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कबीर के बेहतरीन दोहे हिन्दी अर्थ के साथ | Kabir ke dohe

कबीर के दोहे | Kabir ke dohe

संत कबीर 15वीं सदी के महान भारतीय कवी थे. वे अंध विश्वाश और सामाजिक बुराइयों के आलोचक थे. आज की इस पोस्ट में हम आपके साथ शेयर करने जा रहे हैं संत कबीर के कुछ बेहद प्रसिद्ध दोहे (Kabir ke dohe) तो चलिए शुरू करते हैं.

कबीर के दोहे

कबीर दोहा 1 -
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए दो पाटन के बीच में,साबित बचा न कोए.

अर्थ - पीसते हुए पत्थरों को देखते हुए, कबीर रोने लगते हैं, कोई भी जीवित नहीं रहता है। कबीर की अनुसार दो पत्थर वो हैं जिनके बीच हम रहते हैं जैसे - स्वर्ग और पृथ्वी, अच्छा और बुरा, पुरुष और महिला, उच्च और निम्न आदि. कोई भी इसकी शक्तिशाली पकड़ से नहीं बच पता है. जो भी इस द्वंद्व में प्रवेश करता है वह कुचला जाता है.

कबीर दोहा 2 -
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिल्या कोए जो मुन्न खोजा अपना, तो मुझसे बुरा ना कोए.



अर्थ - कबीर कहते हैं कि उन्होंने बुरे आदमी के लिए दुनिया की खोज की, लेकिन वह उस बुरे व्यक्ति को नहीं खोज सके, फिर उन्होने अपनी सोच प्रक्रिया और अपने मन को देखा. उसके बाद उन्हें वास्तविक दुष्ट व्यक्ति मिला जो उनके दिमाग में रहता था, जब हम आरोप लगाते हैं, तो दूसरे की निंदा करते हैं, यह हमारा दिमाग है जो उंगली से इशारा करता है, दूसरा व्यक्ति शायद निर्दोष है या परिस्थितियों का शिकार है. क्या हम निंदा करने वाले व्यक्तियों के शरीर में निवास करते हैं, उनका जीवन जीते हैं, उनकी परिस्थितियों को जानते हैं?

कबीर दोहा 3 -
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब?

अर्थ - कल का काम आज करो और आज का काम अब, अगर यह पल चला गया तो फिर काम कैसे होगा? मतलब वह काम करो जो अब करने की जरूरत है। इसके लिए इंतज़ार मत करो.

कबीर दोहा 4 -
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोए अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए.

अर्थ - ऐसे शब्दों का उपयोग करें जिससे आपका अहंकार समाप्त हो जाए. डींग मत मारो, उदास मत बनो, अपने आप को बड़ा, महत्वपूर्ण, समृद्ध या ऐसा कुछ भी मत बनाओ जो अहंकार को संलग्न करता है. यदि अहंकार लोगों के शब्दों में नहीं दिखता है, तो सुनने वाले को भी शांति मिलती है.

कबीर दोहा 5 -
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए माली सींचे सौ घड़ा, ऋतू आये फल होए.

अर्थ - इस दोने में कबीर अपने मन को धीमा करने के लिए कहते हैं, जीवन में सब कुछ धीरे-धीरे होता है, अपने समय में, फल केवल ऋतु आने पर मिलता है, उसी प्रकार जीवन का फल अपने समय में मिलेगा.



कबीर दोहा 6 -
साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाये मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये

अर्थ - इस दोहे में कबीर भगवान से धन मांगते हुए कहते हैं, भगवान, मुझे इतना धन दे दो, मैं भूखा न रहूं और ना ही कोई साधु भूखा जाए. इसके अलावा वह एक हवेली, एक मर्सिडीज या लाखों रुपये की मांग नहीं करते.

कबीर दोहा 7 -
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं, फल लागे अतिदूर

अर्थ - अगर तुम बड़े हो तो क्या? जैसे खजूर का पेड़ बड़ा होनी के बाद भी यात्रियों के लिए कोई छाया नहीं दे पाता, उसके फल तक पहुँचना भी कठिन है, इसलिए महत्वपूर्ण, और धनी होने के लिए बड़ा होना जरूरी नहीं है.

कबीर दोहा 8 -
माँगन मरण सामान है, मत कोई मांगे भीख माँगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख

अर्थ - भीख माँगना मरने के समान है, यह सतगुरु का संदेश है जिसका अर्थ है भीख मत मांगो, किसी को समय दो, कुछ सेवा दो, दोस्ती दो, प्यार दो लेकिन भीख मत दो।

कबीर दोहा 9 -
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर

अर्थ - कबीरा बाज़ार में खड़ा है, वो हर किसी की समृद्धि की दुआ करता है वो न तो किसी के लिए विशेष दोस्त है और न ही दुश्मन.

कबीर दोहा 10 -
पोथी पढ़ पढ़ कर जग मुआ, पंडित भायो न कोई ढाई आखर प्रेम के, जो पढ़े सो पंडित होए

अर्थ - किताबों और शास्त्रों को पढ़ कर ना जाने कितनों की मृत्यु हो गई, लेकिन कोई भी पंडित नहीं बन पाया. प्यार के दो और आधे शब्द, जो कोई भी पढ़ता है, वो पंडित बन जाता है जिसका अर्थ है कि पुस्तक सीखने के बारे में भूल जाओ, किताबें पढ़ने से आप बुद्धिमान नहीं बनेंगे, प्यार के कुछ शब्द सीख लीजिये और आप पंडित बन जाएंगे.

कबीर दोहा 11 -
दुःख में सिमरण सब करे, सुख में करे न कोए जो सुख में सिमरन करे, तो दुख काहे को होय

अर्थ - जब भी कोई दुख में होता है भगवान को याद करता है, खुशी में कोई याद नहीं करता. अगर कोई भगवान की प्रार्थना करता है और उसे खुशी में याद करता है, तो दुःख आएगा ही क्यों? अर्थ दुनिया में आपके द्वारा अनुभव की गई पीड़ा आपको जगाने के लिए बनाई गई है. जब आप भगवान को महसूस करते हैं तो आप जाग जाते हैं. अगर आपने अपने खुश समय के दौरान ऐसा किया, तो आप दुख का अनुभव नहीं करेंगे.


संत कबीर के बारे में अन्य जानकारी - कबीर - विकिपीडिया




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