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उर्दू सहाफ़त की कहानी

उर्दू सहाफ़त की कहानी

आज़ादी की लड़ाई में एक ऐसा अख़बार भी पेश-पेश था जिसका एडिटर अपनी तक़र्रुरी से पहले ये शर्त मंज़ूर करता था कि उसकी तनख़्वाह ‘जौ’ की एक रोटी और पानी का एक प्याला होगा, जो उसे जेल में अदा की जाएगी। हफ़्तावार ‘स्वराज्य’ के नाम से ये अख़बार बाबू शांति नरायन भटनागर ने 1907 में इलाहाबाद से जारी किया था। एक के बाद एक इस अख़बार के 9 एडिटरों ने बग़ावत के जुर्म में गिरफ़्तारियों और काले पानी की सज़ाएँ झेलीं और किसी की पेशानी पर बल नहीं आया। उस अख़बार का हर एडिटर रज़ा-काराना तौर पर क़ैद-ओ-बंद की मुश्किलात के लिए तैयार रहता था। उस अख़बार के आठवें एडिटर लद्धा राम को इलाहाबाद के सेशन जज रुस्तम जी ने दस साल क़ैद-ए-काला पानी की सज़ा सुनाई थी।

ये उन क़ुर्बानियों की एक मा’मूली सी झलक है, जो उर्दू सहाफ़ियों ने इस मुल्क की आज़ादी के लिए पेश कीं। उर्दू सहाफ़त को ये फ़ख़्र भी हासिल है कि इस मुल्क की आज़ादी के लिए सबसे पहले जिस सहाफ़ी ने वतन की आबरू पर अपनी जान निछावर की, वो उर्दू ज़बान का ही सहाफ़ी था। ‘देहली उर्दू अख़बार’ के एडिटर मौलवी मुहम्मद बाक़र को 1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी के दौरान बाग़ियों का साथ देने की पादाश में अंग्रेज़ों ने 16 सितंबर 1857 को देहली में तोप के दहाने पर रख कर उड़ा दिया था। यही हाल ‘पयाम-ए-आज़ादी’ के एडिटर मिर्ज़ा बेदार बख़्त का भी हुआ और उनके जिस्म पर सुअर की चर्बी मलकर फाँसी पर चढ़ा दिया गया।

आज जब हम अपने वतन की आज़ादी की 75वीं सालगिरह मना रहे हैं तो हम में से बेशतर लोग उन क़ुर्बानियों से नावाक़िफ़ हैं जो हमारे पुरखों ने इस मुल्क को आज़ाद कराने के लिए दीं और हमेशा के लिए अमर हो गए। यूँ तो उर्दू सहाफ़त के आग़ाज़ का सेहरा हफ़्तावार ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ के सर बाँधा जाता है, जो पंडित हरिहर दत्त ने 1822 में कलकत्ता से शाए’ किया था, लेकिन उस से क़ब्ल उर्दू हल्क़ों में ये बहस भी छिड़ चुकी है कि उर्दू का पहला अख़बार शे’र-ए-मैसूर टीपू सुल्तान ने 1794 में जारी किया था।

इसके बाद दूसरा ख़्याल ये भी है कि उर्दू का पहला अख़बार 1810 में कलकत्ता से शाए’ हुआ था और उसको शुरू करने का सेहरा इकराम अली के सर है। कई बरस की तहक़ीक़-ओ-जुस्तजू के बाद अब ये बात तस्लीम कर ली गई है कि उर्दू का पहला अख़बार ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ था जिसकी इशाअत 27 मार्च 1822 को कलकत्ते से शुरू हुई थी। इस ए‘तबार से अब हम उर्दू सहाफ़त के दो सौ साल पूरे होने की ख़ुशी में एक जश्न मनाने के मूड में हैं, जिसके ख़द-ओ-ख़ाल जल्द ही आपके सामने होंगे।

‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ के बाद आठ साल तक किसी उर्दू अख़बार के इज्रा की नौबत नहीं आ सकी। हालाँकि उस वक़्त हिंदुस्तान के मुख़्तलिफ़ शहरों में अंग्रेज़ी, बंगाली और फ़ारसी ज़बानों के अख़बारात की बड़ी मज़बूत रिवायत क़ायम हो चुकी थी, ताहम शांति रंजन भट्टाचार्य ने मथुरा मोहन मित्रा की इदारत में 1823 से 1827 तक मुसलसल पाँच साल तक निकलने वाले ‘शम्स-उल-अख़बार’ के बारे में दिलचस्प तफ़सीलात क़लम-बंद की हैं। वो लिखते हैं कि,

मथुरा मोहन मित्रा ने पाँच साल तक उर्दू ज़बान में ‘शम्स-उल-अख़बार’ (इज्रा 1823) निकालने के बाद 827 में उसे बन्द करते हुए एक तवील बयान दिया था जिसका अंग्रेज़ी तर्जुमा 21 मई 1827 के गवर्नमेंट गज़ट में शाए’ हुआ है। उन्होंने उस बयान में कहा कि अख़बार निकाल कर उन्हें कोई फ़ायदा नहीं हुआ। दिन रात की अन-थक मेहनत के बदले सिवाए मुसीबतों के और कुछ हाथ नहीं आया। हिंदुस्तान में अख़बार निकालना सिर्फ़ रूपया बर्बाद करना ही नहीं है बल्कि आफ़त भी मोल लेना है। क्योंकि यहाँ के लोग अभी तक अख़बार से दिलचस्पी नहीं लेते। अपने बयान के आख़िर में उन्होंने एक फ़ारसी शे’र दर्ज किया था जिसका मतलब ये है कि ‘चाँदनी रात में शम्’ रात भर जलती रही, लेकिन किसी ने उसकी तरफ़ निगाह-ए-ग़लत भी नहीं डाली।

1837 में मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद के वालिद मौलवी मुहम्मद बाक़र ने ‘देहली उर्दू अख़बार’ का इज्रा किया, जो उस ज़माने का एक मुकम्मल हफ़्ते-वार था। उस अख़बार से हमें उस दौर की अदबी सरगर्मियों का अहवाल भी मालूम होता है और ग़ालिब-ओ-ज़ौक़ की मुआसिराना चश्मक के क़िस्से भी पढ़ने को मिलते हैं। इस अख़बार के एडिटर मौलवी मुहम्मद बाक़र को बहादुर शाह ज़फ़र का क़ुर्ब भी हासिल था और उन्होंने इसी मुनासिबत से बाद के दिनों में अपने अख़बार का नाम ‘अख़बार-उल-ज़फ़र’ भी कर दिया था। मौलवी मुहम्मद बाक़र को 1857 की जंग-ए-आज़ादी की दुरुस्त रिपोर्टिंग करने की पादाश में अंग्रेज़ों ने सज़ाए मौत दी थी। ‘देहली उर्दू अख़बार’ के बाद जिस अख़बार का सबसे ज़्यादा ज़िक्र किया जाता है उसका नाम ‘सैयद-उल-अख़बार’ है जो सर सैयद अहमद ख़ाँ के छोटे भाई सैयद मुहम्मद ख़ाँ ने दिल्ली से 1841 में निकाला था। बद-क़िस्मती से उस अख़बार के सभी शुमारे ज़ाए’ हो चुके हैं और इसके बारे में तफ़सीली मालूमात नहीं मिलतीं। ज़ौक़ और ग़ालिब की मुआसिराना चश्मक में ‘देहली उर्दू अख़बार’ का झुकाव ज़ौक़ की तरफ़ था जबकि ‘सैयद-उल-अख़बार’ की हमदर्दीयाँ मिर्ज़ा ग़ालिब के साथ थीं। इसी अख़बार के प्रेस में मिर्ज़ा ग़ालिब की पहली किताब ‘दीवान-ए-रेख़्ता’ भी शाए’ हुई थी। यही वजह है कि मेजर जान जाकोब के नाम अपने ख़त में मिर्ज़ा ग़ालिब ने ‘सैयद-उल-अख़बार’ प्रेस का ज़िक्र निहायत एहसान-मंदाना लहजे में किया है।

14 जनवरी 1850 को लाहौर से शाए’ होने वाला रोज़नामा ‘कोह-ए-नूर’ ग़ैर-मुन्क़सिम पंजाब का पहला अख़बार था, जो हरसुख राय ने निकाला था। ये अख़बार ऐलानिया अंग्रेज़ों की सरपरस्ती में शाए’ होता था और मुजाहिदीन-ए-आज़ादी का मुख़ालिफ़ था। मगर ‘कोह-ए-नूर’ को ये अव्वलियत हासिल है कि उस अख़बार ने शुमाली हिंद में सहाफ़त का वो पहला स्कूल क़ायम किया जिसने ग़ैर-मुन्क़सिम हिंदुस्तान में बड़े-बड़े सहाफ़ियों को जन्म दिया। मुंशी नवल किशोर, नादिर अली शाह, ग़ालिब के शागिर्द मौलवी सैफ़-उल-हक़ अदीब, मिर्ज़ा मुवह्हिद, निसार अली शोहरत, मुंशी मोहर्रम अली चिश्ती, मुंशी मुहम्मदुद्दीन फ़ौक़ और न जाने कितने चोटी के अख़बार-नवीस इसी मकतब-ए-सहाफ़त के तरबियत-याफ़्ता थे जो उन्नीसवीं सदी के उफ़ुक़-ए-सहाफ़त पर मेह्र-ओ-माह बनकर चमके। इस अख़बार की इशाअत 55 बरसों तक जारी रही और इसने मुसलसल तरक़्क़ी की मंज़िलें तय कीं।

दो सदियों पर फैली हुई उर्दू सहाफ़त की तारीख़ दिलचस्प भी है और सबक़-आमोज़ भी। इसकी इब्तिदा एक मिशन के तौर पर हुई थी और इसका मक़सद मुल्क को अंग्रेज़ साम्राज के आहनी पंजों से आज़ाद कराना था। यही वजह है कि उर्दू ज़बान के सहाफ़ियों ने इस मुल्क की आज़ादी में जो ला-ज़वाल क़ुर्बानियाँ पेश कीं, वो किसी और ज़बान के सहाफ़ियों का मुक़द्दर नहीं हो सकीं। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अख़बार ‘अल-हिलाल’ की ज़मानत 71 मर्तबा ज़ब्त की गई। उससे आजिज़ आकर उन्होंने ‘अल-हिलाल’ जारी किया। उससे क़ब्ल मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ ने ‘ज़मींदार’ जारी किया, जिसने इन्क़लाबी सहाफ़त की आबयारी की। उसकी भी कई बार ज़मानत ज़ब्त हुईं। इब्तिदाई दौर में ‘ज़मींदार’ को 22 हज़ार रूपये ज़मानतों के तौर पर जमा कराने पड़े, जो उस ज़माने में एक बड़ी रक़म थी। पहली जंग-ए-अज़ीम के दौरान मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ को उनके क़स्बे करमाबाद (लाहौर) में नज़र-बंद कर दिया गया और ‘ज़मींदार’ की इशाअत बंद हो गई। सन् 1919 में यह अख़बार एक बार फिर नमूदार हुआ और उसने जलियाँवाला बाग़ सानिहा की भरपूर रिपोर्टिंग की। उसके बीस एडिटरों को गिरफ़्तार किया गया। सन् 1913 में मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने ‘हमदर्द’ के नाम से एक रोज़नामा देहली से जारी किया और फ़िरंगी इक़्तिदार की बेबाकी के साथ मुख़ालिफ़त की। अख़बार के सहाफ़ती मे’यार और बेबाकी के सबब जल्द ही उसकी इशाअत दस हज़ार तक पहुँच गई। 1915 में मौलाना मुहम्मद अली को नज़र-बंद कर दिया गया और एक माह बाद ‘हमदर्द’ पर सेंसर-शिप नाफ़िज़ कर दी गई। उर्दू सहाफ़त के बुनियाद-गुज़ारों में सर सैयद अहमद ख़ाँ और मौलाना हसरत मोहानी के किरदार को भी फ़रामोश नहीं किया जा सकता।

अलीगढ़ के इंतिहाई होनहार तालिब-ए-इल्म मौलाना हसरत मोहानी ने बी.ए. के इम्तिहान से फ़ारिग़ होते ही अलीगढ़ से “उर्दूए मुअल्ला” के नाम से एक माहनामा का डिक्लेरेशन दाख़िल कर दिया। मेस्टन रोड पर एक किराए का मकान लेकर हसरत अपने रिसाले की तैयारियों में मशग़ूल हो गए। ‘उर्दूए मुअल्ला’ का पहला शुमारा जुलाई 1903 में मंज़र-ए-आम पर आया। हसरत मोहानी को अलीगढ़ कॉलेज की अंजुमन उर्दू-ए-मुअल्ला के सेक्रेटरी की हैसियत से क़ौमी मसाइल और अदबी मौज़ूआत पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने और अपने ख़्यालात का इज़हार करने पर क़ुदरत हासिल हो चुकी थी। उनके मज़ामीन और शे’री निगारिशात उस अहद के अदबी रिसालों में शाए’ होते रहते थे। अपने उन तमाम तजरबात से माहनामा ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ की तरतीब-ओ-इशाअत में हसरत ने भरपूर फ़ायदा उठाया। उनके सामने ‘तहज़ीब-उल-अख़लाक़’ (अलीगढ़) ‘दिल-गुदाज़’ (लखनऊ) ‘अस्र-ए-जदीद’ (मेरठ) और ‘मख़ज़न’ (लाहौर) जैसे रिसालों के नमूने थे, लेकिन आ’ला अदबी मे’यार के बावजूद उनमें से किसी भी जरीदे को हक़ मोहानी जैसा हक़ पसंद, बेबाक, सरफ़रोश और आज़ादी के जज़्बे से सरशार एडिटर नसीब नहीं हुआ, क्योंकि उस दौर में अक्सर मुदीरान अपने रिसालों में सियासी मौज़ूआत पर मज़ामीन की इशाअत को मस्लिहत के ख़िलाफ़ समझते थे। हसरत ने अपनी सहाफ़त के ज़रिए उस दौर के मुसलमानों का मज़ाक़ दुरुस्त करने और उनमें आज़ादी का जज़्बा पैदा करने की कामयाब कोशिश की और ‘उर्दूए मुअल्ला’ के ज़रिए हिंदुस्तानियों खुसूसन मुसलमानों में सियासी शऊर बेदार किया। हसरत मोहानी एक इंतिहाई सादा तबि‘अत के इंसान थे। पार्लियामेंट का मेम्बर होने के बावजूद उन्होंने हमेशा ट्रेन के थर्ड क्लास डिब्बे में सफ़र किया और ब-हैसियत-ए-मेम्बर पार्लियामेंट मिलने वाली सहूलतों से कोई फ़ायदा नहीं उठाया। वो अक्सर रिक्शा पर बैठ कर पार्लियामेंट पहुँचते थे। वो देहली में अख़बार ‘वह्दत’ या एक मस्जिद के हुज्रे में क़याम करते। उन्होंने दस्तूर-साज़ असेंबली के मेम्बर की हैसियत से 57 रूपये यौमिया लेने से इंकार कर दिया था और उस पर एहतिजाज किया था कि मेम्बरों के लिए इतनी बड़ी रक़म यौमिया भत्ता लेना हिंदुस्तान के ग़रीब और फ़ाक़ा-कश ‘अवाम के साथ बड़ा ज़ुल्म है। रावलपिंडी के एक मुशायरे में एक बार उन्हें पाँच सौ रूपये का जो नज़राना मिला था, वो उन्होंने एक मक़ामी यतीम-ख़ाने को दे दिया था। इसी तरह लखनऊ रेडियो स्टेशन के एक प्रोग्राम में शिरकत के लिए उन्हें जो नज़राना पेश किया गया था, उसे उन्होंने ये कह कर वापस कर दिया कि इतनी रक़म लेकर वो क्या करेंगे। रेडियो वालों के बेहद इसरार पर उन्होंने उसमें से सिर्फ़ तीन आने लेना मंज़ूर किया। ये बात कम ही लोगों को मा’लूम है कि हमारे अह्द के एक बड़े सहाफ़ी कुलदीप नय्यर ने आज़ादी के फ़ौरन बाद अपने सहाफ़ती कैरियर का आग़ाज़ एक उर्दू अख़बार ‘अंजाम’ से किया था और उन्होंने मौलाना हसरत मोहानी की सोहबत उठाई थी।

उर्दू सहाफ़त एक बड़े मिशन और मक़सद के तहत वुजूद में आई थी, इसीलिए आज अपनी इब्तिदा के 200 साल बाद भी इसमें मक़्सदियत और जुरअत-ए-इज़हार पाई जाती है। दीगर ज़बानों के मुक़ाबले में उर्दू अख़बारात मुल्क, क़ौम और समाज के तईं ज़ियादा ज़िम्मेदारी का जज़्बा रखते हैं और उन्होंने ये साबित किया है कि माली नुक़्सानात की क़ीमत पर भी वो अपने मिशन से दस्तबरदार नहीं होंगे। इसीलिए आप देख सकते हैं कि आज भी उर्दू के मुतअद्दिद ऐसे अख़बारात निकल रहे हैं जो ख़सारे में हैं लेकिन उन्होंने हालात के आगे सिपर नहीं डाली है।

उर्दू के अख़बारात एक तवील अर्से तक निहायत मुश्किल और ना-मुसाइद हालात का मुक़ाबला करते रहे हैं, इसलिए उनके कार-कुनों में मेहनत और लगन सरिश्त के तौर पर शामिल हो गई है। ख़बरों की हुसूलियाबी से लेकर तबाअत के पेचीदा मसाइल तक उर्दू अख़बारात ने ऐसा कठिन दौर देखा है जो बे-हौसला कर देने को काफ़ी था। लेकिन उर्दू सहाफ़ी ना-मुसाइद हालात और तकनीकी दुश्वारियों में भी अख़बारात को अपने ख़ून से सींचते रहे। उर्दू सहाफ़त मुश्किल-तरीन दौर से गुज़र कर आज जब रंगीन तबाअत, कम्प्यूटर और इंटरनेट के दौर में पहुँची है तो इसमें ख़ुद-ए’तिमादी और ख़ुदा-ए’तिमादी का जज़्बा दूसरों से कहीं ज़ियादा है।

मौजूदा दौर की उर्दू सहाफ़त इत्तिलाआती टेक्नॉलोजी के तमाम ज़राए’ को पूरे ए’तिमाद के साथ रू-बा-अमल ला रही है और ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में उर्दू अख़बारात दीगर तरक़्क़ी-याफ़्ता ज़बानों कँधे से कँधा मिलाकर चल रहे हैं। उनकी अददी क़ुव्वत के ‘इलावा ता’दाद-ए-इशाअत में भी ब-तदरीज बेहतरी आ रही है।

आज़ादी के 5 साल बाद 1952 में पहला प्रेस ‘कमीशन’ वुजूद में आया जिसने फ़ौरी तौर पर रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूज़ पेपर्स ऑफ़ इंडिया (आर. एन. आई.) के क़याम की पुर-ज़ोर सिफ़ारिश की ताकि वो अख़बारात के सर्कुलेशन और आ’दाद-ओ-शुमार की रिपोर्ट हर साल वज़ारत-ए-इत्तिलाआत-ओ-नशरियात को पेश करे। आर. एन. आई. की अव्वलीन रिपोर्ट 1958 में मंज़र-ए-आम पर आई जिसमें 1957 के आ’दाद-ओ-शुमार पेश किए गए थे।

अक्तूबर 1961 को नई दिल्ली में उर्दू अख़बारात और कुतुब की कुल हिंद नुमाइश के मौक़े’ पर वज़ीर-ए-आज़म पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि “मुत्तहिदा हिंदुस्तान में उर्दू अख़बारत और जराइद की मज्मूई ता’दाद 415 थी जो तक़सीम-ए-वतन के बाद 345 रह गई यानी 70 अख़बारात तक़सीम के नतीजे में पाकिस्तान के हिस्से में चले गए। रजिस्ट्रार न्यूज़ पेपर्स ऑफ़ इंडिया की पहली सालाना रिपोर्ट में ये इन्किशाफ़ किया गया कि 1957 में हिंदुस्तान में उर्दू अख़बारात और जराइद की कुल तादाद 513 थी। यानी आज़ादी के बाद पहली दहाई में सख़्त परेशानियों के बावजूद उर्दू अख़बारात-ओ-जराइद की तादाद में 168 का इज़ाफ़ा दर्ज हुआ। इससे उर्दू ज़बान की तख़्लीक़ी क़ुव्वत ज़ाहिर होती है। 1957 में 513 अख़बारात में से जिन 292 अख़बारात ने अपनी तादाद-ए-इशा‘अत आर. एन. आई. को फ़राहम की थी उनका मज्मूई सर्कुलेशन 7 लाख 84 हज़ार था। ये ता’दाद मुल्क की तमाम ज़बानों के अख़बारात की कुल तादाद-ए-इशा‘अत का 7 फ़ीसद थी, जबकि उर्दू सहाफ़त का मक़ाम अंग्रेज़ी, हिन्दी और तमिल के बाद चौथे नंबर पर था। आज़ादी की पचासवीं सालगिरह पर 1997 में पेश की गई आर. एन. आई. की सालाना रिपोर्ट में तादाद के ए’तिबार से उर्दू सहाफ़त हिन्दी और अंग्रेज़ी के बाद तीसरा मक़ाम हासिल कर चुकी थी, लेकिन आज सूरत-ए-हाल ये नहीं है।

आज उर्दू अख़बारात आ’ला दर्जे की इम्पोर्टेड प्रिंटिंग मशीनों पर तब’ हो कर अपने क़ारईन से दाद वसूल कर रहे हैं। बेहतरीन तसावीर, ले-आउट और डिज़ाइनिंग की मदद से इनकी तबा‘अत में इन्क़लाबी तब्दीलियाँ रूनुमा हो चुकी हैं। उर्दू अख़बारात ने वो दौर भी देखा है जब मुल्क की दीगर ज़बानों की तरह उर्दू की तबा‘अत भी पत्थर पर खुदाई करके तैयार किए गए हुरूफ़ से होती थी लिथो प्रिंटिंग प्रेस की ईजाद के बाद ही नस्ता’लीक़ ख़त के ज़रिए उर्दू की छपाई का रिवाज हुआ। लिथो तबा‘अत की ईजाद चेकोस्लोवाकिया में 1796 में हुई थी। बिजली न होने के सबब लिथो मशीन हाथ से बड़े पहियों को घुमा कर चलाई जाती थी। जब बिजली आ गई तो उसका नाम बर्क़ी प्रेस रख दिया गया। आज भी बाज़ छोटे शहरों में उर्दू अख़बारात व रसाइल की त



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