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सोमवार व्रत कथा, सौम्य प्रदोष, सोलह सोमवार और सोमवती अमावस्या की व्रत कथा।

सोमवार व्रत कथा, सौम्य प्रदोष व्रत कथा, सोलह सोमवार व्रत कथा और सोमवती अमावस्या की व्रत कथा।

शिवजी के सोमवार, सौम्य प्रदोष, सोलह सोमवार और सोमवती अमावस्या की व्रत कथा।

  1. साधारण सोमवार की व्रत कथा
  2. सौम्य प्रदोष व्रत कथा
  3. सोलह सोमवार व्रत कथा
  4. सोमवती अमावस्या की व्रत कथा

सोमवार का व्रत करने की विधि

सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे पहर तक होता है। व्रत में फलाहार या पारायण का कोई खास नियम नहीं है। किन्तु यह आवश्यक है कि दिन रात में केवल एक समय भोजन करें। सोमवार के व्रत में शिवजी पार्वती का पूजन करना चाहिए। सोमवार के व्रत तीन प्रकार के होते हैं। साधारण सोमवार, सौम्य प्रदोष और सोलह सोमवार इन तीनों की कथा अलग अलग लिखी जा रही है –

सोमवार व्रत कथा

एक बहुत धनवान साहूकार था, जिसके घर धन आदि किसी प्रकार की कमी नहीं थी। परन्तु उसको एक दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था। वह इसी चिंता में रात दिन रहता था। वह पुत्र की कामना के लिए प्रति सोमवार को शिव जी का व्रत और पूजन किया करता था तथा सांयकाल को शिव मंदिर में जाकर शिवजी के शिव विग्रह के सामने दीपक जलाया करता था।

उसके इस भक्ति भाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि महाराज! यह साहूकार आपका अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है। इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।

शिवजी ने कहा, “हे पार्वती। यह संसार कर्म क्षेत्र है। जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है। उसी तरह इस संसार में जो जैसा कर्म करते हैं वैसा फल पाते हैं।” पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा, “महाराज! जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो इसको अवश्य दूर करना चाहिए।

क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुखों को दूर करते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यों करेंगे?”




पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिव जी महाराज कहने लगे कि हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है। इसी चिंता मे यह अति दुःखी रहता है। इसके भाग्य में पुत्र नहीं है। इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूं।

परन्तु य़ह पुत्र केवल बारह वर्ष तक जीवित रहेगा। इसके पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नहीं कर सकता। ये सब बातें साहूकार सुन रहा था। इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुख हुआ।

वह पहले जैसा ही शिवजी का व्रत और पूजन करता रहा। कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें महीने उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई।

साहूकार के घर में बहुत खुशी मनायी गयी परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जान कर कोई अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की। और न ही किसी को भेद ही बताया।

जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करूंगा। अपने पुत्र को काशी जी पढ़ने के लिए भेजूंगा।

फिर साहूकार ने अपने साले को बुलाया उसको बहुत सा धन देकर कहा – तुम इस बालक को काशी जी पढ़ने के लिए ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जाओ।

वे दोनों मामा – भानजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे। रास्ते में उनको एक शहर पड़ा। उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड़का जो विवाह के लिए बारात लेकर आया था वह एक आंख से काना था।

उसके पिता को इस बात की बड़ी चिंता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें। इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये। ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के के मामा से बात की तो वे राजी हो गए।

फिर वह उस लड़के को वर के कपड़े पहना कर तथा घोड़ी पर चढ़ा दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गये।




फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाये तो क्या बुराई है? ऐसा विचार करके लड़के और उसके मामा से कहा – यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और मैं इसके बदले में आपको कुछ धन दूंगा। तो उन्होंने स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से संपन्न हो गया।

परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुनदड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आंख से काना है और मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूं।

लड़के के जाने के पश्चात उस राजकुमारी ने जब अपनी चुनरी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है। मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है। वह तो काशी जी पढ़ने गया है।

राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी।

उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुंच गये। वहां जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया। जब लड़के की आयु बारह वर्ष की हो गयी, उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा कि मामाजी आज मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।

मामा ने कहा अन्दर जाकर सो जाओ। लड़का अंदर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गये। जब उसके मामा ने आकर देखा कि वह मुर्दा पड़ा है। यह देख उसको बड़ा दुख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जायेगा।

अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना पीटना आरंभ कर दिया। संयोगवश, उसी समय शिव पार्वती जी उधर से जा रहे थे। जब उन्होंने जोर जोर से रोने की आवाज सुनी तो पार्वती जी कहने लगी हे महाराज! कोई दुखिया रो रहा है। इसके कष्ट दूर कीजिये।

जब शिव पार्वती जी ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मुर्दा पड़ा था। पार्वती जी कहने लगी, महाराज! यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था।

शिवजी कहने लगे, हे पार्वती! इसकी आयु इतनी ही थी सो भोग चुका। तब पार्वती जी ने कहा कि महाराज! इस बालक को और आयु दो, नहीं तो इसके माता पिता तड़प तड़प कर मर जायेंगे।

पार्वती के बार बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन का वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया। शिव पार्वती कैलाश पर्वत चले गये।

तब वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल पड़े। रास्ते में उसी शहर आए जहां उसका विवाह हुआ था।

वहां पर आकर उन्होंने यज्ञ प्रारम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की। साथ ही बहुत दास दासियों सहित आदरपूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया।




जब वह अपने शहर के निकट आये तो मामा ने कहा कि मैं पहले तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूं। जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत पर बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी खुशी नीचे आ जायेंगे।

नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण खो देंगे। इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है। पर उनको विश्वास नहीं हुआ। तब उसके मामा ने शपथ पूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन लेकर आया है।

तो सेठ ने आनंद के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे। इस प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है।

सोमवार व्रत की आरती

आरती करत जनक कर जोरे। बड़े भाग्य राम जी घर आये मोरे ॥ टेक ॥

जीत स्वयंवर धनुष चढ़ाये। सब भूपन के गर्व मिटाये॥

तोरि पिनाक किए दुई खंडा। रघुकुल हर्ष रावणमन शंका ॥

आयी है लिए संग सहेली। हरिश निरख वरमाला मेली॥

गज मोतियन के चौक पुराए। कनक कलश भरि मंगल गाए ॥

कंचन थार कपूर की बाती। सुर नर मुनि ज़न आए बराती ॥

फिरत भंवरी बाजा बाजे। सिया सहित रघुबीर विराजे॥

धनि धनि राम लखन दोऊ भाई। धनि धनि दशरथ कौशल्या माई॥

राजा दशरथ जनक विदेही। भरत शत्रुध्न परम स्नेही ॥

मिथिलापुर मे बजत बधाई। दास मुरारी स्वामी आरती गायी ॥

सौम्य प्रदोष व्रत कथा :-

पूर्वकाल में एक ब्राह्मणी अपने पति की मृत्यु के पश्चात निराश्रित होकर भिक्षा मांगने लग गई। वह प्रातः होते ही अपने पुत्र को साथ लेकर बाहर निकल जाती है और संध्या होने पर घर वापिस लौटती।

एक समय उसको विदर्भ देश का राजकुमार मिला। जिसके पिता को शत्रुओं ने मारकर उसको राज्य से बाहर निकाल दिया था। इस कारण वह मारा मारा फिरता था।

ब्राह्मणी उसे अपने घर ले गई और उसका पालन पोषण करने लगी। एक दिन उन दोनों बालकों ने वन में खेलते खेलते गंधर्व कन्याओं को देखा।

ब्राह्मण का बालक तो अपने घर आ गया परन्तु राजकुमार साथ नहीं आया क्योंकि वह अंशुमति नाम की गंधर्व कन्या से बातें करने लगा था।

दूसरे दिन वह फिर से अपने घर से आया। वहां पर अंशुमति अपने माता-पिता के साथ बैठी थी। उधर ब्राह्मणी ऋषियों की आज्ञा से प्रदोष का व्रत करती थी। कुछ दिन पश्चात्‌ अंशुमति के माता पिता ने राजकुमार से कहा कि तुम विदर्भ देश के राजकुमार धर्मदत्त हो, हम श्री शंकर जी की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमति का विवाह तुम्हारे साथ कर देते हैं।

फिर राजकुमार का विवाह अंशुमति के साथ हो गया। बाद में राजकुमार ने गंधर्व राज की सेना की सहायता से विदर्भ देश पर अधिकार कर लिया और ब्राह्मण के पुत्र को अपना मंत्री बना लिया। यथार्थ में यह सब उस ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत करने का फल था। बस उसी समय से यह व्रत संसार में प्रतिष्ठित हुआ।

सोलह सोमवार व्रत कथा

मृत्युलोक में विवाह करने की इच्छा करके एक समय श्री भूतनाथ महादेव जी माता पार्वती के साथ पधारे। वहां वे भ्रमण करते करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अति रमणीक नगरी में पहुंचे।

अमरावती नगरी अमरपुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी। उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मंदिर बना था। उसमें भगवान् शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे।




एक समय माता पार्वती प्राण पति को प्रसन्न देखकर मनो विनोद करने की इच्छा से बोली, हे महाराज! आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलें। शिवजी ने प्राणप्रिय की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे।

उस समय इस स्थान पर मंदिर का पुजारी मंदिर में पूजा करने को आया। माताजी ने ब्राह्मण से प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ, इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी?

ब्राह्मण बिना विचारे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेव जी की जीत होगी। थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गयी और पार्वती जी की विजय हुई। अब तो पार्वती जी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण शाप देने को उधृत हुई।

तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी का शाप दे दिया। कुछ समय बाद पार्वती जी के शाप वश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया। इस प्रकार पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा।

इस प्रकार के दुःख भोगते हुए बहुत दिन हो गए तो देवलोक की अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में पधारी और पुजारी के कोढ़ के कष्ट को देख बड़े दया भाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगी। पुजारी ने निःसंकोच सब बातें उनसे कह दी।

वे अप्सराएं बोलीं, हे पुजारी! अब तुम अधिक दुखी मत होना। भगवान् शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे। तुम सब व्रतों में श्रेष्ठ सोलह सोमवार का व्रत भक्ति भाव से करो।

पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से (षोडश) सोलह सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा। अप्सराएं बोलीं कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें, स्वच्छ वस्त्र पहनें, आधा सेर गेहूं का आटा ले उसके तीन अंगा बनावें और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पूगीफल, बेलपत्र, जनेऊ, जोड़ा, चंदन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान् शंकर का विधि से पूजन करे।

तत्पश्चात अंगो मे से एक शिवजी को अर्पण करे। बाकी दो को शिवजी की प्रसादी समझकर उपस्थित जनों में बांट दे और आप भी प्रसाद पावे। इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करो।

तत्पश्चात सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनाए। तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों मे बांटे। पीछे आप सकुटुंब प्रसादी ले तो भगवान् शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।

ऐसा कहकर अप्सराएं स्वर्ग को चलीं गयी।



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सोमवार व्रत कथा, सौम्य प्रदोष, सोलह सोमवार और सोमवती अमावस्या की व्रत कथा।

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