकती है?

29 दिसंबर

उनकी आदत है – सागर से मोती चुन लाना। उनका रोज़ का काम है, तारों का दिल पढ़ना…।

नींद उस की है, दिमाग़ उस का है, रातें उस की हैं

आज का दिन मैंने उधार लिया है। आज के दिन का मैं क़र्ज़दार रहूँगा।

1972

1 जनवरी

कभी वक़्त था, मैं अपने हर साल का रिव्यू करता था। आज भी एक साल ख़त्म हो गया है, एक शुरूअ हुआ है, लेकिन मैं अपने पिछले साल के बारे में सोच नहीं सकता। रात के साढ़े तीन बजे हैं। 1972 की पहली तारीख़ हो चुकी है। ये साल मुझे और मेरी धरती वालों को मुबारक हो।

2 जनवरी

तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं।

1974

1 जनवरी

पिछले बरस को अलविदाअ कहते मुझे दुख हो रहा है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ था। अब ये साल मुझसे दूर ही होता जाएगा।

ऐसे ही रंगारंग और लबालब भरे हुए साल मेरी जिंदगी में आएँगे लेकिन इस बरस को मैं हमेशा एक अनोखे सत्कार के साथ याद करूँगा।

5 जनवरी

पिछले दिनों मुझ में ख़ुद की तन्क़ीद करने का रुजहान सख़्त ग़ैर-हाज़िर रहा है। शायद इस की वज्ह मेरा निहायत लालची हो जाना है। मुझे इसी वज्ह से बहुत सा नुक़्सान उठाना पड़ा है। अब मैं इस बारे में गहराई से सोचूँगा। अड्डे पे फ़त्हजीत भी मिला।

6 जनवरी

मेरी बड़ी चिंता ये है कि मैं किसी न किसी तरह महीना भर सुखी रह लूँ। अपने मन की आदत बदलने का सवाल है। बहुत आसान और छोटा सा सवाल।

7 जनवरी

सर्दी की रुत को इस तरह गीतों से विदाई देने का रिवाज शायद दूसरे मुल्कों में न हो। ये कितनी बड़ी बात है। काश इसी तरह हर रुत के स्वागत और विदाई के गीत हों।

9 जनवरी

आज पंजाब में बहुत से सरकारी और ग़ैर-सरकारी मुलाज़िमों की हड़ताल थी। निचले तब्क़े में इस क़दर इत्तिहाद मैंने पहली दफ़ा देखा।

सारा दिन शहर में घूमे। चाय पी और अदब की ज़िम्मेदारियों और हैअत पर हल्के-फुल्के मबाहिस हुए। रात में कुमार विकल से से उसकी बड़ी बलवान कविता सुनी।

सोने से पहले मैं इन पढ़े लिखे लोगों से बेहद बोर गया हूँ। मैं इनके बीच बहुत देर नहीं रह सकता। हम में ज़ियादा कुछ मुश्तरक नहीं।

19 जनवरी

फ़ैसला कोई फ़ैसला नहीं होता। ज़िंदगी ऐसा घोड़ा नहीं जिसे क़ाबू में किया जा सके। ये ख़ुद कूदता-फाँदता रहता है और आदमी को पीछे घसीटता रहता है।

मैंने ग़लती की जो आज के सफ़्हे पर फ़ैसला का लफ़्ज़ लिख लिया।

23 मार्च

माड़ी का मेला, शहीदी दिवस – भगत सिंह

आज मेरा माड़ी के मेले में न जाना मेरी अमीरी का दिवाला निकल जाने के बराबर है।

भला सफ़ेद कपड़े पहन कर भी मेले में जाया जाता है। सो मैं नहीं गया। अब कौन पूछेगा?

आने वाले बरसों में कोई नहीं पूछेगा कि `1974 का माड़ी का मेला देखने मैं क्यों नहीं गया।

9 अगस्त

तख़्लीक़ सब से अज़ीम होती है। और कुछ इतना ताक़तवर नहीं। सवाल बस तख़्लीक़ को क़ुबूल करने का है। जो चीज़ किसी को क़ुबूल नहीं होती, वही उस के लिए दुख बन जाती है। मेरे रास्ते में बहुत से टूटे-फूटे लोग आए और उनसे बेज़ार आगे निकल जाना ही मेरा सबसे बड़ा संघर्ष रहा है। यही मेरी तख़्लीक़ है।

23 अगस्त

लफ़्ज़ एक एक कर ज़िंदगी से हिजरत करते जा रहे हैं और अपनी जगह एक गहरी ख़ामोशी छोड़ते जा रहे हैं।

25 सितंबर

ऐ मोहब्बत के ख़ैर-ख़्वाह लोगो! मोहब्बत अब किसी मौसम का नाम नहीं रहा।

1976

12 जनवरी

आज बरसात का दिन था। ऐसे दिनों का मैं बहुत भूका हूँ। ख़्वाह मेरी ज़िंदगी ही बारिश का इंतिज़ार है।

20 जनवरी

कुल्ली तौर पर आज एक बुरा दिन था। आदमी को आदमी बन कर रहना चाहिए।

मैं साला जानवर हूँ। किसी भी वक़्त कितना भी घटिया हो सकता हूँ। और ये भी बेहद नपुंसक चाल है कि बार-बार घटियापन का इक़बाल करते रहना और ला-शुऊरी तौर पर इस इक़बाल को ही अपनी अज़्मत समझने रहना।

1982

3 जनवरी

Elemental darkness of passion.

कला अपने जोखम दूसरों पर डालने में नहीं, दूसरों के जोखम उठाने में पैदा होती है।

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