सूफी अम्बा प्रसाद का जीवन परिचय Biography of Sufi Amba Prasad |
सूफ़ी अंबा प्रसाद भटनागर (1858 - 21 जनवरी, 1917) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान क्रांतिकारी थे। इनका जन्म 1858 में मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके जन्म से ही दायां हाथ नहीं था। इन्होंने 1909 में पंजाब से 'पेशवा' अखबार निकाला। बाद में अंग्रेज़ों से बचने हेतु नाम बदल कर सूफ़ी मुहम्मद हुसैन रखा। इस कारण ये सूफ़ी अंबा प्रसाद भटनागर के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हें 1897 और फिर 1907 में दूसरी बार फांसी की सजा ब्रिटिश सरकार ने सुनायी थी। इससे बचने के लिए ये नाम बदल कर ईरान भाग गये। वहां ये गदर पार्टी के अग्रणी नेता भी रहे। इनका मकबरा ईरान के शीराज़ शहर में स्थित है।
क्रान्तिकारी सेनानियों में सूफ़ी जी का स्थान अत्यधिकमहत्वपूर्ण है। वे आजीवन स्वतंत्रता के लिए ही साधना करते रहे। उन्होंने जेलों की कोठरियों में कठोर से कठोर यातनायें भी सहन कीं। अन्त में उन्हेंदेश की स्वतंत्रता के लिए ही ईरान जाना पड़ा। ईरान में ही उन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपनी सांसें तोड़ दी। सुनते हैं, आज भी ईरान में उनकी समाधि विद्यमान है।
सूफ़ी जी का जन्म 1858 ई. में मुरादाबाद में हुआ था। जन्म के समय ही उनका एक हाथ कटा हुआ था। बड़े होने पर जब उनसे किसी ने पूछाकि, आपका एक हाथ कटा हुआ क्यों है, तो उन्होंने उत्तर दिया १८५७ ई. की स्वतंत्रता की लड़ाई में मैंने अंग्रेजों से युद्ध किया था। उसी युद्ध में हमारा हाथ कट गया था। मेरा पुनर्जन्म हुआ, पर हाथ ठीक नहीं हुआ। सूफ़ी जी ने सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त की थी। वे बड़े अच्छे लेखक थे। वे उर्दू में एक पत्र निकालते थे। उन्होंने दो बार अंग्रेजों के विरूद्ध बड़े कड़े लेख लिखे, फलस्वरूप उन पर दो बार मुकदमा चलाया गया। प्रथम बार उन्हें ४ मास की और द्वितीय बार ९ वर्ष की कठोर सजा दी गई थी। उनकीसारी सम्पत्ति भी जप्त कर ली गई थी। सूफ़ी जी कारागार से लौटने पर हैदराबाद चले गए। कुछ दिनों तकहैदराबाद में रहे, फिर लाहौर चले गये। लाहौर में सरदार अजीत-सिंह की संस्था, भारत माता सोसायटी में काम करने लगे। इन्हीं दिनों उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम विद्रोही ईसा था। उनकी यह पुस्तक बड़ी आपत्तिजनक समझी गई। फलस्वरूप अंग्रेज सरकार उन्हें गिरफ्तार करनेका प्रयत्न करने लगी। सूफ़ी जी गिरफ्तारी से बचने के लिए नैपाल चले गए, पर नैपालमें पकड़ लिए गए और भारत लाये गए। लाहौर में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, पर कोई प्रमाण न मिलने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया।
जेल की सज़ा
सूफ़ी अम्बा प्रसाद अपने समय के बड़े अच्छे लेखक थे। वे उर्दू मेंएक पत्र भी निकालते थे। दो बार अंग्रेज़ों के विरुद्ध बड़े कड़े लेख उन्होंने लिखे।इसके फलस्वरूप उन पर दो बार मुक़दमा चलाया गया। प्रथम बार उन्हें चारमहीने की और दूसरी बार नौ वर्ष की कठोर सज़ा दी गई। उनकी सारी सम्पत्तिभी अंग्रेज़ सरकार द्वारा जब्त कर ली गई। सूफ़ी अम्बा प्रसाद कारागार सेलौटकर आने के बाद हैदराबाद चले गए। कुछ दिनों तक हैदराबाद में ही रहेऔर फिर वहाँ से लाहौर चले गये।
'विद्रोही ईसा' की रचना
लाहौर पहुँचने पर सूफ़ी अम्बा प्रसाद सरदार अजीत सिंह की संस्था'भारत माता सोसायटी' में काम करने लगे। सिंह जी के नजदीकी सहयोगी होनेके साथ ही सूफ़ी अम्बा प्रसाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के भी अनुयायीबन गए थे। इन्हीं दिनों उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम विद्रोही ईसाथा। उनकी यह पुस्तक अंग्रेज़ सरकार द्वारा बड़ी आपत्तिजनक समझी गई।इसके फलस्वरूप सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया। सूफ़ी जीगिरफ़्तारी से बचने के लिए नेपाल चले गए। लेकिन वहाँ पर वे पकड़ लिए गएऔर भारत लाये गए। लाहौर में उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया, किंतुकोई ठोस प्रमाण नहीं मिलने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया। ईरानी क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सूफ़ी अम्बा प्रसाद ने आम आन्दोलन किये। वे अपने सम्पूर्ण जीवन में वामपंथी रहे। 12 फ़रवरी, 1919 में ईरान निर्वासन में ही वे मृत्यु को प्राप्त हुए।