टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित आलेखानुसार 2011 के जनगणना के आधार पर हिंदी बोलने वाले लोगों में 2001 में 41.03 फीसदी की तुलना में 2011 में इसकी संख्या बढ़कर 43.63% हो गई है। भारत में दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बंगाली हैं। तेलगू को तृतीय पायदान से अपदस्त कर, मराठी ने आकड़ो में काफी उलटफेर कर बाजी अपने नाम कर ली हैं।
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संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग को दृष्टिगत रखते हुए संविधान सभा ने 14/9/1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा स्वीकार करते हुए राजभाषा हिंदी के संबंध में प्रावधान किए। इसके साथ ही हिन्दी भाषी बहुसंख्यक समूह को एक झुनझुना पकड़ा दिया गया। राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग के स्थान पर संघ की राजभाषा रूपी झुनझुना प्राप्ति की ख़ुशी में राष्ट्रीय हिन्दी दिवस/सप्ताह/पखवाड़ा/महिना मनाकर हम-आप एकदुजे को # के संग Happy Hindi Day/Diwas वाली शुभकामनाएं प्रेषित कर विश्व को हिन्दीमय करने की लंबी-लंबी जुमलेबाजी करते हैं।
‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ जैसी भाषायी विविधता का पोषक भारत, आज कुपोषित होकर पहचान दिलाने वाले अपने अनेको सम्पदाओं के असफल संरक्षण से जूझ रहा हैं। खेती-किसानी से मोहभंग कर झोला-मटरी लेकर डिग्री और नौकरी के तलाश में ट्रेन-बसों में लदी ग्रामीण सम्प्रदायों के झुंडो का शहरों में पलायन और शहरों में दूसरी-तीसरी भाषा के लिए स्थानाभाव का परिणाम ही हैं कि पिछले 50 साल में भारत की क़रीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। गैर सरकारी संगठन भाषा ट्रस्ट के संस्थापक और लेखक गणेश डेवी ने गहन शोध के बाद जारी रिपोर्ट में कहा है कि शहरीकरण और प्रवास की भागमभाग में करीब 230 भाषाओं का नामो निशान मिट गया, जो पहले 1961 की जनगणना के बाद 1652 मातृभाषाओं की संख्या बल दर्ज की गईं थी।
इसे दोयम दर्जे वाली चारित्रिक एव सांस्कृतिक पतन नही तो क्या कहेंगे कि विश्व की प्रथम भाषा एवं भारतीय उपमहाद्वीप की वैदिक व धार्मिक भाषा की दर्जा प्राप्त देववाणी ‘संस्कृत’ को आज देश में सबसे कम लोगों(मात्र 24,821 लोगों) द्वारा मातृभाषा का दर्जा दिया गया। जबकि उन सो कॉल्ड अंग्रेज बुद्धिजिवियों की संख्या 2.6 लाख पहुँच गयी हैं, जिन्होंने अंग्रेजी को अपना मातृभाषा घोषित किया हैं।
सरकारें न तो भाषा को जन्म दे सकती हैं और न ही भाषा का पालन करा सकती हैं। बस साल दर साल नाना प्रकार के आयोग और समितियां बना कर जनता के खून-पसीने वाली गाढ़ी कमाई को बुद्धिजीवियों के चोचलेबाजी में लुटा कर अट्हास उड़ा सकती हैं। राजभाषा विभाग के वेबसाइट पर दर्ज बजट आकड़ो के अनुसार 2009-10 में विभाग ने 3145 लाख रूपये का प्रावधान था, जो 2017-18 में 65.48 करोड़ तथा 2018-19 के लिए 75.45 करोड़ की आसमान छू ली, फिर भी परिणाम वही सर्वविदित ढाक के तीन पात…।
आँध्रप्रदेश, ओड़िसा एवं बंगाल प्रवास के दौरान स्थानीय नागरिको एवं झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी बोलियों के स्वघोषित मठाधीशों द्वारा हिंदी के प्रति बोई गयी एक अलगाववाद को मैंने काफी करीब से जिया हैं। शायद कुछ लोगों का हिंदी के प्रति नकारात्मक दुत्कार ही थी, जो मुझे हिंदी के इतने करीब ले आयी। अपने भाषायी आस्तित्व को बचाने के जद्दोजहद में कई क्षैत्रिय भाषाओं के ठेकेदार, अपने मातृभाषा के अस्तित्व संघर्ष-गाथा की जिम्मेवारी व दोषारोपण बड़ी बहन हिंदी के माथे पर मढ़ नयी पीढ़ी के मानस पटल पर अपनी मातृभाषा के प्रति हिंदी को सौतन की दर्जा से आभूषित कर बरगला रहे हैं। दुःखद पहलू यह हैं कि उन्हें अंग्रेजी के प्रति दूर-दुरान्तर तक कोई शिकवा-गिला नहीं।
हिन्दी सिखने की वैश्विक उत्सुकता, हिन्दी जानने-पढ़ने वालों की संख्या में नित्यप्रतिदिन हो रही वृद्धि, इंटरनेट में हिन्दी साहित्य में नई युवा लेखकों, साहित्यकारों की समृद्ध कलमधारी फौज को देखकर निसंकोच प्रतीत होता हैं कि नयी तकनीक के साथ कदमताल करते हिन्दी के लिए वैश्विक पटल पर लोकप्रियता के नए आयामों को विकसित करते हुए स्वर्णिम दिन आने वाले हैं। आज की जरुरत हैं कि हम क्षेत्रीय और भाषायी बंधनो से उन्मुक्त होकर सबके घर सुरक्षित रहने की प्रार्थना एवं समृद्धि की मंगलकामना करे। भारतीय भाषाओं के मध्य अविश्वास और असुरक्षा नहीं, अपितु सौहार्द एवं समृद्धि की वचन बद्धता हो।
© पवन Belala Says