अब लगी, तब ये लगी, लग ही गई लत तेरी I
कब हुई, कैसे हुई, हो गई आदत तेरी I
ख़त किताबों में जो गुम-नाम तेरे मिलते हैं,
इश्क़ बोलूँ के इसे कह दूँ शरारत तेरी I
तुम जो अक्सर ही सुड़कती हो मेरे प्याले से,
चाय की लत न कहूँ क्या कहूँ चाहत तेरी I
तुम कहीं मेरी खिंचाई तो नहीं करती हो,
एक अनसुलझी सी उलझन है ये उलफ़त तेरी I
शाल पहनी थी जो उस रोज़ न माँगी अब तक,
इब्तिदा प्रेम की कह दूँ के इनायत तेरी I
पहने रहती थीं पुलोवर जो मेरा तुम दिन भर,
उसके रेशों से महकती है नज़ाफ़त तेरी I
उड़ती फिरती है जो तितली वो अभी कह के गई,
इत-उत यूँ ही भटकती है मुहब्बत तेरी I
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