हदों से गुज़र रहा हर हद पार कर रहा,
कहीं से बन रहा तो कहीं से उखड़ रहा…
इस क़दर अथाह, बेपनाह जैसे आसमान,
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दूर कहीं उतर रहा और कहीं चड़ रहा…
गहराईओं में लुप्त, अचेत, खाली खंडहर,
शान्त खामोश कहीं तो कहीं से बवंडर…
सपाट मीलों तक फैला, अनन्त रेगिस्तां,
सभ्य कहीं से ज़रा, कहीं–कहीं से शैतान…
सूक्ष्म ध्वनि, तीव्र और एकदम सटीक,
जितना ख़राब बिलकुल उतना ठीक…
एक सोच, विचार–धारा, अद्भुत ख्याल,
कहीं से लगे जवाब तो कहीं से सवाल…
भद्र, उदार अलौकिक निरन्तर निर्मणाधीन,
संसार में कभी तो कभी आत्मा में विलीन…
गुरु, सिद्ध साधु–संत और पैगंबर पीर,
दास कहीं, भक्त कहीं, कहीं कहीं से कबीर…