मेरे कुछ दोस्त कहीं खो गए हैं,
कुछ हिन्दू तो कुछ मुसलमान हो गए हैं,
बुलाते थे जिन्हें ओये, अबे, साले, गोरे, काले,
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कुछ भगवे तो कुछ हरे हो गए हैं,
मेरे कुछ दोस्त कहीं खो गए हैं…
बड़े प्यारे थे, दो चार नहीं बहुत सारे थे,
दिखाई देते थे सुबह शाम यूँ ही बकबकाते,
किसी काम के नहीं थे आवारा फिरते थे,
कुछ पुजारी तो कुछ मौलवी हो गए हैं,
मेरे कुछ दोस्त कहीं खो गए हैं…
गली में जम के हुड़दंग मचाते थे,
होली में नहाते, ईद में मीठा खाते थे,
हाथ कंधे पे रख शहर भर घूम आते थे,
कुछ हवन–सामग्री तो कुछ हाजी हो गए हैं,
मेरे कुछ दोस्त कहीं खो गए हैं…
छत पर सब एक साथ सोते थे,
लड़ाई–झगडे में पिट एक साथ रोते थे,
मेरे दादा–दादी, नाना–नानी उनके भी होते थे,
छोटे थे जो कभी वो सब बड़े हो गए हैं,
मेरे कुछ दोस्त कहीं खो गए हैं…
मम्मी–अम्मी के पूरी–पराठें खाते थे,
पापा–अब्बू से सब घबराते थे,
रोज़ मिलते हस्ते खिलखिलाते थे,
कुछ जल गए, कुछ दफ़्न हो गए हैं,
मेरे कुछ दोस्त कहीं खो गए हैं…