पड़ गया मेरे आराम में आज फिर खलल पड़ गया, फिर बैठे बैठे हुआ खड़ा आज फिर मन बदल गया,
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चलने ही वाला था पर जैसे ही उठाया पहला कदम, पिछले वाला अगले वाले से बेवजह ही लड़ गया…
नीली पतलून, पिली क़मीज़ अंदर सफ़ेद बनियान, जूता पहना भुला जुराब, साली किस्मत है ही ख़राब,
घुमा, मुड़ा और जैसे तैसे चल पड़ा देखा बटुआ पड़ा, किसका है ? मेरा तो हैं नहीं, बटुआ था तस्वीरों भरा…
कल ली थी रेल की टिकट घूमने जाने को कहीं, जाने क्यों अब कहीं जाने का बिलकुल मन नहीं,
क्या करूँ, क्या नहीं, फाड़ा टिकट उतारी जैकेट, उतारा जैसे ही जैकेट गिरा उसमें से एक पैकेट…
पैकेट में थी नाटक की टिकट, नाटक “इत्तफ़ाक़”, डिरेक्टर बेबाक़, ऐक्टर तपाक, क्रू फट–फट फ़टाक,
ऑडीयन्स में भी जोश था, बस, दरबान ख़ामोश था, पूछा तो बोला, बेटा था ना रहा, तस्वीरें थी अब वो भी नहीं…
याद है ? बटुआ तस्वीरों से भरा, उठाया था, बताना भुल गया, उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा, होश था अब जोश था,
बेटा, उसका लड़खडाता था, ठीक से चल ना पाता था, शौंक उसे सिर्फ़ तस्वीरों का था, “इत्तफ़ाक़” ये तक़दीरों का था…