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ग़ज़ल …

गीली रेत पे सौंधी-सौंधी पुरवाई के कश भरते.
मफलर ओढ़े इश्क़ खड़ा है तन्हाई के कश भरते.
 
इश्क़ पका तो कच्ची-खट्टी-अम्बी भी महकी पल-पल,
पागल-पागल तितली झूमी अमराई के कश भरते.

 

शोर हुआ डब्बा, बस्ते, जूते, रिब्बन, चुन्नी, उछली,
पगडण्डी से बच्चे भागे तरुनाई के कश भरते.

 

सोचा डूब के उभरेंगे जब डूबेंगे इन आँखों में,
होले-होले डूब गए हम गहराई के कश भरते.

 

चाँद की चाहत या सागर के उन्मादीपन का मंज़र,
लहरों ने साहिल को चूमा रुसवाई के कश भरते.

 

बादल की जिद्द चाँद का धोखा कुछ सड़कों का सन्नाटा,
इन्डिया गेट पे वक़्त गुज़ारा हरजाई के कश भरते.

 

काश नज़र की चिट्ठी पर भी एक नज़र डाली होती,
होटों ने तो झूठ कहा था सच्चाई के कश भरते.




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