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बस कुछ लफ्ज़

चल माना की महज़ लफ्ज़ो के आँचल के पीछे मै छुप जाती हूँ
सोचूँ अगर हाल-ए-दिल यूँ बता दू तुमको
तो न जाने क्यों कहते कहते मै यूँ रुक जाती हु
शायद मेरे लफ्ज़ो की कीमत ये पन्ने तुझसे ज़्यादा समझ रहे है
मै कह दू अगर वो बाते इनसे तो चुपके चुपके ये यूँ मुझे परख रहे है
शायद एहसास अब इन्हे भी है तेरी उस बेवफाई का
बस करते नहीं ये ज़िक्र मेरी इस तन्हाई का
शायद अब तुझे फर्क नहीं पड़ता, ये सोच कर राते मेरी कटती नहीं
बस इसी लिए मै अपने हालातों का इज़हार अब तुझसे करती नहीं.


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बस कुछ लफ्ज़

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