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इन शायरों ने या तो आत्महत्या की या जल्दी ही इस दुनिया से उठ गए

कहते हैं शाइरी एक उम्र के तजर्बे का हासिल है। उम्र का एक हिस्सा उर्दू ज़बान सीखने में गुज़र जाता है, तो दूसरा हिस्सा उसे बरतने में, और बाक़ी की उम्र मज़्मून छाँटने और तराशने में ख़र्च हो जाती है। मगर ऐसा हर बार नहीं होता।

बात ये है कि आदमी शाइर
या तो होता है या नहीं होता

महबूब ख़िज़ाँ

वाक़ई शाइर बना या बनाया नहीं जा सकता। शाइर या शाइरी को तराशना एक मुख़्तलिफ़ काम है। शाइर होना पैदाइशी हुनर है और ये किसी के हाथ में नहीं। शाइरी की मश्क़ आपके हाथ में है और रियाज़त के हाथ में है, कि वो आप पर असर कब करेगी। John keats आज से 225 साल पहले पैदा हुए और 26 की उम्र में 23 फ़रवरी 1821 को अंग्रेज़ी शाइरी की महान विरासत देकर दुनिया को अलविदाअ कह गए।

मजाज़

मजाज़ लखनवी ने John keats के जन्नत- नशीं होने के 90 साल बा’द दुनिया-ए-फ़ानी में पहली बार 1911 में साँस ली और मजाज़ को उन की ज़िंदगी में ही उर्दू शाइरी का John keats कहा जाने लगा। अफ़्सोस की बात ये है, कि मजाज़ भी इस दुनिया में मह्ज़ 40 बरस के ही मेहमान रहे। लेकिन तारीख़ न जॉन कीट्स को भुला सकती है, न मजाज़ लखनवी को। Percy Bysshe Shelley (4 August 1792- 8 July 1822) 30 की उम्र में दुनिया को अलविदाअ कह गईं, तो lord byron (22 January 1788-19 April 1824) 36 की उम्र में।

11 अक्टूबर 1819 को John keats ने अपनी मंगेतर Fanny brawne के लिए एक नज़्म लिखी थी। कहा जाता है, कि Fanny brawne को John keats की कला की देवी कहा जाता था।

The day is gone, and all its sweets are gone!
Sweet voice, sweet lips, soft hand, and softer breast,
Warm breath, light whisper, tender semitone,
Bright eyes, accomplished shape, and lang’rous waist!
Faded the flower and all its budded charms,
Faded the sight of beauty from my eyes,
Faded the shape of beauty from my arms,
Faded the voice, warmth, whiteness, paradise!
Vanished unseasonably at shut of eve,
When the dusk holiday—or holinight—
Of fragrant-curtained love begins to weave
The woof of darkness thick, for hid delight;
But, as I’ve read love’s missal through today,
He’ll let me sleep, seeing I fast and pray.

और मजाज़ ने अपने मिज़ाज की ‘एक नौजवान ख़ातून से’ उन्वान पर एक नज़्म कही थी:

हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था
तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आज़मा लेती तो अच्छा था
तिरी चीन-ए-जबीं ख़ुद इक सज़ा क़ानून-ए-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कार-ए-सज़ा लेती तो अच्छा था
ये तेरा ज़र्द रुख़ ये ख़ुश्क लब ये वहम ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था
दिल- ए- मजरूह को मजरूह- तर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तिरे ज़ेर- ए- नगीं घर हो महल हो क़स्र हो कुछ हो
मैं ये कहता हूँ तू अर्ज़- ओ- समा लेती तो अच्छा था
अगर ख़ल्वत में तू ने सर उठाया भी तो क्या हासिल
भरी महफ़िल में आ कर सर झुका लेती तो अच्छा था
तिरे माथे का टीका मर्द की क़िस्मत का तारा है
अगर तू साज़- ए- बेदारी उठा लेती तो अच्छा था
अयाँ हैं दुश्मनों के ख़ंजरों पर ख़ून के धब्बे
उन्हें तू रंग- ए- आरिज़ से मिला लेती तो अच्छा था
सनानें खींच ली हैं सर- फिरे बाग़ी जवानों ने
तू सामान- ए- जराहत अब उठा लेती तो अच्छा था
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

जब ये नज़्म लिखी गई थी तब भी लाखों लबों पर रक़्साँ थी और आज भी।

कम उम्र में दुनिया को अलविदाअ कह देने वाले बड़े शाइरों की फ़ेहरिस्त यहीं ख़त्म नहीं होती।

शकेब जलाली

वहाँ की रौशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत

आज आज़ादी के बा’द के शाइरों में मुमताज़ शाइर समझे जाने वाले शकेब जलाली, जिनको हमेशा उनके समकालीन शायरों ने नज़र-अन्दाज़ किया, 1 October 1934 को अलीगढ़ (हिन्दुस्तान) में पैदा हुए थे। शकेब के वालिद किसी ज़ेहनी बीमारी के मरीज़ थे। जब शकेब ने 10 बरस की उम्र-ए-नाज़ुक में अपने वालिद के हाथों अपनी माँ को रेल के आगे फेंकते हुए, उन्हें कटते हुए देखा और इस हादिसे के 22 साल बा’द 12 November 1966 को शकेब ने सरगोधा (पाकिस्तान) से गुज़रने वाली रेल के आगे ख़ुद को फेंक दिया।

ज़े. ख़े. शीन (ज़ाहिदा ख़ातून शेरवानिया)

दिल-ए-फ़सुर्दा को अब ताक़त-ए-क़रार नहीं
निगाह-ए-शौक़ को अब ताब-ए-इन्तेज़ार नहीं
नहीं नहीं मुझे बर्दाश्त अब नहीं की नहीं
ख़ुदा के वास्ते कहना न अब की बार नहीं

दिसम्बर 1894 में भीकमपुर (अलीगढ़) में पैदा हुईं। सियासत-दाँ और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में वाइस चांसलर रहे नवाब मुज़म्मिलुल्लाह ख़ान की बेटी ज़े. ख़े. शीन जिनका तख़ल्लुस ‘नुज़्हत’ था, का इन्तेक़ाल 28 साल की कम-उम्र में February 1922 में हो गया था। ज़े. ख़े. शीन का पहला शे’री मज्मूआ ‘फ़िरदौस-ए-तख़य्युल’ लाहौर से सन 1941 में शाइअ हुआ था।

क़ाबिल अजमेरी

तेरे इख़्लास के अफ़्सूँ तिरे वादों के तिलिस्म
टूट जाते हैं तो कुछ और मज़ा देते हैं

अजमेर (राजस्थान-हिन्दुस्तान) में 27 August 1931 को पैदा हुए क़ाबिल अजमेरी ने 31 की उम्र में आख़िरी साँस 3 October 1962 को हैदराबाद (पाकिस्तान) में ली। उनका शे’री मज्मूआ ‘दीदा- ए- बेदार’ के नाम से शाइअ हुआ था।

अब्दुल रेहमान बिजनौरी

‘’महासिन-ए-कलाम-ए-ग़ालिब’’ के नाम से मशहूर किताब में दीवान-ए-ग़ालिब पर तक़रीबन 108 सफ़्हे का दीबाचा (प्रस्तावना) लिखने के लिए मशहूर अब्दुल रेहमान की पैदाइश बिजनौर (हिन्दुस्तान) में 10 जून 1885 को हुई और 33 की उम्र में 7 नवम्बर 1918 को शह’र-ए-भोपाल में इन्तेक़ाल फ़र्मा गए। हालाँकि अब्दुल शाइर तो नहीं थे, न ही कभी उनका कोई शे’री मज्मूआ शाइअ हुआ।

सारा शगुफ़्ता

नस्री नज़्मों पर तमाम बहसें एक तरफ़ और सारा शगुफ़्ता की नस्री नज़्में एक तरफ़। सारा की नज़्में भी उनकी ज़िन्दगी की तरह उलझी हुई नज़्में थीं। एक सिरा हाथ में आता है, तो दूसरा सिरा दूर सरकता ही चला जाता है। उनकी नज़्मों को पढ़ कर ऐसा एहसास होता है, जैसे उनकी नज़्में भी शाएद उनकी ज़िन्दगी की तरह पेचीदा और अधूरी हैं। कभी लगता है, कि सारा ने अपनी बात कह दी। हम नहीं समझते उसकी बात। जैसे कभी किसी ने उसकी बात समझी ही नहीं। कभी लगता है सारा अपनी बात कहते- कहते रह गई। सारा कहना तो बहुत कुछ चाहती थी, लेकिन इस गुमान में बल्कि यक़ीन में कि मेरी बात कौन सुनेगा। लोगों से बात कौन करे। मुख़्तसर जो कहना है कह डालो। वक़्त बहुत कम है। फिर मुझे रेल के आगे आ कर ख़ुद- कुशी भी तो करनी है। सारा शगुफ़्ता और जीतीं तो ऐन मुमकिन था, कि उनका नाम नस्री नज़्म की शाइर / शाइरात की फ़ेहरिस्त में अव्वल होता। एक अनपढ़ ख़ानदान में 31 अक्टूबर1954 को गुजराँवाला (पाकिस्तान) में पैदा हुईं सारा पढ़ना चाहती थीं लेकिन उनकी ये छोटी-सी ख़्वाहिश भी पूरी न हो सकी और वो मेट्रिक तक भी नहीं पहुँच सकीं। सारा ने अपनी मुख़्तसर-सी ज़िन्दगी में कई मर्तबा ख़ुद-कुशी करने की कोशिश की। ख़ुद-कुशी की उनकी आख़िरी कोशिश 4 जून 1984 को कामयाब हुई और वो हमेशा के लिए इस दुनिया से रुख़्सत हो गईं।

ख़ाली आँखों का मकान महँगा है
मुझे मिट्टी की लकीर बन जाने दो
ख़ुदा बहुत से इंसान बनाना भूल गया है
मेरी सुनसान आँखों में आहट रहने दो
आग का ज़ाइक़ा चराग़ है
और नींद का ज़ाइक़ा इंसान
मुझे पत्थरों जितना कस दो
कि मेरी बे- ज़बानी मशहूर न हो
मैं ख़ुदा की ज़बान मुँह में रखे
कभी फूल बन जाती हूँ और कभी काँटा
ज़ंजीरों की रिहाई दो
कि इंसान इन से ज़ियादा क़ैद है
मुझे तन्हा मरना है
सो ये आँखें ये दिल
किसी ख़ाली इंसान को दे देना

सरवत हुसैन

मैं तुम्हें याद कर रहा था
जब दरख़्त ख़ामोश थे
और बादल शोर कर रहे थे
मैं तुम्हें याद कर रहा था
जब औरतें आग रौशन कर रही थीं
मैं तुम्हें याद कर रहा था
जब मैदान से एक बच्चे का जनाज़ा गुज़र रहा था
मैं तुम्हें याद कर रहा था
जब क़ैदियों की गाड़ी अदालत के सामने खड़ी थी
मैं तुम्हें याद कर रहा था
जब लोग इबादत- गाहों की तरफ़ जा रहे थे
मैं तुम्हें याद कर रहा था
जब दुनिया में हर शख़्स के पास एक न एक काम था
मैं तुम्हें याद कर रहा था

तालिब-इल्मी के दिनों में ही अपनी साथी तालिबा से इश्क़ कर बैठे सरवत कराची (पाकिस्तान) में 9 नवम्बर 1949 को पैदा हुए थे। सरवत के क़रीबी लोगों में कोई नौकरी-पेशा नहीं था। चन्द बरस हाथ-पैर मारने के बा’द उन्हें कराची के एक कॉलेज में उर्दू पढ़ाने की नौकरी मिल गई। उनकी साथी तालिबा जो बा’द में बे-हद मशहूर शाइरा हुईं, ने यकबयक ही मज़ीद मशहूर होने की तमन्ना के बाइस सरवत से दूरियाँ बढ़ाना और उन्हें नज़र-अन्दाज़ करना शुरूअ कर दिया। कुछ वक़्त के बाद सरवत का तबादला कराची से बाहर किसी क़स्बे में हो गया। वहाँ वो तन्हाइयों के शिकंजे में आ गए और ज़ेहनी तौर पर बीमार पड़ने लगे। 1988 में उनका दूसरी मर्तबा तबादला हैदराबाद (पाकिस्तान) हुआ और तब तक उनकी दिमाग़ी हालत इतनी ख़राब हो चुकी थी, कि उन्हें उसका इलाज भी कराना पड़ा। सन 93 में सरवत ने रेल के आगे आ कर ख़ुद- कुशी करने की कोशिश की थी। वो बच तो गए लेकिन उस हादिसे में उनकी टाँगें चली गईं। बावजूद इसके उनका जूनून उनको बारहा उकसाता रहा और 3 बरस बा’द 9 सितम्बर सन 96 को दोबारा रेल के सामने आ कर उन्होंने अपनी जान दे दी।

आनिस मोईन

इसी कड़ी में एक अहम नाम आनिस मोईन का भी आता है। 26 साल की छोटी सी उम्र में वो अपने अंदर एक दहकती हुई आग लिए फिरते रहे। इतनी ही उम्र में जोश और फ़ैज़ से तारीफ़ बटोरने वाले आनिस का कलाम हालाँकि बहुत कम मिलता है मगर जो भी ग़ज़लें उन से मंसूब हैं उन्हें पढ़ने के बाद हमारे दुखों में इज़ाफ़ा होता चला जाता है। एक कर्ब और एक वहशत का मंज़र था उन के चारों तरफ़। ख़ुदकुशी से पहले उन्हों ने अपने वालिद के नाम एक ख़त भी छोड़ा, जिस में उन्हों ने ज़िंदगी की किताब का आखरी पन्ना देखने की ख़्वाहिश का ज़िक्र किया था।

न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
बदन थका भी नहीं और सफ़र तमाम हुआ



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