Get Even More Visitors To Your Blog, Upgrade To A Business Listing >>

एकलव्य की गुरुभक्ति और द्रोणाचार्य का कर्तव्य

The post Sheelu appeared first on HindiHaiHum.com.

आज कल आपने सोशल मीडिया या कुछ दोस्तों को इसी बात पर वाद विवाद करते देखा होगा. की गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य के साथ गलत किया, जो कहानी इस प्रकार है :

Ekalavya Story in Hindi :

एकलव्य महाभारत का एक पात्र है। वह हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र था, एकलव्य को आज महान धनुर्विद्या और महान गुरुभक्ति के रूप में देखा जाता है. पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बना.

एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।

एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है।

एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में उसका अंगूठा मांग लिया, अर्थात उसकी धनुर्विद्या मांग ली. कहते हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था।

यहाँ में उन लोगो से कुछ प्रश्न और उत्तर सामने रखता हु जो एकलव्य और गुरु द्रोणाचार्य के पवित्र रिश्ते पर को शक की दृष्टि से देखते है.

क्या एकलव्य को गुरु दक्षिणा के लिए मजबूर किया गया था? नहीं, बल्कि वो ऐसा करके हमेशा हमेशा के लिए अमर और महान हो गया. और महाभारत के पात्रो में उनका बड़े सम्मान और गर्व के साथ लिया जाता है। जब एकलव्य ने एक महान निर्णय लेकर गुरु को इतना बड़ा सम्मान दिया तो हम कौन होते है एकलव्य उस निर्णय पर प्रश्न करने वाले?

जब एकलव्य ने अपने गुरु पर इतना बड़ा विश्वास और सम्मान रखा तो हम कौन होते है गुरु द्रोणाचार्य पर प्रश्न करने वाले। अगर महाभारत सिर्फ क्षत्रिय और ब्राहम्णो का ग्रन्थ है तो इस भाग को हटाए जाने की संभवना भी हो सकती थी.  लेकिन वो वाद में श्रृंगबेर राज्य का शासक बना, अमात्य परिषद की मंत्रणा से उसने न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलों की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।

अब इसी  के साथ हम महाभारत की एक और कहानी लेते है जो किरात अर्जुन के बारे में

कीरत अर्जुन की परीक्षा :

यह उन दिनों की बात है जब युधिष्ठिर कौरवों के साथ संपन्न द्यूतक्रीड़ा में सब कुछ हार गये तो उन्हें अपने भाइयों एवं द्रौपदी के साथ 13 वर्ष के वनवास पर जाना पड़ा। उनका अधिकांश समय द्वैतवन में बीता। वनवास के कष्टों से खिन्न होकर और कौरवों द्वारा की गयी साजिश को याद करके द्रौपदी युधिष्ठिर को अक्सर प्रेरित करती थीं कि वे युद्ध की तैयारी करें और युद्ध के माध्यम से कौरवों से अपना राजपाठ वापस लें। भीम भी द्रौपदी की बातों का पक्ष लेते हैं।

हिमालय पर्वतमाला में ‘इन्द्रकील’ बड़ा पावन और शांत स्थल था। ॠषि-मुनि वहां तपस्या किया करते थे। एक दिन अर्जुन ने अपने अस्त्र-शस्त्र उतारे और वहां बने शिवलिंग के सामने बैठ गया। उसने बड़े मनोयोग से भगवान शिव की आराधना की, शिवलिंग पर फूल चढ़ाए। कई महिने बीत गए। अर्जुन तन्मय होकर ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करते रहे, शिवलिंग के आगे। उनके शरीर से तेज़ निकलकर वातावरण को गरम करने लगा। इस कारण ॠषि-मुनियों को मन्त्र-पूजा करने में बाधा होने लगी। देखते ही देखते सारा जंगल उस ताप से तपने लगा। घबराकर ॠषि-मुनि कैलाश गए जहां शिव का वास है। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की, “हे शिव शंकर, हे अभयंकर, अर्जुन की मनोकामना पूरी करो और हमारी पीड़ा हरो।“ शिव ने ॠषियों को आश्वस्त किया तो ॠषि-मुनि अपने स्थान को लौट गए।

शिव बोले, “मै किरात के भेष में जाकर उससे युद्ध करूंगा।“ “मैं भी साथ चलूंगी।“ पार्वती बोली। “चलो, लेकिन भेष बदलकर्।“ “तो ठीक है, मैं किरात-नारी बन जाती हूं।“ यह बात जब शिव के गणों को मालूम हुई तो उन्होंने शिव से प्रार्थना की, “प्रभु! हमारी इच्छा है कि हम भी इस युद्ध को देखें। हमें भी साथ ले चलें।“

“चलो, किंतु तुम्हें किरात-नारियों का भेष धारण करना पड़ेगा।“ शिव ने कहा। तत्पश्चात् सभी किरात के भेष में इन्द्रनील की ओर चल पड़े। वे इन्द्रनील पहुंचे तो माता पार्वती ने एक ओर संकेत करते हुए भगवान शिव से कहा, ”स्वामी! वह देखिए , कितना बड़ा शूकर्।“

“देख लिया। अभी से इसे तीर से मार गिराऊंगा।“ कहते हुए शिव ने अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया।

किंतु शूकर भागने में किरात से तेज़ था। उसने ॠषियों के आश्रम में जाकर ऐसा उत्पात मचाया कि ॠषि भाग खड़े हुए, ‘बचाओ, रक्षा करो, मूकासुर फिर आ गया शूकर बनकर।‘ कहते हुए वे सहायता की गुहार लगाने लगे।

ॠषि-मुनियों की चीख-पुकार से अर्जुन का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने आंखें खोली और धनुष पर बाण चढ़ा लिया। तभी किरात भेषधारी भगवान शिव अपने धनुष पर बाण चढ़ाए उसे आते दिखाई दिए। अर्जुन को शूकर का निशाना बनाते देख शिव ने कहा’ “ठहरो। इस शूकर पर बाण मत चलाना। यह शिकार मेरा है। मैंने बहुत देर तक इसका पीछा किया है।“

“ठीक है, तुम इसे मार सको तो ले जाओ।“ अर्जुन बोले, “शिकारी भीख नहीं मांगा करते।“

“सरदार की जय।“ किरात नारियां बने शिवगणों ने जय-जयकार करनी शुरू कर दी।

“यह तुम्हारे बाण से मरा है, स्वामी।“ किरात नारी बनीं पार्वती मुदित स्वर में बोलीं।

किरात-नारियों के हर्षोल्लास पर अर्जुन मुस्कराए। शिव के सामने जाकर बोले, “किरात! इस घने वन में इन स्त्रियों को भय नहीं लगता? अकेले तुम्हीं पुरुष इनके साथ हो,”

“युवक! हमें किसी का भय नहीं। पर तुम शायद डरते हो। हो भी तो कोमल।“ शिव ने मुस्कराकर कहा।

“मै कोमल हूं? तुमने देखा नहीं मेरे बाण ने कैसे शूकर को वेधा है?” अर्जुन बोले।

“शूकर हमारे सरदार के बाण से मरा है।“ किरात नारियों ने चीखकर कहा।

“ये सच कहती है, युवक।“ किरात ने कहा, “तुम्हारा बाण शूकर के शरीर में तब लगा, जब वह मेरे बाण से मरकर नीचे गिर गया।“

“तब तो इस बात का निर्णय हो ही जाना चाहिए, किरात, कि हम दोनों में कौन श्रेष्ठ धनुर्धर है।“ अर्जुन ने गर्व भरे स्वर में चुनौती दी।

बस, फिर क्या था, दोनो ने अपने अस्त्र-शस्त्र एक दूसरे की ओर चलाने शुरू कर दिए। देखते ही देखते भयंकर बाण-वर्षा शुरू हो गई। लेकिन कुछ ही देर बाद अर्जुन का तूणीर बाणों से ख़ाली हो गया। तब वह विस्मय से बड़बड़ाया, मेरे सभी बाणों को इस किरात ने काट डाला, मेरा बाणों से भरा सारा तूणीर ख़ाली हो गया किंतु किरात को खरोंच तक नहीं लगी।

तभी किरात का व्यंग्य-भरा स्वर गूंजा, “धनुर्धारी वीर! उसने झपटकर किरात को अपने धनुष की प्रत्यंचा में फांस लिया, किंतु एक ही क्षण में किरात ने अर्जुन से धनुष छीनकर दूर फेंक दिया। यह देख किरात-स्त्रियां हर्ष से नाच उठी, “तपस्यी हार गया।“ वे ज़ोर-ज़ोर सेह हर्षनाद करने लगीं।

अर्जुन और भी चिढ़ गए। इस बार वह तलवार लेकर किरात की ओर झपटे और बोले, “किरात! भगवान का स्मरण कर ले, तेरा अंतकाल आ गया।“

किंतु जैसे ही अर्जुन ने तलवार किरात के सिर पर मारी, तलवार टूट गई। अर्जुन निहत्थे हो गए तो उन्होंने एक पेड़ उखाड़ लिया और उसे किरात पर फेंका। लेकिन उमके आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि किरात के शरीर से टकराते ही पेड़ किसी तिनके की भांति टूटकर नीचे जा गिरा। जब कोई और उपाय न रहा तो अर्जुन निहत्थे ही किरात पर टूट पड़े। किंतु किरात पर इसका कोई असर न हुआ। उसने अर्जुन को पकड़कर ऊपर उठाया और उन्हें धरती पर पटक दिया। अर्जुन बेबस हो गया।

तब अर्जुन ने वहीं रेत का शिवलिंग बनाया और भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। इससे उनके शरीर में नई शक्ति आ गई। उन्होंने उठकर फिर से किरात को ललकारा, “किरात! अब तेरा काल आ गया।“ वह चीखे।

लेकिन जैसे ही नज़र किरात के गले में पड़ी फूलमाला पर पड़ी, वह स्तब्ध होकर खड़े-के-खड़े रह गए, ‘अरे! ये पुष्पमाला तो मैंने भगवान शिव के लिंग पर चढ़ाई थी, तुम्हारे गले में कैसे आ गई?’
पल मात्र में ही अर्जुन का सारा भ्रम जाता रहा। वे समझ गए कि किरात के भेष में स्वयं शिव शंकर ही उनके सामने ख़ड़े हैं।

अर्जुन किरात के चरणों में गिर पड़े, रुंधे गले से बोले, “मेरे प्रभु, मेरे आराध्य देव। मुझे क्षमा कर दो। मैंने गर्व किया था।“

तब शिव अपने असली रूप में प्रकट हुए, पार्वती भी अपने असली रूप में आ गई। शिव बोले, “अर्जुन! मैं तेरी भक्ति और साहस से प्रसन्न हूं। मैं पाशुपत अस्त्र का भेद तुझे बताता हूं। संकट के समय यह तेरे काम आएगा।“

शिव का वचन सत्य हुआ। महाभारत के युद्ध में अर्जुन अपने परम प्रतिद्वंद्वी कर्ण को पाशुपत अस्त्र से ही मारने में सफल हो चुके थे।

निष्कर्ष –

यहाँ फिर कुछ प्रश्न खड़े होते है की महाभारत अगर सिर्फ क्षत्रिय और ब्राहम्णो का ग्रन्थ है तो शिव जी ने कीरत जनजाति के व्यक्ति का रूप क्यों धरा. जब शिव ने भेदभाव नहीं किया, महाभारत इस इस संवाद को हमेशा सम्मान के साथ सहेज कर रखा तो हम आज इतने निर्लज़्ज़ कैसे हो सकते है की खुद ही भेदभाव निकाल कर महाभारत और रामायण के महान पात्रो को बुरा भला कह रहे है.
और ऐसे लोगो को भी शर्म आनी चाहिए जो छुआछूत और जातियों में भेदभाव करते है, जब श्री राम आदिवासी भीलनी के झूठे बेर खा सकते है तो क्या हम सबके साथ मिल जुलकर भी नहीं रह सकते है. इसलिए कही भी किसी के घर खाओ पीओ इससे धर्म भ्रस्ट नहीं होताबल्कि हम श्री राम के एक आदर्श का पालन करेंगे.

धर्म भ्रस्ट तब होगा जब आप किसी नीच घर में भोजन करेंगे, नीच हमारे ग्रंथो में जाती के अनुसार नहीं बल्कि कर्म के अनुसार बताया गया है जैसे – जो चोरी करता हो, मांस खाता हो, व्यभिचार करता हो, ऐसे व्यक्तियों के घर नीच की श्रेणी में आते है यहाँ भोजन करना मना है जो किसी भी जाति या धर्म के लोग हो सकते है.

Buy MahaBharat Books Online.

Also Read – क्या श्री कृष्ण भगवान् महाभारत का युद्द टाल सकते थे?

The post एकलव्य की गुरुभक्ति और द्रोणाचार्य का कर्तव्य appeared first on HindiHaiHum.com.



This post first appeared on HindiHaiHum.com - Best And Unique Information In Hindi, please read the originial post: here

Share the post

एकलव्य की गुरुभक्ति और द्रोणाचार्य का कर्तव्य

×

Subscribe to Hindihaihum.com - Best And Unique Information In Hindi

Get updates delivered right to your inbox!

Thank you for your subscription

×