गायत्री मंत्र मे क्या शक्ति है?
गायत्री मंत्र मे संसार की अपार शक्ति निहित है। यह सही है कि गायत्री संसार की अनुपम शक्ति मानी गई है। वह इसलिए कि परब्रह्म परमात्मा की चेतना और सामथ्यं यही है। इसके साथ-साथ यह परमात्मा की इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति का रूप धारण करके विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय का प्रावधान करती है । इस- लिये विद्वान इसे ब्राह्मी, वैष्णवी और शाम्भवी शक्ति भी कहते हैं।
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नारायणोमनिशत के अनुसार-
आदित्य देवा गन्धर्व मनुष्या पितरोसुराः तेषा सर्वभूतानाम माता मेदिनी मातामहि सावित्री गायत्री जगत्मयी पृथिवी बाहुला विद्या भूवः ।
आदित्य देवता, गन्धर्व, मनुष्य, पितर, असुर- (आदि) सब प्राणियों का आदिति तथा मातामही मेदिनी (पृथिवी) उसी सांधिवी या गायत्री रूप प्रथिवी के सभी भूत-प्राणियों का निवास है ।
शास्त्रों का स्पष्ट मत है कि गायत्री सभी पर अनुग्रह करने वाली है। यथा,रूरलोक गत्रात्वहि विष्णुलोक निवासिनी । त्वमेव ब्रह्मणो लोकेमत्यानुग्रह कारिणी ।
अर्थात् –
तुम ही अपरा, परा और परम शक्ति कही जाती हो । इच्छा शक्ति, क्रियाशक्ति तथा ज्ञान शक्ति नामक तीन बक्तियों के देने वाली भी तुम ही हो।
गायत्री ही गंगा, यमुना आदि पवित्र सरिताओं के रूप में प्रवाहित है। इडा, पिंगला आदि नाड़ियों और कुण्डिलिनी शक्ति भी वही है।
शास्त्रों का भी इस सम्बन्ध में कथन है-
गंगा च यमुना चैव विरास गन्डकी तथा ।
सरयुदेविका सिन्धुनं नर्मदेरावत महा ।।
गोदावरी शतद्रुश्च कावेरी देवलोकजा ।
कौशकी चन्द्रभागा च वितस्ताश्व सरस्वती ॥
अर्थात् –
- गंगा, यमुना, विपासा, गण्डकी, सरयु, देविका, सिधु नर्मदा ऐरावती, गोदावरी, शतद्रु , कावेरी नामक देविलोक को जाने वाली तथा कोशकी , चन्द्रभागा वितस्ता अ सरस्वती तुम ही हो ।
गायत्री सब जीवों में आत्मा या प्राणरूप विद्यमान है। वहीं मनुष्यों की सभी क्रियाओं का संचालन करने वाली विभिन्न शक्तियों के रूप में स्थिर रहती है।
इस प्रकार माता गायत्री अनेक शक्तियों से सम्पन्न अथवा अनेक रूप वाली है। योगीजन उसके अपनी-अपनी भावनानुसार दर्शन प्राप्त करते हैं । यथा-
गरिष्ठ व वराहा घरोराहा च सप्तमी ।
नीलगंगा तथा संध्या सर्वदा भोममोक्षदा ।।
हंसस्था गरुडारूढ़ा तथा वृषभ दाहिनी ।
ऋग्वेदाहापिनी मुमी दृश्यो ताम् तपस्विमि ।
अथार्त-
गरिष्ठ, बराहा, घरोराहा, सप्तमी नील गंगा, संध्या भोनना मोक्षदा, हसारूढा वैष्णवी और वृषभरूढा शिवारूपिणी है। इन ब्राह्मी ऋग्वेद का अध्ययन करने वाली रूप में धरती पर तपम्न्चीतो के द्वारा देखी जाती है।
गायत्री मन्त्र: ओ३म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गौदेवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।
यह गापत्री मन्य है। (इसमें आवि में प्रणव फिर व्याहृतियां, भुर्भुवः स्वः ओर तत्पश्चात् तीन पाद है)
सामान्य अर्थ: प्रणव रूप ब्रह्मा, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और गौलोर्क में सर्वत्र विद्यमान है। उन्ही सविता देव के वारणीय तेज का हम भ्यान करते हैं। वे हमारी बुद्धियों को सत्कर्म में श्रेरित करें।
अन्ततोगत्वा । गायत्री शक्ति को अनुपम शक्ति माना गया है। इसके बारे में स्वामी विवेकानन्द,रविन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, गौतम ऋषि, शंकराचार्य, गौतम बुद्ध आदि महात्माओं ने गायत्री को अनुपम सत्ता का दर्जा दिया है। हां एक बात विचारणीय है। इस शक्ति की साधना विधि विधान से हो तभी इसका प्रभाव प्रभावी दृष्टिगोचर होता है।
और गायत्री मन्त्र की साधना से विश्व की महानतम समस्या का भी समाधान किया जा सकता है। यह समस्या चाहे कितनी ही जटिल क्यों न हो ।
अन्न का भोजन सादा, सात्विक हल्का और सुपाच्य होना नाहिए। पेट भर हलुवा, पूड़ी, चाट-पकोड़ी मसाले अचार इत्यादि खाकर साधना नहीं की जा सकती क्योंकि ये पदार्थ शरीर के अन्दर आलस्य पैदा करते हैं जो अनुष्ठात के लिहाज से ठीक नहीं माना जा सकता। पूजा साधना के लिए स्फूति एवं शांत चित्त की परम आवश्यकता होती है।
मौन-पूजा अनुष्ठान में मौनता का बड़ा उपयुक्त महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। अधिक बोलने से शरीर के कई जिह्वा मस्तिष्क, फेफड़े, हृदय और स्नायु तन्तु शिथिल हो जाते हैं।
‘जप के दिनों में कम से कम बोलना चाहिए। यथा सम्भव मौन रहकर ईश्वर चिन्तन अथवा स्वाध्धाय करते रहने से ज्ञान स्मरण शक्ति और तेजस्विता को वृद्धि होती है। वैसे भी तपस्यारत व्यक्ति को अधिक लोगों के सम्पर्क में नहीं आना चाहिए इसका निषेध इसलिए माना जाता है कि उनकी बातचीत का प्रभाव साधक की मानसिक पवित्रता को खण्डित कर सकता है।
तितिक्षा– इसका अर्थ है सहिष्णुता ।
सहिष्णुता के लिए सादगो और धैर्य की आवश्यकत। होती है। तितिक्षा वृत्ति के अनुकूल प्रभाव से उपासना को साधन के समय में किसो प्रकार की रोकथाम के लिए अनिवार्य माना जाता है। सहिष्णुता के प्रभाव से वह शीत-ग्रीष्म का अभ्यासी हो जाता है। अतः पूरी तन्मयता से साधना करता है।
यदि सहिष्णूता नहीं है साधक थोड़ी थोड़ी देर में ब्याकुल हो उठता है तब तह साधना नहीं कर सकता धैर्य और मनोयोग के लिए विशेष ध्यान रखने की जरू रत मानी गई है।
कर्षण साधना- यह तो तितिक्षा का ही रूप है। भोजन, वस्त्र, आसन, व्यसन सवारी, निद्रा आदि का परित्याग करके इनका कम से कम और सादे से सादा उपयोग करना चाहिए। इससे मानसिक शांति बढ़ती है। उद्धोग नष्ट होता है और अभाव जन्य पीड़ा नहीं होती ।
चान्द्रायण व्रत– चंद्रकला के उत्त्पात से साधक को अपनी साधना बढ़ाते हुए त्याग तितिक्षा के आधार पर अधिक से अधिक संयमी त्यागी और सहिष्णु बनना पड़ता है।
निष्कासन-इसका आश्रय है निकलना अर्थात त्यागना बहिष्कार करना । अर्थ यह है कि साधना काल में साधक अहंकार से सर्वथा मुक्त होकर दुष्प्रवृत्तियों को त्यागकर अपने अपराधों को स्वीकार करते हुए उनका प्रायश्विव करे । समस्त प्रकार की मनोब्याधियों ईर्ष्या द्वेष काम- क्रोध और छल कपट अहम-दम्भ आदि से अपने को सर्वथा मुक्त कर ले। कहने का तात्पर्य यह है कि साधक को भीतर बाहर दोनों रूपों में शुद्ध पवित्र और निष्कलुष होना चाहिए ।
प्रदातव्य – इसका अर्थ दान है। देना किसी को कुछ प्रदान करना, सामर्थ्य के अनुसार अनुष्ठान काल में साधक को चाहिए कि कुछ दान पुण्य भी करें। दूसरों को कुछ दान दे । मनुष्य पशु-पक्षी कोई भी हो उसे कुछ न कुछ अवश्य प्रदान करना चाहिए। दीन दुखियों को भोजन पशुओं को चारा, पक्षियों को दाना और कुछ न कुछ हो सके तो चींटी, कुत्ते जैसे छोटे पशुओं को भी कुछ खाने को देना चाहिए ।
इस दान प्रवृत्ति का सीधा प्रभाव साधक की साधना पर पड़ता है और उसकी साधना तीव्रगति से प्रभावी होती है।
इसके साथ-साथ हो सके तो साधक काली गाय को नित्य प्रतिदिन दो केले खिलाता रहे, चिड़ियों को बाजरा चुगाए एवं पानी पिलाए । यह क्रिया के सभी प्रभावी लाभ देने में सक्षम रखती है ।
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