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पाश की कविता: मैं पूछता हूँ….

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्या वक़्त इसी का नाम है
कि घटनाएँ कुचलती हुई चली जाएँ
मस्त हाथी की तरह
एक समूचे मनुष्य की चेतना को ?

कि हर सवाल
केवल परिश्रम करते देह की ग़लती ही हो
क्यों सुना दिया जाता है हर बार
पुराना लतीफ़ा
क्यों कहा जाता है हम जीते हैं
ज़रा सोचें –
कि हममे से कितनों का नाता है
ज़िन्दगी जैसी किसी चीज़ के साथ!
रब्ब की वह कैसी रहमत है
जो गेहूँ गोड़ते फटे हाथों पर
और मंडी के बीच के तख़्तपोश पर फैले माँस के
उस पिलपिले ढेर पर
एक ही समय होती है ?

आख़िर क्यों
बैलों की घंटियों
पानी निकालते इंज़नो के शोर में
घिरे हुए चेहरों पर जम गई है
एक चीख़ती ख़ामोशी ?
कौन खा जाता है तलकर
टोके पर चारा लगा रहे
कुतरे हुए अरमानों वाले पट्ठे की मछलियों ?
क्यों गिड़गिड़ाता है
मेरे गाँव का किसान
एक मामूली पुलिस वाले के सामने ?

क्यों कुचले जा रहे आदमी के चीख़ने को
हर बार कविता कह दिया जाता है ?
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से……

Avtar Singh Sandhu ( पाश )



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