अक्सर बेहतरीन क़िस्से चालीस पार करते ही ख़त्म हो जाते हैं, तो अगर आप चालीस पार कर पचास को छूने वाले हैं तो अपने आपको ख़ुशनसीब समझें, खुदा का करम है आपपर अभी आपने बहुत कुछ देखना है…
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लेकिन हाँ ख़ुशनसीब ही समझें, आप बेहतरीन नहीं हैं और ना ही कभी होंगें, बेहतरीन होना और ख़ुशनसीब होना दोनो मुख़्तलिफ़ बातें हैं, बेहतरीन होना है तो ये तय कर लें जो भी आपका हुनर है उसे चालीस तक तराश कर उस मुक़ाम तक ले जाएँ, की खुदा का पैगाम आये…बंदे तेरा काम हो गया है, अब “तू आजा”…
वापसी के माने, दूर, ज़मीन से दूर, पानीयों से दूर, पहाड़ों से दूर, काले सफ़ेद बादलों को चीरता, कभी मिट्टी तो कभी आग के ज़रिए सबकी आँखों में धूल या धुआँ झोंकता हुआ, “तू आजा”…
तेरा वजूद उस स्कूल टीचर जैसा हैं, जो पहले समझने के लिए पड़ता है और फिर ताउम्र समझाने के लिए पड़ता है, और ऐसे शकसियतें बहुत ही कम होती है जो समझ और समझा दोनों सकें…
अक्सर पाला ऐसे समझदारों से ही पड़ता है जिन्होंने “समझने के वक़्त” को एक ऐसी दौड़ समझा की जिसमें अव्वल आना ही इकलौता मक़सद रहा, और हक़ीक़त का इस दौड़ से दूर दूर तक कोई तरजुमा नहीं है – जनाब आप मुझे ही ले लें…
हर वो ऐब जो मौजूद है या सोचा भी जा सकता है, उन सभी ऐबों की वजह से मैं हूँ, मेरा वजूद बरक़रार है और मेरे ऐब भी…ऐब भी ऐसे जो मेरे अकेले के वफ़ादार नहीं, हर शक्स कोई ना कोई ऐब ले के घूमता है लेकिन मेरा वजूद ख़तरे में तब होता जब हर शक्स ऐब के साथ कोई हुनर भी पाल लेता, हुनर झूठे नहीं होते…लोग मुझे पड़ते हैं, कोई मेरे अफ़सानों से इखलाक रखता है तो कोई ख़िलाफ़त, मगर पड़ते हैं…
और मेरा मक़सद?
मेरा तो शायद कोई मक़सद था ही नहीं, मैं पड़ता रहा, लेकिन मैंने कभी पड़ाया नहीं, हाँ मैंने लिखा ज़रूर है, और मेरा लिखा वो आयिना है जिसे लोग देखते हैं, मुझे पड़ कर पढ़ाते हैं…
मैंने अपना लिखा अफ़साना या कहानी आप उसे जो भी समझें या ना भी समझें, काग़ज़ पर उतार देने के बाद उसे फिर नहीं पड़ा…शायद पसन्द नहीं…
मैं…
“ना मैं तरक़्क़ी पसन्द हूँ, ना जिद्दत पसन्द, ना रजत पसन्द और ना ही तज़रीबियत पसन्द…मैं तो बस मंटो पसन्द हूँ”…