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श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तीसरा अध्याय  (पोस्ट 02)

भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें श्रीविष्णु आदिका प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति; भगवान्‌ का अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान्‌ का उन्हें सान्त्वना प्रदान करना

देवा ऊचुः -
कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय
यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय ।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षा-
द्‌गोलोकधाम धिषणाय नमः परस्मै ॥१५॥
योगेश्वराः किल वदन्ति महः परं त्वां
तत्रैव सात्वतमनाः कृतविग्रहं च ।
अस्माभिरद्य विदितं यददोऽद्वयं ते
तस्मै नमोऽस्तु महसां पतये परस्मै ॥१६॥
व्यङ्गेन वा न न हि लक्षणया कदापि
    स्फोटेन यच्च कवयो न विशंति मुख्याः ।
निर्देश्यभावरहितः प्रकृतेः परं च
  त्वां ब्रह्म निर्गुणमलं शरणं व्रजामः ॥१७॥
त्वां ब्रह्म केचिदवयंति परे च कालं
केचित्प्रशांतमपरे भुवि कर्मरूपम् ।
पूर्वे च योगमपरे किल कर्तृभाव-
मन्योक्तिभिर्न विदितं शरणं गताः स्मः ॥१८॥
श्रेयस्करीं भगवतस्तवपादसेवां
हित्वाथ तीर्थयजनादि तपश्चरन्ति ।
ज्ञानेन ये च विदिता बहुविघ्नसङ्घैः
सन्ताडिताः किमु भवन्ति न ते कृतार्थाः ॥१९॥
विज्ञाप्यमद्य किमु देव अशेषसाक्षी
यः सर्वभूतहृदयेषु विराजमानः ।
देवैर्नमद्‌भिरमलाशयमुक्त देहै-
स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥२०॥
यो राधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहारः
श्रीगोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेवः
स त्वं विपत्सु विबुधान् परिपाहि पाहि ॥२१॥
वृन्दावनेश गिरिराजपते व्रजेश
गोपालवेषकृतनित्यविहारलील ।
राधापते श्रुतिधराधिपते धरां त्वं
गोवर्द्धनोद्धरण उद्धर धर्मधाराम् ॥२२॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः ।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा ॥२३॥


श्रीभगवानुवाच -
हे सुरज्येष्ठ हे शंभो देवाः शृणुत मद्‌वचः ।
यादवेषु च जन्यध्वमंशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥२४॥
अहं च अवतरिष्यामि हरिष्यामि भुवो भरम् ।
करिष्यामि च वः कार्यं भविष्यामि यदोः कुले ॥२५॥
वेदा मे वचनं विप्रा मुखं गावस्तनुर्मम ।
अंगानि देवता यूयं साधवो ह्यसवो हृदि ॥२६॥
युगे युगे च बाध्येत यदा पाखंडिभिर्जनैः ।
धर्मः क्रतुर्दया साक्षात्तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥२७॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तवन्तं जगदीश्वरं हरिं
राधा पतिप्राणवियोगविह्वला ।
दावाग्निना दुःखलतेव मूर्छिता-
श्रुकंपरोमांचितभावसंवृता ॥२८॥

देवता बोले- जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णपुरुष, परसे भी पर, यज्ञोंके स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात् गोलोकधामके अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं ॥  योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेजःपुञ्ज हैं; शुद्ध अन्तःकरणवाले भक्तजन ऐसा मानते हैं कि आप लीलाविग्रह धारण करनेवाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु हमलोगों ने आज आपके जिस स्वरूपको जाना है, वह अद्वैत — सबसे अभिन्न एक अद्वितीय है; अतः आप महत्तम तत्त्वों एवं महात्माओं के भी अधिपति हैं; आप परब्रह्म परमेश्वरको हमारा नमस्कार है ॥ १५-१६ ॥

कितने विद्वानों ने व्यञ्जना, लक्षणा और स्फोट द्वारा आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भावसे रहित हैं। अतः मायासे निर्लेप आप निर्गुण ब्रह्मको हम शरण ग्रहण करते हैं ॥ १७ ॥

किन्हीं ने आपको 'ब्रह्म' माना है, कुछ दूसरे लोग आपके लिये 'काल' शब्द का व्यवहार करते हैं । कितनोंकी ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध 'प्रशान्त' स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगोंने तो यह मान रखा है कि पृथ्वीपर आप 'कर्म' रूपसे विराजमान हैं। कुछ प्राचीनोंने 'योग' नामसे तथा कुछने 'कर्ता' के रूपमें आपको स्वीकार किया है। इस प्रकार सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुतः नहीं जान सका । (कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, 'ऐसे ही' हैं।) अतः आप (अनिर्देश्य, अचिन्त्य, अनिर्वचनीय) भगवान् की  हमने शरण ग्रहण की है ॥ १८ ॥

भगवन् ! आपके चरणोंकी सेवा अनेक कल्याणोंको देनेवाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ, यज्ञ और तपका आचरण करते हैं, अथवा ज्ञानके द्वारा जो प्रसिद्ध हो गये हैं, उन्हें बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते ॥ १९ ॥

भगवन् ! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान हैं। जो शुद्ध अन्तःकरणवाले एवं देहबन्धन से मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान्‌ को हमारा प्रणाम है ॥ २०॥

जो श्रीराधिकाजीके हृदयको सुशोभित करनेवाले चन्द्रहार हैं, गोपियोंके नेत्र और जीवनके मूल आधार हैं तथा ध्वजाकी भाँति गोलोकधामको अलंकृत कर रहे हैं, वे आदिदेव भगवान् आप संकटमें पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन्! आप वृन्दावनके स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं । आप व्रजके अधिनायक हैं, गोपालके रूपमें अवतार धारण करके अनेक प्रकारकी नित्य विहार - लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजीके प्राणवल्लभ एवं श्रुतिधरोंके भी आप स्वामी हैं। आप ही गोवर्धनधारी हैं, अब आप धर्मके भारको धारण करनेवाली इस पृथ्वीका उद्धार करनेकी कृपा करें  ।। २१–२२ ॥

नारदजी कहते हैं— इस प्रकार स्तुति करनेपर गोकुलेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रणाम करते हुए देवताओंको सम्बोधित करके मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले - ॥ २३ ॥

श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा – ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओ! तुम सब मेरी बात सुनो। मेरे आदेशानुसार तुमलोग अपने अंशोंसे देवियोंके साथ यदुकुलमें जन्म धारण करो। मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वीका भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुकुलमें होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। वेद मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अङ्ग हैं। साधुपुरुष तो हृदयमें वास करनेवाले मेरे प्राण ही हैं। अतः प्रत्येक युगमें जब दम्भपूर्ण दुष्टोंद्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दयापर भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतलपर प्रकट करता हूँ ॥ २४- २७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण 'अब प्राणनाथसे मेरा वियोग हो जायगा' यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानलसे दग्ध लताकी भाँति मूच्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीरमें अश्रु, कम्प, रोमाञ्च आदि सात्त्विक भावोंका उदय हो गया ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

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श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)

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