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Sardar purn singh ka jivan Parichay in hindi

 सरदार पूर्णसिंह  का जीवन परिचय देते हुए


 जीवन परिचय Sardar purn singh ka jivan Parichay in hindi

सन्त - हृदय साहित्यकार, सांस्कृतिक महापुरुष एवं राष्ट्रीय जागरण के आलोक-स्तम्भ सरदार पूर्णसिंह का जन्म एबटाबाद जिले के एक सम्पन्न एवं प्रभावशाली परिवार में 1881 ई० में हुआ था। उनकी मैट्रिक तक की शिक्षा रावलपिण्डी में हुई और इण्टरमीडिएट की परीक्षा उन्होंने लाहौर से उत्तीर्ण की। 

Sardar purn singh ka jivan Parichay in hindi


    इस परीक्षा के पश्चात् वे रसायनशास्त्र के अध्ययन के लिए जापान गए और वहाँ तीन वर्ष तक ‘इम्पीरियल यूनिवर्सिटी’ में अध्ययन किया। यहीं उनकी भेंट स्वामी रामतीर्थ से हुई और वे संन्यासी का-सा जीवन व्यतीत करने लगे। इसके पश्चात् विचारों में परिवर्तन होने पर इन्होंने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया और देहरादून के 'फॉरेस्ट कॉलेज' में अध्यापक हो गए। यहीं से 'अध्यापक' शब्द उनके नाम के साथ जुड़ गया। जीवन के अन्तिम दिनों में अध्यापक पूर्णसिंह ने खेती भी की। मार्च, सन् 1931 ई० में हिन्दी का यह प्रचण्ड सूर्य अपनी प्रखर रश्मियों को समेटकर सदैव के लिए अस्त हो गया।

    साहित्यिक सेवाएँ

    अध्यापक पूर्णसिंह भावात्मक निबन्धों के जन्मदाता और उत्कृष्ट गद्यकार थे। पूर्णसिंहजो विराट्-हृदय साहित्यकार थे। इनके हृदय में भारतीयता की विचारधारा कूट-कूटकर भरी हुई थी। इनका सम्पूर्ण साहित्य भारतीय संस्कृति और सभ्यता से प्रेरित होकर लिखा गया है।


    अध्यापक पूर्णसिंह ने प्राय: सामाजिक और आचरण सम्बन्धी विषयों पर निबन्धों की रचना की है। इनके लेखन में जहाँ विचारशीलता है, वहीं भावुकता के तत्त्व भी विद्यमान हैं। विचारशीलता के साथ भावुकता ने मिलकर इनके लेखन को आकर्षक और प्रभावपूर्ण बना दिया है।


    सरदार पूर्णसिंह के हिन्दी में कुल छह निबन्ध उपलब्ध हैं— (1) सच्ची वीरता, (2) आचरण की सभ्यता, (3) मजदूरी और प्रेम, (4) अमेरिका का मस्त योगी वॉल्ट ह्विटमैन, (5) कन्यादान, (6) पवित्रता । 


    भाषा-शैली 

    अध्यापक पूर्णसिंह की भाषा-शैली की विशेषताओं के दर्शन निम्नलिखित रूपों में होते हैं—


    भाषागत विशेषताएँ 

     मात्र छह निबन्धों के लेखक होते हुए भी सरदार पूर्णसिंह हिन्दी साहित्यकारों की प्रथम पंक्ति में गिने जाते हैं। इसका श्रेय विशेष रूप से उनके भाषा सौष्ठव को दिया जाता है। उनकी भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-


    विषय को मूर्तिमान् करने की अद्भुत क्षमता 

    अध्यापक पूर्णसिंह की भाषा में विषय को मूर्तिमान् करने की अद्भुत क्षमता है। एक सफल चित्रकार की भाँति वह शब्दों की सहायता से एक परिपूर्ण चित्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। विचारों की दृष्टि से वह पूर्ण भारतीय हैं। उन्हें कृषकों से प्रगाढ़ प्रेम था। देश की उन्नति की चिन्ता उनकी चिरसंगिनी रही और मानव की प्रतिष्ठा के लिए उनका अन्त:करण आजीवन व्याकुल रहा । 


    व्यावहारिक भाषा का प्रयोग

    उनकी भाषा शुद्ध खड़ीबोली है, किन्तु उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों यथास्थान प्रयुक्त हुए हैं। उन्हें किसी शब्द - विशेष से मोह नहीं है। वह


    ' के साथ-साथ फारसी और अंग्रेजी के शब्द भी तो उसी शब्द का प्रयोग कर देते हैं, जो शैली के प्रवाह में स्वाभाविक रूप से व्यक्त हो जाता है।


    शैलीगत विशेषताएँ 

    सरदार पूर्णसिंह की शैली में भावात्मक, वर्णनात्मक और विचारात्मक


    शैलियों का मिला-जुला रूप मिलता है। पूर्णसिंहजी की शैली की कतिपय विशेषताएँ इस प्रकार हैं- 

    भावात्मकता ( भावात्मक शैली) 

    अध्यापक पूर्णसिंह ने प्राय: भावात्मक निबन्ध लिखे हैं, इसीलिए उनकी शैली में भावात्मकता और काव्यात्मकता स्थान स्थान पर मिलती है। यहाँ तक कि इनके विचार भी भावुकता में लिपटे हुए ही व्यक्त होते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत है

    "बर्फ का दुपट्टा बाँधे हुए हिमालय इस समय तो अति सुन्दर, अति ऊँचा और अति गौरवान्वित मालूम होता है, परन्तु प्रकृति ने अगणित शताब्दियों के परिश्रम से रेत का एक-एक परमाणु समुद्र के जल में डुबो डुबोकर और उनको अपने विचित्र हथौड़े से सुडौल करके इस विशाल हिमालय के दर्शन कराए हैं।" 


    विचारात्मकता (विचारात्मक शैली) 

     विषय की गम्भीरता के साथ आपकी शैली में विचारात्मकता का गुण भी देखने को मिलता है। ऐसे स्थानों पर संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है और वाक्य लम्बे हो गए हैं।


    वर्णनात्मकता ( वर्णनात्मक शैली) 

    पूर्णसिंहजी द्वारा प्रयुक्त वर्णनात्मक शैली अपेक्षाकृत अधिक सुबोध और सरल है। इसमें वाक्य छोटे-छोटे हैं। विषय का चित्रण बड़ी मार्मिकता के साथ हुआ है। यह शैली अधिक प्रवाहमयी और हृदयग्राहिणी भी है; यथा – “एक बार एक राजा जंगल में शिकार खेलते-खेलते रास्ता भूल गया। उसके साथी पीछे रह गए। उसका घोड़ा मर गया।"


    सूत्रात्मकता ( सूत्रात्मक शैली ) 

     अपने कथन को स्पष्ट करने से पहले अध्यापक पूर्णसिंह उसे सूत्र रूप में कह देते हैं और फिर उसकी व्याख्या करते हैं। उनके ये सूत्र - वाक्य सूक्तियों का-सा आनन्द प्रदान करते जैसे— "आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है, प्रेम की भाषा शब्दरहित है; आचरण भी हिमालय की तरह एक ऊँचे कलशवाला मन्दिर है। "


    व्यंग्य और विनोद ( व्यंग्यात्मक शैली) 

     पूर्णसिंहजी के निबन्धों के विषय प्रायः गम्भीर हैं, फिर भी उनके निबन्धों में हास्य और व्यंग्य का पुट आ गया है। 'आचरण की सभ्यता' निबन्ध में उन्होंने लिखा है

    "पुस्तकों में लिखे हुए नुसखों से तो और भी अधिक बदहजमी हो जाती है। सारे वेद और शास्त्र भी यदि घोलकर पी लिए जाएँ तो भी आदर्श आचरण की प्राप्ति नहीं होती।"


    अन्य विशेषताएँ 

     पूर्णसिंहजी की शैली में दो अन्य विशेषताएँ भी हैं- (क) वे अपनी शैली में कोई साधारण वाक्य लिखकर, उससे मिलते-जुलते कई वाक्य उपस्थित कर देते हैं; परिणामस्वरूप उनकी शैली अधिक मनोरम हो गई है। उदाहरणार्थ –


    "न काला, न नीला, न पीला, न सफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्तरी, न दक्षिणी, बे-नाम, बे-निशान, बे-मकान - विशाल आत्मा के आचरण से मौनरूपिणी सुगन्धि सदा प्रसारित हुआ करती है । " 


    (ख) वे अपनी शैली में अपनी भावनाओं का चित्रण रहस्यमय ढंग से करते हैं। इसके लिए उन्होंने शब्दों की लाक्षणिक शक्ति का आश्रय लिया है, परिणामस्वरूप उनकी शैली भावों का भण्डार बन गई है। 

     हिन्दी साहित्य में स्थान 

    मात्र छह निबन्ध लिखकर ही सरदार पूर्णसिंह हिन्दी निबन्धकारों की प्रथम -


    पंक्ति में उच्चस्थान पर सुशोभित हैं। वे सच्चे अर्थों में एक साहित्यिक निबन्धकार थे। पूर्णसिंह हिन्दी व पंजाबी भाषा के पाठकों में समान रूप से लोकप्रिय हुए। अपने महान् दार्शनिक व्यक्तित्व एवं विलक्षण कृतित्व के लिए वे सदैव स्मरणीय बने रहेंगे। उनके निधन से हिन्दी एवं पंजाबी साहित्य की जो क्षति हुई, उसकी पूर्ति असम्भव है। डॉ० राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी के अनुसार, “हिन्दी-साहित्य के निबन्धकारों में अध्यापक पूर्णसिंह अन्यतम हैं। उनका न तो कोई प्रतिरूप हुआ और न उत्तराधिकारी ही। समग्रता में वे आज भी अजेय हैं।”



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