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आ भी जा मेरी दुनिया में

गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँ
दूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँ
शंकर हुसैन (1977)

‘दायरा’ तो मानो उदास बिंबो का एक सिलसिला है। यह मौन प्रेम की एक दु:खद कहानी है। एक युवा लड़की से- जिसे एक बूढ़े और बीमार शख्स के साथ ब्याह दिया जाता है- पड़ोस का एक नौजवान प्यार करने लगता है। कहानी बहुत सहज ढंग से आगे बढ़ती है, जब एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति अपनी युवा पत्नी के साथ डाक्टर से इलाज कराने शहर पहुंचता है और डाक्टर के न मिलने पर रिहाइश का कोई इंतजाम न देखकर छत पर एक कमरा लेकर किराए पर रहने लगता है। इस फिल्म में कमाल अमरोही ने एक बेहद खूबसूरत भजन प्रस्तुत किया है-

देवता तुम हो मेरा सहारा
मैंने थामा है दामन तुम्हारा

इस भजन के साथ ही अवसाद का साया फिल्म पर गहराता जाता है। घर के सामने की छत से जब शरण कुमार (नासिर ख़ान) मीना कुमारी को देखते हैं तो उनसे प्यार कर बैठते हैं। मेघनाद देसाई अपनी किताब पाकीज़ा, एन ओड टु ए बाइगॉन वर्ल्ड (2013, हार्पर कॉलिन्स इंडिया) में लिखते हैं, “दायरा एक भुला दी गई क्लासिक है, मगर स्क्रीन मुवमेंट और संवादों में इसकी मितव्ययिता और सादगी आज भी अनूठी है। माइकेलएंजेलो अंतोनियोनी आने से 10 साल पहले एक फिल्म बनती है, जिसमें बमुश्किल 150 लाइनों से भी कम संवाद बोले गए हैं। नायक समीर और नायिका शीतल कभी मिलते नहीं हैं। वे सिर्फ एक-दूसरे को अपनी छतों पर दूर से देखा करते हैं।‘’

‘महल’ से अलग इस फिल्म में एक ‘लिरिकल उदासी’ है। वी शांताराम की तरह कमाल के प्रतीक भी अक्सर लाउड होते थे, मगर उनकी प्रस्तुति में कलात्मकता के कारण उनकी लाउडनेस की तरफ दर्शकों का ध्यान ही नहीं जाता था। फिल्म में तलत महमूद की रेशमी आवाज़ में एक और गीत है –

आ भी जा मेरी दुनिया में कोई नहीं
बिन तेरे कब तलक़ यूँ ही घबराए दिल

हिन्दी में ‘दायरा’ फिल्म पर इकलौती विस्तृत चर्चा प्रचण्ड प्रवीर की किताब ‘अभिनव सिनेमा’ (2016, दखल प्रकाशन) में ही पढ़ने को मिलती है। वे दायरा का जिक्र करते हुए लिखते हैं, हालांकि ‘महल’ और ‘पाकीज़ा’ को काफी शोहरत मिली, लेकिन 1953 में आई ‘दायरा’ अमरोही जी के दिल के बहुत करीब थी, बहुत कम लोग उसके बारे में जानते हैं और चर्चा करते हैं। कमाल अमरोही और मीना कुमारी ने अपनी शादी के बाद यह फ़िल्म बनाई। इसके साथ जुड़े सभी लोगों का भाग्य बड़ा ख़राब रहा। देवता तुम हो मेरा सहारा और चलो दिलदार चलो जैसे गीत लिखने वाले शायर क़ैफ भोपाली ताउम्र शराब के नशे में डूबे रहे और कभी वो शोहर और बुलंदी नहीं हासिल कर पाए जिसके शायद वो हक़दार थे। विलक्षण संगीतकार ज़माल सेन गरीबी में गुजर गए और गायिका मुबारक बेगम गुमनामियों में ही खोयी रहीं। यह सोचा जा सकता है कि ‘दायरा’ की असफलता की टीस ने ही शायद ‘पाकीज़ा’ बनने की रफ्तार मंद कर दी होगी। सत्तर के दशक में ‘माधुरी’ के संपादक अरविंद कुमार एक बातचीत में इस फिल्म के फ्लॉप होने के कारणों की व्याख्या करते हुए कहते हैं, “आत्मदया (self-pity) वाली फिल्में भारतीय दर्शक नकार देता है। ‘दायरा’ एक बहुत अच्छी फिल्म होने के बावजूद निजी दुःखों को ग्लोरीफाई करती है।”

वहीं प्रचंड प्रवीर लिखते हैं, “दायरा’ एक मौलिक सोच वाली फिल्म है, जो कि बड़े परदे की गूढ़ कविता है। यह फिल्म उस दौर की है जब संवाद आम ज़िंदगी से हटकर एक अनोखा प्रभाव लाने के लिए लिखे जाते थे। जैसे मीना कुमारी का बूढ़ा पति उसे बार-बार मेरी कीमती ज़िंदगी कहकर पुकारता है, जिसका जवाब मीना कुमारी ‘बहुत अच्छा’ या ‘जी स्वामी’ कहकर देती हैं। जब उसका मरणासन्न पति मीना कुमारी को बाल खोलकर अपने चेहरे पर बिखेरने के लिए कहता है, ऊस समय निर्विकार मीना कुमारी की मनःस्थिति समझना बहुत सतर्क दर्शक का काम हो सकता है, आज कई लोगों को यह अजीब और बेतुका जान पड़ता है।” प्रवीर आगे लिखते हैं, “मीना कुमारी पूरी फिल्म में छत पर एक फूल के पेड़ के नीचे लेटी रहती हैं। जिसकी फूलों से लदी शाखें मंद-मंद डोलती हैं। नायक नासिर हुसैन का लिखा उड़ता हुआ आवारा प्यार भरा ख़त गेब्रियल गारसिया मार्केज के उपन्यास ‘एकांत के सौ साल’ में वर्णित खून की धारा की तरह बहुत देर तक यूं ही मीना कुमारी के पांव और फिर बिस्तर के पास खुद ही उड़-उड़कर छटपटाता रहता है।”

अमरोही इस फिल्म में दर्शकों को कहीं रिलीफ नहीं देते हैं। फिल्म का अंतिम सीन अद्भुत है, जहां अंधेरे और मृत्यु की तरफ बढ़ती मीना कुमारी दर्शकों के मन में एक गहरा अवसाद पैदा कर जाती है। बैकग्राउंड में गीत बज रहा है, “कहो डोला उतारे कहार…”। यहां मीना कुमारी का छह मिनट 30 सेकेंड लंबा क्लोजअप हिंदी सिनेमा के इतिहास के सबसे लंबे क्लोजअप्स में से एक है। प्रचण्ड प्रवीर के शब्दों में, “साढ़े छह मिनट का मीना कुमारी का क्लोजअप दूर एक धुंधले नृत्य को देखते हुए लिया गया है, जो दर्शकों को अजीब लग सकता है। रूसी निर्देशक आंद्रेई तारकोव्स्की की नास्टेल्जिया (Nostalgia 1983 ) में अंत के नौ मिनट का दृश्य जब नायक एक मोमबत्ती लिए हुए चल राह होता है, या माइकेलएन्जेलो अन्तोनियोनी की फिल्मों में किरदार के चले जाने के बाद काफी देर तक खाली फ्रेम का दिखलाया जाना एक दृश्यात्मक विधा है जिससे दर्शकों को एक ही विषय पर लंबा ध्यान दिलाया जाता है। विदेशी निर्देशकों ने कमाल अमरोही के काफी समय के बाद इसे इस्तेमाल किया।”

ये रोशनी के साथ क्यूँ, धुआं उठा चिराग़ से
ये ख्वाब देखती हूँ मैं, के जग पड़ी हूँ ख्वाब से
दिल अपना और प्रीत पराई (1960)

कमाल अमरोही की फिल्मों पर चर्चा करते वक्त दो ऐसी फिल्मों पर बात करना जरूरी है, जिनको उन्होंने निर्देशित नहीं किया है मगर उन पर कमाल अमरोही की छाप स्पष्ट देखने को मिलती है। ये दो फिल्में हैं ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (1960) और ‘शंकर हुसैन’ (1977)। गौर करें तो कमाल अमरोही की प्रोड्यूस और किशोर साहू द्वारा निर्देशित फिल्म ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में उदासी के अद्भुत शेड्स देखने को मिलते हैं। इस प्रेम कहानी का ज्यादातर हिस्सा अस्पताल औऱ मरीजों के बीच शूट किया गया है। डॉक्टर के किरदार में राजकुमार का चरित्र बहुत संतुलित, जिम्मेदारियों के एहसास से भरा और कुछ-कुछ उदास सा है। मीना कुमारी एक स्टेज शो छोड़कर कहीं भी ग्लैमरस वेशभूषा में नहीं दिखतीं। ज्यादातर वे सफेद साड़ी या नर्स की ड्रेस में नजर आती हैं।

सबसे अद्भुत इस फिल्म के दो गीतों का फिल्मांकन है, जो एक ऐसा कंस्ट्रास्ट पैदा करते हैं जो शायद कमाल अमरोही ही कर सकते हैं। ‘अजीब दास्तां है ये’… एक उदासी भरा गीत है, मगर इसे एक पार्टी में गाया जाता है। यह पार्टी रात में एक नौका पर होती है। गीत में कोरस का इस्तेमाल अद्भुत है। ऐसा ही एक उदासी भरा गीत “दिल अपना प्रीत पराई.. किसने है ये रीत बनाई’ है, जिसके बैकग्राउंड में दीपावली का उत्सव और आकाश में छूटती आतिशबाजियां हैं। फिल्म में एक जगह मीना कुमारी का शानदार क्लोजअप है, जब राजकुमार की मां उसके परिवार के बारे में पूछती हैं तो वह बताती है कि मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। पहले दृश्य से ही मीना कुमारी शार्लट ब्रांटी की ‘जेन आयर’ की तरह लगती हैं। ‘दिल अपना प्रीत पराई’ के निर्देशक हालांकि किशोर साहू थे, मगर कमाल के बेटे ताजदार अमरोही बताते हैं कि वे फिल्मांकन से असंतुष्ट थे और इसका काफी हिस्सा उन्होने खुद री-शूट कराया।

ताज़दार अमरोही ने इंटरव्यू के दौरान मुझे बताया था कि ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ इसलिए बनाई गई कि ‘पाकीज़ा’ में हो रहे खर्च को बैलेंस किया जा सके। कमाल स्टूडियो की इस फिल्म के निर्देशक किशोर साहू थे, मगर इसके फिल्मांकन से कमाल अमरोही असंतुष्ट रहे और बाद में फिल्म के बड़े हिस्से को अपनी देख-रेख में री-शूट किया।

‘शंकर हुसैन’ भी एक अनूठी फिल्म है। फिल्म का निर्देशन यूसुफ़ नक़वी ने किया है, जो ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ तथा ‘रज़िया सुल्तान’ में असिस्टेंट डायरेक्टर थे। फिल्म में उनका निर्देशन सपाट सा लगता है, वे सीधे-सीधे कहानी कहते गए हैं, मगर कमाल अमरोही की लिखी कहानी और उनके संवादों का असर जादू सा है और देखने वाले की दिलचस्पी फिल्म में बनी रहती है। इसमें लता का यादगार गीत “अपने-आप रातों में चिलमनें…” और मोहम्मद रफी का गाया “कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की…” ही इस फिल्म को खास बनाने के लिए काफी है। यह फिल्म बिना किसी शोर या नारे के बड़ी खूबसूरती से भारतीय समाज में हिन्दू-मुसलिम रिश्तों की कहानी को कहती है। फिल्म का काफी हिस्सा नदी के किनारे, पुल और स्टीमर पर शूट किया गया है, जो पूरी फिल्म को एक अलग ही अंदाज देता है।

To be continue….



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