डॉ० श्यामसुन्दरदास की भाषा-शैली पर निबंध
जीवन परिचय
द्विवेदी युग के उत्कृष्ट गद्यकार, हिन्दी साहित्य के समर्थ समालोचक, निबन्धकार और कुशल अध्यापक बाबू श्यामसुन्दरदास का जन्म काशी के एक प्रसिद्ध खत्री परिवार में सन् 1875 ई० में हुआ था। उनके पिता का नाम देवीदास और माता का नाम देवकी देवी था। उनका बाल्यकाल बड़े सुख और आनन्द से व्यतीत हुआ। सर्वप्रथम उन्हें संस्कृत और व्याकरण की शिक्षा दी गई। इसके पश्चात् उन्होंने स्कूल में अंग्रेजी का अध्ययन किया।
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ऐंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् उन्होंने क्वींस कॉलेजिएट स्कूल में प्रवेश लिया। तत्पश्चात् उन्होंने 'प्रयाग विश्वविद्यालय में बी० ए० में प्रवेश लिया, किन्तु स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण वहाँ से लौट आए और काशी के 'क्वीन्स कॉलेज' से यह परीक्षा उत्तीर्ण की।
बाद में आर्थिक स्थिति खराब हो जाने के कारण उन्होंने चन्द्रप्रभा प्रेस में 40 रु० मासिक वेतन पर नौकरी की। इसके बाद वे काशी के 'हिन्दू स्कूल' में अध्यापक नियुक्त हुए। सन् 1912 ई० में वे लखनऊ के 'कालीचरण हाईस्कूल' के प्रधानाध्यापक नियुक्त हुए।
इस पद पर वे लगभग नौ वर्ष तक रहे। अपने कुछ हिन्दी प्रेमी मित्रों के सहयोग से सन् 1893 ई० में 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना की। डॉ० श्यामसुन्दरदास ने हिन्दी को विश्वविद्यालयों में स्थान दिलाने के लिए सबसे पहले प्रयत्न किया और स्वयं जीवनपर्यन्त 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे।
सन् 1927 ई० में उन्हें अंग्रेजी सरकार ने 'रायबहादुर' की उपाधि से विभूषित किया। सन् 1938 ई० में 'हिन्दी-साहित्य सम्मेलन' ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि प्रदान की और 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' ने 'डी० लिट्०' की मानद उपाधि देकर उनका गौरव बढ़ाया।
निरन्तर कार्य करते रहने के कारण उनका स्वास्थ्य गिर गया और सन् 1945 ई० में उनका स्वर्गवास हो गया।
साहित्यिक सेवाएँ
डॉ० श्यामसुन्दरदास श्रेष्ठ गद्यकार थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही हिन्दी भाषा में अर्पित कर दिया। उनकी साहित्य - सेवाओं को हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं
हिन्दी साहित्य की सेवा
हिन्दी की प्रचार प्रसार सम्बन्धी सेवाएँ – जिस समय आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी - गद्य के परिष्कार और विकास में लगे हुए थे, उसी समय बाबू श्यामसुन्दरदास ने साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया। हिन्दी की उन्नति की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना की। इसकी स्थापना करने के पश्चात् वे निरन्तर उसकी उन्नति में जुटे रहे।
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अनेक प्राचीन ग्रन्थों की खोज की गई। इस सभा द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों पर लेख प्रकाशित किए गए। सभा द्वारा ऐसे कितने ही विषयों पर ग्रन्थ प्रकाशित हुए, जिनका हिन्दी में पूर्ण अभाव था। इस प्रकार सभा के माध्यम से डॉ० श्यामसुन्दरदास ने हिन्दी के प्रचार और प्रसार का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने गद्य के क्षेत्र में द्विवेदीजी के आदर्शों का प्रचार किया।
साहित्य-सृजन सम्बन्धी सेवाएँ
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ ही बाबू श्यामसुन्दरदास ने आजीवन साहित्य की रचना की। उन्होंने निम्नलिखित उद्देश्यों को आधार बनाकर साहित्य सृजन किया(i) प्राचीन ग्रन्थों की खोज, (ii) हिन्दी में अनुपलब्ध साहित्य पर आधारित रचनाओं का सृजन एवं प्रोत्साहन, (iii) नवीन और मौलिक साहित्य का सृजन, (iv) छात्रोपयोगी साहित्य की रचना ।
डॉ० श्यामसुन्दरदास ने नागरी प्रचारिणी सभा के माध्यम से कई ऐसी पुस्तकों को खोज निकाला, जो अभी तक उपलब्ध ही नहीं थीं। उन्होंने दक्षता के साथ उनका सम्पादन किया और विद्वत्ता के साथ इन पुस्तकों की समीक्षा भी प्रस्तुत की।
बाबूजी ने ‘हिन्दी शब्द सागर' और 'वैज्ञानिक कोश' तैयार किए। इस प्रकार उन्होंने सर्वप्रथम ऐसे ग्रन्थों की रचना की, जो अभी तक हिन्दी में अनुपलब्ध थे । 'हिन्दी शब्द सागर' हिन्दी का ऐसा पहला शब्दकोश है, जिसमें हिन्दी के शब्दों का संग्रह व्यापकता के साथ किया गया है।
डॉ० श्यामसुन्दरदास से पूर्व, उच्च कक्षाओं में पढ़ाए जाने योग्य ग्रन्थों का अभाव था । सर्वप्रथम श्यामसुन्दरदासजी ने ही इस प्रकार के साहित्यिक और आलोचना सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की। उन्होने अंग्रेजी के ग्रन्थों का अध्ययन करके आलोचना, इतिहास, काव्य और साहित्य सम्बन्धी पुस्तकों की रचना की। 'साहित्यालोचन' और 'भाषा - विज्ञान' उनकी इसी प्रकार की पुस्तकें हैं। इनके साथ ही श्यामसुन्दरदासजी ने हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास की भी रचना की।
डॉ० श्यामसुन्दरदास की साहित्यिक सेवाओं की प्रशंसा करते हुए आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने कहा
मातृभाषा के प्रचारक, विमल बी० ए० पास।
सौम्य शीलनिधान बाबू श्यामसुन्दरदास ॥
कृतियाँ
डॉ० श्यामसुन्दरदास आजीवन साहित्य - सेवा में लगे रहे। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की और बहुत से ग्रन्थों को सम्पादित भी किया। उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं
निबन्ध
'गद्य कुसुमावली'। इसमें उनके विविध विषयों पर आधारित निबन्ध संकलित हैं। इसके अतिरिक्त 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में भी उनके निबन्ध प्रकाशित हुए।
आलोचना ग्रन्थ
(1) साहित्यालोचन, (2) गोस्वामी तुलसीदास, (3) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (4) रूपक रहस्य। ये व्यावहारिक और सैद्धान्तिक समीक्षा पर आधारित महत्त्वपूर्ण और उच्चकोटि की रचनाएँ हैं।
भाषा - विज्ञान
(1) भाषा - विज्ञान, (2) हिन्दी भाषा का विकास (3) हिन्दी भाषा और साहित्य हिन्दी में भाषा विज्ञान पर आधारित ये प्रथम कृतियाँ हैं।
सम्पादन
(1) हिन्दी शब्द - सागर (2) वैज्ञानिकश (3) हिन्दी कोविद रत्नमाला (4) मनोरंजन पुस्तकमाला (5) पृथ्वीराज रासो, (6) नासिकेतोपाख्यान (7) छत्रप्रकाश (8) वनिता विनोद, (9) इन्द्रावती, (10) हम्मीर रासो, (11) शाकुन्तल नाटक (12) श्रीरामचरितमानस (13) दीनदयाल गिरि की ग्रन्थावली, (14) मेघदूत, (15) परमाल रासो। उन्होंने 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का भी बहुत समय तक सम्पादन किया।
भाषा-शैली
बाबू श्यामसुन्दरदास ने गम्भीर विषयो पर साहित्य-सृजन किया है। उनके ग्रन्थ और स्फुट निबन्ध गम्भीर विषयों पर आधारित हैं। इनकी भाषा और शैली प्रायः तत्सम शब्दप्रधान, विवेचनात्मक और गवेषणात्मक है। इनकी भाषा-शैली की विशेषताओं का आकलन इस प्रकार किया जा सकता है— -
भाषागत विशेषताएँ
बाबू श्यामसुन्दरदास ने अपनी भाषा का गठन विषयों के अनुकूल किया है। जिस प्रकार इनके ग्रन्थों और निबन्धो के विषय गम्भीर हैं, उसी प्रकार इनकी भाषा में भी गाम्भीर्य है। विषय की दृष्टि से इनकी भाषा को निम्नांकित दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
शुद्ध साहित्यिक भाषा
साहित्यिक ग्रन्थों में प्रयुक्त इस भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है। संस्कृत की कोमलकान्त पदावली का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में किया गया है।
सरल तथा व्यावहारिक भाषा
इस प्रकार की भाषा इनके स्फुट निबन्धों में मिलती है। इस भाषा का गठन प्रचलित और व्यावहारिक शब्दों पर आधारित है। लेखक ने उर्दू तथा फारसी के शब्दों का प्रयोग प्राय: नहीं किया है। प्रचलित विदेशी शब्दों को हिन्दी जैसा बनाकर ही प्रयोग किया गया है।
शैलीगत विशेषताएँ
बाबू श्यामसुन्दरदास ने अपने गम्भीर व्यक्तित्व के अनुरूप, गम्भीर विषयों के प्रतिपादन में भी शैली की गम्भीरता को बनाए रखा है। उनकी गद्य-शैली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
विवेचनात्मकता ( विवेचनात्मक शैली)
विवेचनात्मक शैली का प्रयोग बाबूजी ने अपने विचारात्मक निबन्धों में किया है। इस शैली की भाषा में विषयानुकूल गम्भीरता विद्यमान है। विषय के प्रतिपादन के समय लेखक ने भाषा को सरस एवं प्रवाहपूर्ण बनाए रखा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है— -
"साहित्यिक समन्वय से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दुःख, उत्थान - पतन, हर्ष-विषाद आदि विरोधी तथा विपरीत भावों के समीकरण तथा एक अलौकिक आनन्द में उनके विलीन होने से है।"
समीक्षात्मकता ( समीक्षात्मक शैली)
डॉ० श्यामसुन्दरदास ने आलोचनात्मक विषयों की समीक्षा इसी शैली में की है। विचारों के पूर्ण रूप से अभिव्यक्त न हो पाने के कारण कहीं-कहीं भाषा अधिक बोझिल हो गई है। विचारों के स्पष्टीकरण के कारण कहीं-कहीं तर्क और गाम्भीर्य की अधिकता है।
गवेषणात्मकता (गवेषणात्मक शैली)
इस शैली में वैचारिक गम्भीरता विद्यमान है। साथ ही बाबूजी ने इसमें विशुद्ध, तत्सम शब्दप्रधान भाषा का प्रयोग किया है; यथा – "आध्यात्मिकता की अधिकता होने के कारण हमारे साहित्य में एक ओर तो पवित्र भावनाओं और जीवन सम्बन्धी गहन तथा गम्भीर विचारों की प्रचुरता हुई और दूसरी ओर साधारण लौकिक भावों तथा विचारों का विस्तार अधिक नहीं हुआ।"
भावात्मकता (भावात्मक शैली)
गम्भीरता के साथ प्राय: भावात्मकता देखने को नहीं मिलती है, परन्तु बाबूजी ने अपने गम्भीर लेखों में भावात्मकता का पुट भी दिया है। ऐसे स्थलों पर कविता जैसा आनन्द प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए -
"जिन्होंने भारत की हिमाच्छादित शैलमालाओं पर सन्ध्या की सुनहली किरणों की सुषमा देखी है अथवा जिन्हें घनी अमराइयों की छाया में कल-कल ध्वनि से बहती हुई निर्झरिणी तथा उनकी समीपवर्तिनी लताओं की वसन्तश्री देखने का अवसर मिला है, साथ ही जो यहाँ के विशालकाय हाथियों की मतवाली चाल देख चुके हैं, उन्हें अरब की उपर्युक्त वस्तुओं में सौन्दर्य तो क्या, उल्टे नीरसता, शुष्कता और भद्दापन ही मिलेगा।"
विवरणात्मकता (विवरणात्मक शैली)
बाबू श्यामसुन्दरदास ने अपने जीवनीपरक निबन्धों में विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया है। यह शैली सरल है। इसमें वाक्य छोटे हैं तथा भाषा प्रवाहपूर्ण है।
हिन्दी-साहित्य में स्थान
डॉ० श्यामसुन्दरदास ने निरन्तर साहित्य साधना करते हुए हिन्दी-साहित्य के भण्डार में अपूर्व वृद्धि की भाषा को परिष्कृत रूप -
प्रदान करने और मातृभाषा का प्रचार करने की दृष्टि से भी उन्होन
अविस्मरणीय योगदान दिया। हिन्दी के प्रति उनके अपूर्व योगदान को देखते हुए ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उनके सम्बन्ध में लिखा है
मातृभाषा के हुए जो विगत वर्ष पचास।
नाम उनका एक ही है श्यामसुन्दरदास ||