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उल्टी वा की धार

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

ग़ालिब का ये शे’र बेहतरीन शायरी की एक मिसाल है, मशहूर ए ज़माना शे’र है!

इसी शे’र को फिर से पढ़िए और सोचिए कि इस में ऐसा क्या ख़ास है जो इस शे’र को इतना अच्छा बनाता है?

अब ये शे’र पढ़िए,

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

दिए गए तमाम शे’र ले कर बैठिए और सोचिए कि इन सब में ऐसी क्या बात है? क्या इन में कोई समानता है? है तो क्या है? नहीं है तो ऐसी क्या बात है जो इन तमाम अशआर को ज़माने भर में मशहूर करती है? हमें सुन कर अच्छा क्यूँ लगता है?

मुमकिन है कि आप कहें कि उर्दू सुनने में अच्छी ही लगती है, यूँ तो आप की बात सही है मगर फिर भी ग़लत है, कैसे? देखिए,

वो शख़्स इतना ख़ुश मिज़ाज है कि जिस से मुख़ातिब होता है उस का दिल गुलशन कर देता है।

उर्दू तो ये भी है, क्या ये उतना असर पैदा कर पा रही है जितना पहले पढ़े अशआर ने किया?

हो सकता है आप कहें कि बह्र, रदीफ़ और क़ाफ़िया पैमाई से ये ख़ूबसूरती आती है तो आप लाखों ग़ज़लें पढ़ कर देखें, क्या हर शे’र पढ़ कर वही कैफ़ियत होती है?

ख़ूब पढ़ेंगे तो धीरे धीरे महसूस होगा कि ऐसा नहीं है, न हर शे’र में वो ख़ूबी है न आप के दिल पर हर शे’र का असर ऐसा होता है कि बेसाख़्ता आह निकल जाए।

यूँ तो बहुत सी बातें हैं जो किसी शे’र को एक बेहतरीन शे’र बनाती हैं और उन पर दुनिया भर की बातें हुईं हैं मगर एक चीज़ जिस पर बात बहुत कम होती है वो है, “उल्टा इस्तेमाल” या मुख़ालिफ़ मअनी को साथ ला कर नए मअनी पैदा करना।

इस बात को हम अगर फ़लसफ़े से समझें तो जदलिय्यात की बात आती है जिसे अंग्रेज़ी में Dialectics कहते हैं।

Dialectics को हिंदी में द्वंद्वात्मकता कहते हैं।

जब दो मुख़्तलिफ़ ही नहीं मुख़ालिफ़ बातें मिल कर एक नयी बात पैदा करें तो उन्हें एक दूसरे का Dialectical opposite कहा जाता है।

जैसे ग़ालिब के जिस शे’र से हम ने बात शुरू की थी, मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का, तो यहाँ जीना और मरना दो मुख़्तलिफ़ और मुख़ालिफ़ दोनों बातें हैं, अगर कोई ज़िन्दा है तो मरा हुआ नहीं है, वहीं अगर कोई मर चुका है तो ज़िन्दा नहीं है।

ग़ालिब कहते हैं कि जिस पर दम निकलता है उसी को देख कर जीते हैं, यहाँ “दम निकले” मुहावरे का इस्तेमाल बहुत ज़ियादा इश्क़ करने के म’आनी में किया गया है कि जब बहुत इश्क़ में कोई शख़्स हो तो वो कैफ़ियत मरने जैसी ही है, यहाँ मुहावरा बस मुहावरे तक महदूद नहीं है बल्कि इस्तिआरा हो गया है।

मरने के ज़रिये जीना लाया गया है, एक दूसरे के बिल्कुल उल्टी बातों में एक ऐसा तारतम्य या सिंथेसिस एक नया मतलब लाता है या नई बात भी कहता है और वो नया मतलब है मोहब्बत!

मरने के ज़रिये जीते रहना यूँ तो मुमकिन नहीं मगर मोहब्बत में ऐसा हो सकता है यअनी मोहब्बत वो नयी शय है जो ज़िन्दगी और मौत के एक साथ होने से बन रही है।

फ़लसफ़ी हीगल ने जो थियोरी दी थी उसे ज़रा आसान तरीक़े से समझने के लिए हम एक शय लेते हैं जिसे थीसिस कहते हैं, जैसे ज़िन्दगी, अब ज़िन्दगी को नकारने वाली शय है मौत, तो मौत ज़िन्दगी का एन्टी थीसिस हुई।

जब तक ज़िन्दगी है, मौत नहीं है, जब मौत है तब ज़िन्दगी नहीं है। इस तरह ये एक दूसरे के थीसिस और एंटी थीसिस हुए, मगर हीगल का फ़लसफ़ा कहता है कि इस तरह जब दो मुख़ालिफ़ शय होती हैं तो उन का एक सिंथेसिस निकल कर आता है।

यही सिंथेसिस ग़ालिब के शे’र में मोहब्बत है जिस में उस को देख कर जिया जा रहा है जिस पर दम निकलता है, यअनी मौत और ज़िन्दगी एक साथ मगर एक अलग सूरत और जज़्बे में हैं।

मोहब्बत का मौत और ज़िन्दगी का मिलन होना परवाने के शम’अ में जल कर मर जाने में भी देखा जा सकता है कि मोहब्बत में शम’अ में जल कर मर जाना ही परवाने की ज़िंदगी मुकम्मल करता है।

ग़ालिब के दूसरे शे’र को भी देखें तो दरिया और क़तरा ज़ाहिरी तौर पर एक दूसरे की ज़िद (विपरीत) नहीं हैं मगर इन की ज़ात की बुनियाद देखी जाए तो हैं , क़तरे का वजूद अलग रहने में है, तभी तक वो क़तरा है, जिस पल वो किसी में मिल गया उसे ख़त्म हो जाना है, इसी तरह दरिया का वजूद है कि उसमें बहुत सारा बहता पानी हो।

ग़ालिब के शे’र में इशरत-ए-क़तरा ही ये है कि दरिया में फ़ना हो जाए, यहाँ तक यही लगता है कि क़तरा ख़त्म हो गया, फ़ना हो गया मगर हम फिर दूसरे मिसरे पर आते हैं, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना, अब दर्द और दवा मुख़ालिफ़ हैं, थीसिस-एंटी थीसिस, मगर दर्द ही जब बढ़ता चला जाए तो दवा बन जाए ये सिंथेसिस है।

इसी से पहले मिसरा पूरी तरह हम पर खुलता है, ग़ालिब कह तो रहे हैं कि फ़ना हो जाना क़तरे की ख़्वाहिश है मगर सानी मिसरे के इशारे से अंदाज़ा होता है कि क़तरा दरिया में मिलकर ख़त्म नहीं हुआ बल्कि दरिया हो गया और इस तरह फ़ना हो कर अपने वुजूद की इंतेहा पा गया, क़तरे का वजूद थीसिस, दरिया उसका एन्टी थीसिस, इन का सिंथेसिस क़तरे के वुजूद का दरिया हो जाना।

ज़रूरी नहीं कि हर बार शायरी में मुतज़ाद अशया (परस्पर विरोधाभासी चीज़ें) सिंथेसिस तक पहुँचे ही, कई बार मुआमला सिर्फ़ तज़ाद तक रहता है, कई बार इस्तिआरों में या इशारतन बातें होती हैं, कई बार लफ़्ज़ों से बस मंज़र ही ऐसा खींच दिया जाता है कि बेसाख़्ता आह निकल आती है।

शायरी में ज़ाहिरी टूल्स जैसे लफ़्ज़ और आहंग तो होते ही हैं, जिन्हें पढ़ कर हम पहला असर लेते हैं, जो सुनने पर याद हो जाते हैं मगर ज़ाहिरी के अलावा और किस किस तरह के ख़ज़ाने शायरी में छुपे हैं ये समझने के लिए हमें शायरी के अलावा भी और बहुत कुछ पढ़ना चाहिए।

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