दोस्तों कोरोना के संकट काल में जीवन संघर्षों और समाज व शासन के अंतरद्वंद्व को व्यक्ति करती हुई यह समसामयिक कविता बहुत कुछ कहती है। कवि की अनुभूति उस धरातल को व्यक्त करती है जहां पर सच्चा इंसान स्वयं परिस्थितियों की पहेली बन गया है......................
-----अनबूझी बातें-----
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हम ठग रहे,या ठगे जा रहे हैं,
यह अनबूझ पहेली, न समझ पा रहे हैं।
पथ और पथिक, दोनों साथ-साथ चलते,
थकता है कौन? न समझ पा रहे हैं।
धरती के घूर्णन से, दिन रात होते,
ढलता है सूरज, या दिन रात ढल रहे हैं।
धधकता है सूरज, तपती ज़मीं है,
ज़लती ज़मीं या सूर्यदेव जल रहे हैं।
जलती शमां तो, परवाने आ के जलते,
जलन है कहाँ पर, न समझ पा रहे हैं।
कलियोंकी मुस्कान पे, मंडराते भँवरे.
छलता है कौन? न समझ पा रहे हैं।
उभरते कवि:
श्री आर यन यादव
जवाहर नवोदय विद्यालय,
तैयापुर, औरैया, उ.प्र.
मो. : 8840639096
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