"आज बेवक्त सी मोहब्बत लिए बैठा हूँ
जो साथ चल रहा, उसे हमसफ़र किए बैठा हूँ "
आज पता नहीं मुझे क्या हो गया है? मैं ट्रेन की किसी एक बोगी में किसी खिड़की वाली सीट पे बैठा उस आसमां के चाँद को लगातार बस देखे ही जा रहा हूँ। मेरी नजरें पल भर के लिए भी उस चाँद से हटती नहीं हैं; और न ही हटना चाहतीं हैं। ट्रेन अपनी गति से चलायमान है, और मैं बस उस आसमां के चाँद को ही निहार रहा हूँ; और इस कदर निहार रहा हूँ कि निहारते - निहारते मेरी आँखें बस रम सी गईं हैं। मुझे नहीं पता कि आज मुझे क्या हो गया है; पर आज वो चाँद मुझे इतना खूबसूरत नजर आ रहा है कि दुनिया की सारी खूबसूरती भी उसके आगे फीकी लग रही है। जबकि आज से पहले कभी ऐसा हुआ ही नहीं कि मैंने उस चाँद की ओर कभी ध्यान से देखा भी हो या उसकी खूबसूरती का जिक्र किया हो। नहीं, ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ। न जाने क्यूँ पर आज मैं बस उसी चाँद को देख रहा हूँ, उसे निहार रहा हूँ। इसके अलावा मैं कुछ कह या बता नहीं सकता कि मैं उस चाँद को लेकर क्या महसूस कर रहा हूँ। मैं तो बस खिड़की पे सिर टिकाए, नजरें ऊपर उठाए, मदमस्त हो उस चाँद को ही देेेेखते रहना चाहता हूँ, और देख ही रहा हूँ। खुली खिड़की से बाहर झाँकती मेरी नजरें लगातार बस उसी चाँँद पर टिकी हुईं हैं। वो चाँद जिसकी रौशनी तले पूरा का पूरा आसमां भी जगमगा सा उठा है। उसकी चाँदनी की छटा भी इस कदर बिखरी हुई है कि पूरे आसमां में जैसे रूमानियत छा गई हो। और शायद ये रूमानियत ही थी जिसकी वजह से चाँद के प्रति मेरे हृदय में ऐसा अनुराग उत्पन्न हुआ कि उसने मेरी नजरों को बाँध कर रख लिया है। उस चाँद की चाँदनी न केवल रौशनीपूूूूर्ण अपितु शीतल भी है; और ये चाँद की शीतलता ही है जो मेरी आँखों में समा इन आँखों को भी उतना ही शीतल कर रही है; और शायद इसलिए भी चाँद को निहारना मेरी आँखों को बड़ा भा रहा है।
ट्रेन के इस सफ़र में मैंने उस चाँद को ही अपना हमसफ़र मान रक्खा है। मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे उस चाँद के साथ मैं किसी अलग ही दुनिया में खो गया हूँ। वो दुनिया - जिसमें ये सफ़र है, मैं हूँ, वो चाँद है, खिड़की से आती ठंडी मंद - मंद हवा है जो जिस्म की रोम - रोम को सहला रही है और गुदगुदी कर रही है, और इस गुदगुदे एहसास से होंठों पे खिली हल्की सी मुस्कान है। आज तो बस यही सफ़र है मेरा, और ये अलग दुनिया का एहसास मेरे सफ़र का रस। और सच कहूँ तो वास्तव में यही ही सफ़र है; वरना ट्रेन तो हमारे सफ़र का रास्ता तय करके हमें हमारी मंजिल तक पहुँचा ही देती है। ट्रेन की इस मुसाफ़िरी में ट्रेन का फर्ज बस इतना ही होता है कि वह अपने हर एक पड़ाव को पार करके सबको सुरक्षित उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचा दे। बाकी सफ़र का आनन्द किस तरह से लेना है, उस सफ़र का लुत्फ कैसे उठाना है, वह तो हमारे ऊपर ही है। हमारा मन ही इस सफ़र को साक्षात्कार करता है। पर अमूूूमन हमारा सफ़र तो हम जैसे ही लोगों की बातों व शोरगुल में तय होता है, जिसमें कुछ चेहरे सफ़र के बीच में ही छूट जाते हैं तो कुछ नए चेहरे देखने को मिलते हैं, और कुछ सफ़र की शुरुआत से लेकर हमारी मंजिल की छोर तक साथ बने रहते हैं। ट्रेन के इस छोटे से सफ़र में, होने को तो मेरा सफर भी ऐसा सामान्य ही रहता है; पर आज..., आज बात अलग है; क्योंकि उस चाँद के आगे न मुझे लोगों के चेहरे दिखाई पड़ रहें हैं, न उनकी कोई बातें सुनाई पड़ रहीं हैं, और न ही कोई शोरगुल समझ आ रहा है। आज तो बस यही सफ़र है मेरा - जिसमें मैं हूँ, वो चाँद है, ठंडी ठंडी मंद हवा, और वही.. होंठों पे खिली हलकी सी मदमस्त खुशनुमा मुस्कान।
खिड़की पे बैठा, टकटकी लगाए उस आसमां के चाँद को देखते हुए ये सब मन में सोच ही रहा होता हूँ कि ट्रेन की हॉर्न की आवाज आती है। ट्रेन की हॉर्न की आवाज अचानक सुनकर मैं उन ख़्यालों से बाहर आ जाता हूँ जिसमें मैं अपने और उस चाँद की दुनिया के सफ़रनामे का ज़िक्र कर रहा था। मैं मन ही मन ट्रेन की मुसाफ़िरी के असली आनन्द और रस का दर्शनशास्त्र बखान कर रहा था। पर जानकर कि 'बस मन में ही', मेरे होंठों पे वही हल्की सी मुस्कान दौड़ गई जो चाँद को देखते वक्त थी। वैसे यहाँ मेरे मुस्कुराने की एक वजह ये भी है कि मैं अपने सफर के वक्तव्य को दर्शनशास्त्र कह रहा था। अब मुझमें इतना ज्ञान थोड़े है कि मैं किसी भी विषय पे समझी गई या एहसास की हुई बातों का दर्शन-ज्ञान दे सकूँ। वैसे भी किसी भी मुसाफ़िरी में उस सफ़र का आनन्द लेना, उस सफ़र का लुत्फ उठाना तो लोगों की व्यवहारिकता और मानसिकता पर निर्भर करता है। किसी को सफ़र का मजा अकेले में आता है, तो किसी को सबके साथ। किसी को नए लोगों से बातें करते हुए सफ़र का मजा उठाने में मजा आता है तो किसी - किसी को किताबें पढ़ते हुए या गाने सुनते हुए। ऐसे ही सबकी अपनी अपनी वजह हैं, और आज मेरे सफ़र में वो चाँद था जो यह वजह बना हुआ था, और जो इस सफ़र को सुहावना बना रहा था। बहरहाल, इन सब बातों से ध्यान गया तो मैंने पाया कि जिस चाँद को मैं लगातार देख रहा था, अचानक वो चाँद मुझे दिखता और गायब होता नजर आया. जैसे ही वो चाँद मेरे आँखों से ओझल होता, मेरी आँखें उसे देखने को छटपटाने लगती कि कहाँ गया वो चाँद, कहाँ गया? उस चाँद के गायब होने पर मुझे वैसा ही लगता मानो जैसे किसी खेलते हुए बच्चे से किसी ने उसका खिलौना छीन लिया हो। वो चाँद बस दिखता और गायब होता नजर आ रहा था। पर जल्द ही वो चाँद गायब होते - होते पूरा गायब हो गया। मेरी नजरें कुलबुलाने लगीं। नजरें घूम- घूमकर आसमांं में ढूँढने लगीं कि आखिर कहाँ गायब हो गया वो चाँद? पर जब नजरें ठहरीं, पलकें झुकीं तो पाया कि ट्रेन इस छोटे से सफ़र के किसी पड़ाव(स्टेशन) पर आकर ठहरी हुई थी। मैं अब और तो कुछ कर नहीं सकता था सिवाय इन्तजार के, सो इन्तजार किया। इस इन्तजार के साथ ही अब मेरे सफ़र का मंजर कुछ वक्त के लिए बदल चुका था। जहाँ पहले मुझे न लोग दिखाई पड़ रहे थे, न उनकी बातें सुनाई पड़ रहीं थीं, और न ही कोई शोरगुल समझ आ रहा था, अब वो सब झूठ हो चुका था। इन्तजार की इस घड़ी में मैंने न केवल लोगों के चेहरे देखे बल्कि ये भी देखा कि कौन बच्चे हैं, कौन बुजुर्ग हैं, कौन - कौन पुरुष हैं और कौन -कौन महिलाएँ। ऐसे ही मुझे उन सब लोगों की घुली - मिली बातों का शोरगुल भी समझ आया और स्टेशन की चिल्लम -चिली का सुर भी सुनाई दिया। बस अब तो मैं इन्तजार कर रहा था कि जल्द से जल्द मुझे उस चाँद के दीदार हो। सफर के उस सुहावनेपन भरे एहसास के आगे मुझे ये स्टेशन का पड़ाव बिल्कुल रास न आया। रास तो दूर की बात, ये स्टेशन तो मेरे और उस चाँद के बीच खड़ी करता दीवार सा साबित हुआ जिसे मैं तोड़ना चाह रहा था। पर सच तो यही है कि मैं कुछ कर नहीं सकता था, सिवाय इन्तजार के, जो मैं कर रहा था। आगे इन्तजार इतना लम्बा नहीं था। गाड़ी के हॉर्न की आवाज आई तो मैं समझ गया कि अब गाड़ी आगे अपनी मंजिल की ओर प्रस्थान करेगी। पर मैं इस बात से ज्यादा खुश था कि चलो हास! अब चाँद के दीदार होंगे, न कि अपनी मंजिल तक पहुँचने के एहसास से।
चाँद...,'देखो चाँद आया, चाँद नजर आया...' जैसेे ही गाड़ी ने स्टेशन छोड़ी, मेरा वो चाँद मेरी नजरों के सामने था और दिल ऐसा ही एक गीत सा गुनगुना बैठा; जो ये बात साबित कर सकता था कि उस चाँद को दोबारा देखकर मैं कितना खुश था। ऐसा नहीं था कि सिर्फ मैं ही था जो चाँद से इतना बँध सा गया था; मुझे लगता है कि वो चाँद भी मुझसे उतना ही बँध गया था, उतना ही जुड़ गया था जितना कि मैं और मेरी आँखें उससे जुड़ी थीं। देखो तो पहले उस चाँद को, कैसे वह खुद भी मेरे सफ़र का हमसफ़र बना हुआ है, कैसे मेरे साथ - साथ चल रहा है। जैसे ही ये ट्रेन रुकती है, मैं रुकता हूँ तो वो चाँद भी रुक जाता है; और जैसे ही मैं चलता हूँ, वो भी चल देता है, बिल्कुल मेरे साथ - साथ, उतनी ही गति से। सफ़र फिर चल पड़ा था और चाँद भी बिल्कुल मेरे रुबरु था; तो मैं चाँद के साथ फिर उसी दुनिया में खो गया जिसमें मैं था, चाँद था, खिड़की से आती ठंडी मंद हवा और वही.. हल्की सी मुस्कान। इसी मुस्कान के साथ मैं अब उस दुनिया में जा चुका था जो कहीं न कहीं ख़्यालों की थी। मेरी नजरें बस उसी चाँद को निहार रहीं थीं जो मेरे इन ख़्यालों की अनचाही वजह बन चुका था।
"आज बेख़्याली ही ख़्याल आता है,
चाँद में इतना नूर कहाँ से आता है "
चाँद को देखकर कैसे कैसे ख़्याल आते हैं न? जैसे अपनी ही एक अलग दुनिया का उगता हुआ सूरज हो जिसमें एक खूबसूरत एहसास भरे दिन की शुरुआत बसी हो मानो। ऐसे ही एक खूबसूरत एहसास भरे दिन की शुरुआत जैसी कहानी आज मुझे भी महसूस हुई। बस फर्क इतना है कि यहाँ मेरा चाँद एक चेहरा था। वो चेहरा जो इस पूरे व्याख्यान की वजह है, केन्द्र है। यहाँ तक कि अब तक मैं जिस चाँद की खूबसूरती का ज़िक्र कर रहा था, जिस चाँद को निहार रहा था, उसकी वजह भी ये चेहरा ही था। मैंने भी इस सफ़र में अपनी एक अलग दुनिया महसूस की, जिसमें ये चेहरा मुझे उसी उगते हुए सूरज के नजारे जैसा लगा; और मेरा एहसास जैसे एक खूबसूरत दिन की शुरुआत। और ये शुरुआत ही वो वजह थी जो मेरे पूरे सफ़र को सुहावनेपन की गोद में भर रही थी। मेरे इस सफ़र के एहसास में इस चाँद, इस चेहरे की मौजुदगी बड़ी दिलचस्प है; क्योंकि ये चेहरा अंत तक किसी नाकाब के पीछे छुपा रहा जिसमें इस चेहरे की पहचान भी छिपी रह गई। साफतौर पर यहाँ चेहरा एक बुरके वाली लड़की का था, जिस पर उस बुरके वाली लड़की ने पर्दा कर रक्खा था और चेहरे के नाम पर सिर्फ उसकी आँखें थीं जिसे वो पर्दा नहीं कर सकती थी। और सच कहूँ तो बुरके के आँचल में छुपी उसकी छबि कैसी होगी, ये मैं कल्पना ही कर सकता था; क्योंकि उसकी आँखें इतनी खूबसूरत थी कि उसके रूप का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक ही बनता है। हाँ, उसकी आँखें इतनी सुन्दर थी कि आप अवश्य ही ये अनुमान कर सकते थे कि उसकी आँखों की भाँति उसके रूप में भी उतना ही सौन्दर्य होगा, और उसका सौन्दर्य उसके पूरे स्वरूप का बखान करता। पर यह सब बस कल्पनामात्र ही था, क्योंकि वो बस उसकी आँखें ही तो थी जिसे वो नजरबंद न कर सकती थी। हाँ ये अवश्य है कि वो अपनी पलकों को झुका उन आँखों के दीदार के लिए हमको तड़पा जरूर सकती थी। अगर मैं उस बुरके वाली लड़की की आँखों की बात करूँ, तो मुझे यही लगा कि उसकी आँखें जैसे उसके दिल का दर्पण थीं जिसमें उसकी सादगी और मासूमियत से भरी सीरत साफ - साफ झलकाई दे रही थी। अब क्या बताएं यह दृश्य बस मेरी उस व्यथा का है जिस व्यथा की वजह ये खूबसूरत आँखें हैं। यकीनन वह मेरे इस व्यथाजनित सफर में शामिल है, क्योंकि वह मेरी इस व्यथा की वजह जो है। पर वास्तव में तो वह अनजान है इन सब से कि कोई उसकी खूबसूरती को आँक रहा है। और ट्रेन में उन सब चेहरों के बीच एक चेहरा जो मेरा है, पता नहीं इस पूरे सफर के दौरान उसने इस चेहरे को देखा भी है कि नहीं। खैर बढ़ते हैं मेरे इस ट्रेन के सफ़र की शुरुआत की ओर, और साथ ही मेरी उस व्यथा की ओर जिसकी ये पूरी व्याख्यान है।
"बनारस से चलकर जौनपुर, अकबरपुर और फैजाबाद के रास्ते लखनऊ को जाने वाली पटना - कोटा एक्सप्रेस गाड़ी प्लेटफार्म नम्बर फलां में आ रही है", स्टेशन पहुँचा ही था कि ये एनाउंसमेंट बड़ी ही स्पष्टता के साथ मेरे कानों को सुनने को मिली। एनाउंसमेंट सुनते ही स्टेशन आने के लिए जो शीघ्रता मेरे मन में थी, वो अब मेरे कदमों में भी देखने को मिली; क्योंकि मुझे भी लखनऊ ही जाना था और यह वही गाड़ी थी जिसमें मुझे जाना था। फिर दाएँ देखा न बाएँ, सामने एस्केलेटर था सो चढ़ गया उसपे। ऊपर चढ़ती उन यान्त्रिक सीढ़ियों की गति मुझे कम लगी तो मैंने अपने कदमों को भी गति दे दी; और ऊपर चढ़ती उन सीढ़ियों में मैं खुद भी आगे बढ़ने लगा। ऐसे में ऊपर चलकर जो सीढ़ियाँ खत्म होने वाली थीं, मेरे कदमों ने उन्हें और जल्दी खत्म कर दिया। सीढ़ियाँ जैसे ही खत्म हुईं और जमीं समतल हुई तो मुझे अचानक याद आया - 'अरे! टिकट लेना तो रह ही गया'। गाड़ी के आने की एनाउंसमेंट क्या सुनी, मैं तो जल्दी - जल्दी में टिकट लेना ही भूल गया। पहले तो मेरे मन में उधेड़बुन हुआ - 'कि टिकट लूँ कि न लूँ, लूँ कि न लूँ'। फिर सोचा टिकट लेना ही सही होगा। ऐसा नहीं था कि मेरे मन में आया हो कि टिकट न लेना बेईमानी होगी और मैं अपनी ईमानदारी दिखाना चाहता था। वो तो बस एक डर था कि कहीं बिना टिकट पकड़ा गया तो लम्बे से ठुक जाऊँगा; बस इसीलिए मैंने टिकट लेना ही मुनासिब समझा। वैसे भी मैंने कई बार सुना और देखा है - 'जब लोग बिना टिकट पकड़े जाते हैं तो यही कहते हुए पाए जाते हैं कि अब तक टिकट लेके सफ़र कर रहे थे तो कभी नहीं मिले और आज जब किसी वजह से टिकट नहीं ले पाए तो पता नहीं कौन यमदूत भेज दिया'। खैर! मैंने चांस नहीं लिया और दूसरी तरफ से सीढ़ियाँ उतरकर(ये सीढ़ियाँ यान्त्रिक सीढ़ियाँ नहीं थीं) टिकट लेने के लिए जल्दी से टिकट काउंटर के लिए दौड़ गया; बगैर इस बात की परवाह किए कि कहीं गाड़ी न छूट जाए। मैं टिकट काउंटर की लाइन पे खड़ा जब तक टिकट ले रहा था, 'पटना - कोटा एक्सप्रेस' गाड़ी की एनाउंसमेंट 'आ रही' से 'आ चुकी' में हो रही थी; मतलब कि गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर आ चुकी थी। वैसे तो उस दिन की और भी गाड़ियाँ थीं लखनऊ तक जाने वाली; पर एक होता है न मन में कि जितना जल्दी पहुँच जाए उतना अच्छा। और मैं भी यही चाहता था कि कुछ भी हो जाए पर ये गाड़ी न छूटे। खैर! इन सब सोच के बीच अब टिकट मेरे हाँथ में था, और प्लेटफ़ॉर्म नम्बर मेरे दिमाग पे। सो जितनी जल्दी हो सकता था उतनी जल्दी पहुँच गया प्लेटफ़ॉर्म पे। गाड़ी को उसके निश्चित प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी देखकर मन को थोड़ी शान्ति मिली, लेकिन पैरों को आराम बिल्कुल नहीं मिला; क्योंकि असली जंग तो अभी बाकी थी न, और वो जंग थी एक सीट का मिल जाना ताकि पूरा सफ़र आराम से कट सके। वैसे एक बात बताना चाहूँगा कि इससे पहले भी तीन बार मैं इसी गाड़ी से यात्रा कर चुका हूँ; और मैंने देखा है