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परिंदा

एक परिंदा रोज़ उड़ता है यहाँ
उड़ना ही उसका दस्तूर है
जो हवा ही बेरहम हो जाए तो मौला,
परिंदे का क्या कसूर है?
नाहक ही वो लड़खड़ाएगा,
गिरकर फिर उड़ न पाएगा
अनहोनी में उसकी रज़ा नहीं,
ज़मीं की गर्द में मिल जाएगा
मद्धम पड़ जाएँगी साँसें
तुझसे इतना ही कह पाएगा..

कहने की कोई चाह नहीं,
कि अरमानों को राह नहीं
तड़प-तड़प मरना हो तो भी,
निकलेगी एक आह़ नहीं ।

जानता हूँ तू नापाक नहीं,
ऐ मेरे परवरदिगार
धूल में लिपटा सिसक रहा हूँ,
फिर से उड़ने की चाहत में
तलाशता हूँ अपने लिए आँसू,
हर गुज़रने वाले की आहट में
मेरे टूटे पंखों का,
ज़िम्मेदार तू न सही
पर दिलों में इंसानियत,
क्या तेरी दुनिया में न रही?

वादा रहा कि तेरी दुनिया में,
वापस कभी न आऊँगा
और आज रूख़सती से पहले,
इतना ही कहना चाहूँगा

कहने की कोई चाह नहीं,
कि अरमानों को राह नहीं
तड़प-तड़प मरना हो तो भी,
निकलेगी एक आह़ नहीं..


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परिंदा

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