Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

“नया नगर” से बाहर निकलते हुए…

तसनीफ़ हैदर को उर्दू के हवाले से किसी तआ’रुफ़ की ज़रूरत नहीं। वो एक होशमंद और आलमी अदब पर नज़र रखने वाले अदीब हैं। शाइर हैं, मुसन्निफ़ हैं, मज़मूननिगार हैं और अपने बेबाक और बाग़ियाना तेवरों के लिए जाने जाते हैं। बिल-ख़ुसूस अपने मज़ामीन के ज़रिए मौसूफ़ ने एक अर्से से अदबी दुनिया में हंगामा बरपा कर रक्खा है। उर्दू में नए-नए तसव्वुरात का तजरिबा करना,अदब में मज़हबी शिद्दत पसंदी की मुख़ालिफ़त करना और ऐसे फ़नपारों के ख़िलाफ़ बबांग-ए-दुहल अलम-ए-बग़ावत बुलन्द करना, फ़ुहाशी और उर्यानियत (मज़हबी अख़्लाक़ियात की ख़िलाफ़वर्ज़ी से मुमासलत रखने वाली या यूँ समझिए कि “अदब” और “आदाब” को हम-मा’नी तसव्वुर करने वाली) को भी अदब का ज़रूरी जुज़्व समझना और एतराज़ करने वालों को बिल्कुल भी ख़ातिर में ना लाना तसनीफ़ के कुछ ख़ुदसाख़्ता उसूल और ख़ुसूसियात हैं।

“नया नगर” तसनीफ़ का पहला नॉवेल है। इस नॉवेल में तसनीफ़ ने उर्दू अदब के मुख़्तलिफ़ मसाइल को क़ारईन-ओ-नाक़िदीन के सामने पेश करने की कामयाब कोशिश की है। नॉवेल बेसिकली उर्दू कल्चर के ज़वाल का एक बयानिया है। बयानिया से मेरी मुराद एक कहानी को बयान करने से है ना कि नैरेटिव से। इस नॉवेल में जिन मौज़ूआ’त पे रौशनी डाली गई है उनमें ग़ज़ल, औरत, अदबी और मज़हबी तफ़रक़ा-बाज़ियों का ज़िक्र आता है। इसके अलावा गुजरात राइट्स, इश्क़-ए-ला-हासिल और मीरा रोड से नज़र आने वाली फ़िल्मी दुनिया का बयान भी किया गया है।

तसनीफ़ ने नॉवेल की शुरुआत में हिन्दी साहित्य के बड़े कवि और फ़िक्शन राइटर सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का क़ौल नक़्ल किया है-

बाग़-बग़ीचों को छोड़ कर बीहड़ जंगल में रास्ते निकालने का काम अभी उर्दू शाइर ने नहीं किया है। ये उसका काम हो सकता है ये भी शायद उसने नहीं सोचा।

या फिर ये क़ौल-

“ग़ज़ल परफॉर्मेंस है, बज़्म की चीज़ है, सामने बैठा हुआ सामा’ माँगती है।”

इन दोनों अक़वाल की रौशनी में अगर हम नॉवेल की बुनत को ग़ौर से देखें तो पाएंगे कि नॉवेलनिगार ग़ज़ल के मंज़रनामे की तब्दीली का ख़्वाहां है। कहीं-ना-कहीं वो ग़ज़ल के उस रूप को बदलना चाहता है जिसमें सिर्फ़ औरत के लब-ओ-रुख़सार, ज़ुल्फ़, जाम, वस्ल, बोसा और हिज्र का बयान ही सब कुछ है।

“बदन! बस बदन! ग़ज़ल की शाइरी इसके अलावा क्या है? मैंने अभी तक क्या लिखा है, हर शे’र में औरत के वुजूद को बस उसके बदन तक समेट दिया है, कभी उसके गाल, कभी उसके होंट, कभी उसके जिस्म के ख़ुतूत। इन पर बात करने से क्या हुआ और क्या हो रहा है? दुनिया किस रफ़्तार से बदल रही है। मगर उसके पास इस्लाह के लिए आने वाली ग़ज़ल के मौज़ू में कभी पास के प्लॉट पर भिनभिनाते मच्छरों का ज़िक्र नहीं होता।

मुख़्तलिफ़ क़िस्म की बीमारियाँ हर साल पनपती हैं, कितने मज्बूर हैं, जो सड़क पर एक रोटी के लिए हाथ फैलाने पर मज्बूर हैं, मौसमों का बदलना भी तो है, लोगों के बर्ताव भी तो हैं, उनकी तकलीफें भी तो हैं, ये सब ग़ज़ल का हिस्सा क्यों नहीं बन पाता। ये कौन सा हिज्र है जो ख़त्म होने में ही नहीं आता। तीन-चार सौ साल बीत गए लेकिन ग़ज़ल अपनी रवायत पर किसी रूढ़ी दादी अम्मा की तरह डटी हुई है। एक इन्च भी आगे नहीं बढ़ती और जो जदीद होना चाहता है, नया होना चाहता है उसे यही कह कर रद्द कर दिया जाता है कि उसमें ग़ज़ल वाली बात नहीं है।”

यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि ग़ज़ल का मंज़रनामा पिछले तीन-चार सौ सालों में बिल्कुल भी नहीं बदला और ये जमूद किसी भी सिंफ़-ए-सुख़न के लिए इंतिहाई ख़तरनाक है। दूसरी तरफ़ ग़ज़ल में वही हुस्न-ओ-इश्क़ का बयान बारहा होता रहा और इन्सानी ज़िंदगी जो कि बराह-ए-रास्त मुआश्’रे से मुंसलिक है उसके दुःख-दर्द, उसके तक़ाज़े पस-ए-पुश्त-ए-तसव्वुर-ए-शो’अरा पड़े रहे।

नॉवेल में, औरत का अदब में बिल-ख़ुसूस ग़ज़लिया अदब में क्या हिस्सा है, ग़ज़ल में औरत ने कौन सा संग-ए-मील क़ाइम किया, क्या औरत वैसी ही होती है जैसी ग़ज़ल के चश्मे से नज़र आती है, क्या औरत की नफ़सियात उसी क़िस्म की है जैसी ग़ज़ल के शाइर ने वज़’अ की हुई है, क्या औरत भी वो सब कुछ सोचती है जो ग़ज़ल में औरत के सोचने के तरीक़े के तौर पर पेश किया जाता है और सबसे बड़ी बात तो ये है कि तसनीफ़ अलल-ऐलान ये बात कहते हैं कि ग़ज़ल पर सिर्फ़ मर्दों की इजारादारी नहीं है। नॉवेल में इन तमाम बातों पर भी खुल कर लिखा गया है।

हालांकि क़ारईन-ओ-नाक़िदीन के लिए यहाँ इख़्तिलाफ़ की सूरत मौजूद है। वो ये भी कह सकते हैं कि भई अदा जाफ़री, फ़हमीदा रियाज़, किशवर नाहीद, परवीन शाकिर, अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा, सय्यदा शाने मे’राज, नोशी गिलानी, हुमैरा रहमान, इशरत आफ़रीन और परवीन शेर वग़ैरा ने औरत के ख्वाबों, उनकी नफ़सियाती हालतों को ग़ज़ल में पेश करने की कोशिश की है कि औरतें क्या चाहती हैं, किस चीज़ की ख़्वाहिश करती हैं, उनके जिन्सी रवय्ये और तक़ाज़े क्या हैं और वो मर्दअसास मुआश्’रे से क्या उम्मीद करती हैं। लेकिन ये ता’दाद इतनी कम है कि इसे पैमाने के तौर पर पेश करना कमअक़्ली की दलील होगी।

तसनीफ़ ने कहीं-ना-कहीं ये भी कहने की सई’ की है कि मर्द शो’अरा हज़रात ने ग़ज़ल में दरअस्ल औरत को सेक्सुअली ट्रीट किया है। पिस्तानों, रानों और सीनों का बयान जिन्सी लुत्फ़-ओ-राहत फ़राहम करने का काम करता है और ये क़दीम-ओ-जदीद तक़रीबन हर शाइर के यहाँ मिलता है। फिर चाहे वो मीर हो, जौन हो या मौजूदा अहद का कोई भी जिन्स परस्त शाइर हो।

“क्या ग़ज़ल ने हमें औरत को देखने का कोई दूसरा तरीक़ा बताया ही नहीं? या फिर ये पूरा समाज औरत को उसी तरह देखता है, जिस तरह ग़ज़ल देखती है। ग़ज़ल भी तो इसी समाज का हिस्सा है, वो इसीलिए तो इसी समाज में इतनी मक़बूल है। क्यों एक पुर-मा’नी नज़्म, गहरे मा’मलात-ओ-मसाइल से लबरेज़ ग़ज़ल की मक़बूलियत के आगे इतनी फीकी पड़ जाती है। क्योंकि ग़ज़ल पढ़ते वक़्त शाइर तमाम सुनने वालों को औरत से अपने तअ’ल्लुक़ और तसव्वुर के हिसार में ले आता है, पूरा मजमा’ वाह-वा की सदा से गूंज उठता है। सबकी निगाह में मुख़्तलिफ़ औरतों के ह्यूले रौशन हो उठते हैं। तो क्या ग़ज़ल एक मोहज़्ज़ब मुश्तज़नी के अलावा और कुछ नहीं है? एक गिरोह की मुश्तज़नी, एक क़ौम की मुश्तज़नी। और ये कैसा मुआश’रा है, जिसमें मुश्तज़नी का हक़ भी सिर्फ़ मर्दों को है। क्या उसने किसी औरत की ऐसी कोई ग़ज़ल पढ़ी है, जिसमें मर्द के सुडौल बाज़ुओं, शफ़्फ़ाफ़ सीने या नाफ़ की लकीर का ज़िक्र होता?”

नॉवेल में अदबी और मज़हबी तफ़रक़ा बाज़ियों का ज़िक्र भी ख़ूब-ख़ूब है। फिर चाहे वो मजीद शाहजहांपुरी और यूसुफ़ जमाली की हल्क़ाबंदी के मा’रिके हों या वहाबी और बरेलवी मस्लक के तनाज़िआत। मजीद शाहजहांपुरी का ग्रुप काफ़ी बड़ा था और इसीलिए ही उनकी नशिस्तों में काफ़ी भीड़ इकट्ठी होती थी लेकिन यूसुफ़ जमाली के पास हर साल होने वाले सालाना मुशाइ’रा था और मुशाइ’रे से चंद माह पहले ही ये अफ़वाह उड़वा देना कि फ़िहरिस्त अन्दर अन्दर तय्यार हो रही है, यूसुफ़ जमाली की मुशाइरे के ज़िम्न में एक सियासत का पहलू है।

जिस नॉवेल के बारे में ज़िक्र किया गया है कि एक कॉलेज के प्रोफ़ेसर ने अपनी एक तालिबा को वो पढ़ने के लिए दे दिया था और जब उस लड़की की माँ ने वो नॉवेल पढ़ा जो कि नॉवेल की रसिया थी, उसने फ़ुहाशी का इल्ज़ाम लगाते हुए वावेला मचाया यहाँ क़ारी ये समझ सकता है कि वो नॉवेल किस मुसन्निफ़ का है और मुम्बई में किस नॉवेलनिगार के पहले नॉवेल पे मुक़दमा चलाया जा चुका है।

नॉवेल में एक मक़ाम पे यूसुफ़ जमाली और अल्ताफ़ कैफ़ी के बहाने नॉवेलनिगार ने बड़ा दिलचस्प इंदिया ज़ाहिर किया है। होता यूँ है कि जब अल्ताफ़ कैफ़ी ने शराब के नशे में धुत होकर यूसुफ़ जमाली को गालियाँ बकी थीं और फिर माफ़ी माँग कर उनसे मिलने जुलने लगा। एक रोज़ अल्ताफ़ कैफ़ी ने अपना पहला अफ़साना यूसुफ़ जमाली को इस्लाह के लिए देते हुए कान में कहा-

“उस्ताद! क़लम सिर्फ़ इमला पर चलाइएगा, मेरे जुमलों पर नहीं।” इस हरकत (जो यूसुफ़ जमाली को नागवार गुज़री) की सज़ा कहिए या अपनी कुंठा को निकालने का एक बहाना कहिए, जब अल्ताफ़ कैफ़ी का अफ़साना छपा तो उसकी बहुत बेइज़्ज़ती हुई। यहाँ देखने वाली बात ये है कि उस्तादी-शागिर्दी में नए लिखने वालों को समझौते करके लिखना पड़ता है और अगर वो ऐसा नहीं करते हैं तो अंजाम अल्ताफ़ कैफ़ी की तरह भी हो सकता है।

नसीम नॉवेल का इकलौता ऐसा किरदार है जो तानीसी हिस्स से भरपूर लेकिन कमज़ोर है। वो इस्लाह के नाम पर मजीद शाहजहांपुरी साहब या नजीब से ग़ज़ल नए सिरे से लिखवा लेती है। नॉवेल यहां कुछ कमज़ोर हो गया है। नसीम का किरदार चूंकि हक़ीक़त से मुस्तिआर लिया गया है (मीरा रोड के सारे किरदार हक़ीक़त से मुस्तिआर लिए गए हैं) इसलिए उसकी हक़ीक़ी नौ’इयत क्या है, ये बात ग़ौरतलब है।

शहनाज़ का किरदार चूंकि नौजवान मर्द किरदारों के लिए इश्क़-ओ-लुत्फ़-ओ-राहत का सबब है इसलिए ये कोई मज़बूत किरदार नहीं। अलबत्ता कच्ची उम्र की आरज़ूओं का मम्बा’ कहीं ना कहीं शहनाज़ की ज़ात ज़रूर है और यहाँ वो नजीब और तनवीर के लिए कर्ब-ए-मुसल्सल का बाइस ठहरी।

मजीद शाहजहांपुरी साहब की बीवी एक मज़हबी क़िस्म की शौहर परस्त औरत के रूप में नॉवेल की इब्तिदा से लेकर ख़ात्मे तक एक ही रंग में नज़र आती हैं, हैरान-ओ-परेशान।

ज़हीरा शेख़ एक ऐसा किरदार है जो इल्ज़ामशुदा है। गुजरात राइट्स के बारे में नॉवेल में कुछ भी कहने के लिए ये एक अच्छा मौक़ा हो सकता था लेकिन मुम्किन है कि नॉवेल सियासी अखाड़े में दाख़िल हो जाता और मुसन्निफ़ ने इस क़िज़ये से दामन बचा कर गुज़र जाना ही बेहतर समझा।

नॉवेल में जिस एडिटर की बात की गई है उसके बारे में भी क़ारईन को अंदाज़ा हो जाना चाहिए क्योंकि इस क़िस्म के एडिटर मुम्बई में कई होंगे लेकिन उन सबके बावूजूद ये एडिटर मौसूफ़ लगातार कोई ना कोई “जुदागाना” काम ज़रूर करते रहते हैं जिससे पढ़ने वाले को भी इल्म हो जाता है कि किस ख़ास एडिटर की बात चल रही है और वो सरपरस्त अज़ीम शख़्सियत जिन्होंने उर्दू अदब के हर शो’बे में काम किया है माहिर-ए-मीर के अलावा कौन हो सकता है?

नॉवेल में एक मक़ाम पे वहाबी और बरेलवी मस्लक के इंतिशार को दिलचस्प अंदाज़ में पेश किया गया है कि कमाटीपुरा के एक होटल में एक बरेलवी ने पहले तो ख़ूब सैर होकर खाना खाया फिर आख़िर में एक बोटी पर चुपके से एक बाल चिपका दिया। फिर तो उस बरेलवी ने वो वावेला मचाया कि बेचारे वहाबी ने कुछ भी लेना तो दूर उल्टे उस बरेलवी को कुछ दे दिला कर हाथ पैर जोड़ कर चलता किया।

नॉवेल में एक मौज़ूअ’ जो नुमायां तौर पर पेश किया गया है वो ये है कि शाइरों के मआ’शी हालात “नया नगर” में बहुत ख़राब थे। यहाँ हमें ये इशारा मिलता है कि शेर-ओ-शाइरी दरअस्ल मआ’शी तंगहाली से मुस्तिआर है। मजीद शाहजहांपुरी का बार-बार फ़्लैट के किराए को लेकर ज़लील होते हुए दिखाया जाना क़ारी के लिए एक करीहा और दिलबर्दाश्ता कर देने वाला मंज़र है। जबकि सारे बच्चों की शादी का मसअला मजीद शाहजहांपुरी के लिए एक ऐसा सर दर्द है जिसके बारे में वो कभी सोचते ही नहीं। उर्दू कल्चर में अगर हम देखें तो पाएंगे कि हमारे बड़े बड़े अदीब-ओ-शाइर भी मआ’शी तंगहाली का शिकार रहे हैं। मीरा जी की मआ’शी हालत तो एक आलम पे आशकार है।

नॉवेल की ज़बान वाक़ई बहुत बेहतरीन, आसान और असरअंगेज़ी लिए हुए है। नॉवेल में जगह जगह ऐसे बहुत सारे अल्फ़ाज़ और जुमलों को बयान किया गया जिनमें एक क़िस्म की देसी ख़ुशबू, एक नौ’ का बांकपन और सोसाइटी में मक़बूल-ए-आम की हैसियत हासिल है और जिनकी एक तहज़ीबी और सक़ाफ़ती पहचान होती है। जुमलों का साख़्तियाती ताना-बाना जिस फ़ज़ा में बुना गया है वो नॉवेल की ज़बान के लिए कम-से-कम मौज़ूँ है।

“लड़की की उम्र दिन-ब-दिन बढ़ रही थी और उबलती हुई चाय की तरह उसका सीना भी लाख फूंके मारने पर नीचा बैठने पर राज़ी नहीं था।”

नॉवेल में इस बात को भी बयान किया गया है कि आजकल अदबी किताबों का कारोबार सिर्फ़ और सिर्फ़ घाटे का सौदा बन कर रह गया है। लोगों की दिलचस्पी अदब का मुतालि’आ करने में है ही नहीं। और जो लोग थोड़ा बहुत पढ़ते हैं तो वो सिर्फ़ कोर्स की किताबों तक ही महदूद हो कर रह गए हैं। उर्दू कल्चर ख़त्म होने के पस-ए-पर्दा ये एक बड़ी वज्ह रही है।

बिला-शुब’ह हम ये कह सकते हैं कि “नया नगर” में अदबी लताइफ़, मुअम्मर शो’अरा की खुशामद पसंदियां, रवायत का बयान, उस्ताद शागिर्द का एक दूसरे के लिए बदलता हुआ रवय्या ( ग़ज़ल के तनाज़ुर में), ग़ज़ल का सीखना-सिखाना उसकी ग्रामर का इल्म, बुहूर-ओ-औज़ान और बे-बहर शाइरी का फ़र्क़, शाइर और ला-शाइर का मसअला, ग़ज़ल को मज़हबी रंग-ओ-आहंग और घिसे-पिटे फ़न्नी उसूलों (नज़ीर रूहानी की तलमीह की शाइरी की तरफ़ इशारा) से आज़ाद करने की कोशिश, अदबी चोरी का बयान, हिंदू लड़कों का देवनागरी लिपि में उर्दू शाइरी सीख कर मंज़र-ए-आम पे वारिद होना, फ़िल्मी दुनिया की सूरत-ए-हाल को बेतकल्लुफ़ बयान करना (जो मीरा रोड से नज़र आती थी) और शो’अरा की बदहाल मआ’शी तंगदस्ती का दिलचस्प और मोअस्सर बयान है।



This post first appeared on Urdu Poetry, Urdu Shayari | Rekhta, please read the originial post: here

Share the post

“नया नगर” से बाहर निकलते हुए…

×

Subscribe to Urdu Poetry, Urdu Shayari | Rekhta

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×