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बंगाल चुनाव में किस चाणक्य की होगी जीत, पीके या अमित शाह ?

पश्चिम बंगाल चुनाव को लेकर राजनीतिक विश्लेषक सुजाता पांडेय ने अपने विचार साझा किए आइए जानते हैं इस बारे में उनकी क्या राय है ।

जैसे-जैसे बंगाल विधान सभा चुनाव के दिन नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक गलियारे में तापमान भी बढ़ता जा रहा है। कभी जीत के दावे तो कभी आरोप-प्रत्यारोप के बीच पार्टियों में अपनी बात को साबित करने की जैसे जिद सी नजर आ रही है। हालांकि बंगाल में अन्य पार्टियां जैसे लेफ्ट, कांग्रेस, एआईएमआईएम आदि चुनाव में अपनी तैयारी में हैं, मगर सीधा मुकाबला सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल एवं बीजेपी के बीच ही है। दोनों की मजबूत स्थिति कभी एक को जीत के लिये अग्रसर करती है तो कभी दूसरा जीत का दामन पकड़ता नजर आता है। पश्चिम बंगाल की 294 विधान सभा सीटों पर होने वाले चुनाव में भले ही जीत का जादुई आंकड़ा 147 हो, मगर बीजेपी व तृणमूल  दोनों  200 से अधिक सीटों पर अपनी जीत के दावे कर रहे हैं।

दरअसल यह चुनाव बंगाल में केवल टीएमसी और बीजेपी के बीच ही नहीं है, बल्कि दो  मजबूत चुनावी रणनीतिकारों के बीच भी है। एक के पास अपनी चुनावी रणनीति से जीत के आंकड़े तक पहुंचाने का हुनर है, तो दूसरे ने जीत का परचम लहराने की ठानी है। यहां बात पीके यानि प्रशांत किशोर  और अमित शाह की हो रही है, जो अपनी जगह चाणक्य कहे जाते हैं। जब अमित शाह ने  बंगाल चुनाव में 200 सीट पर बीजेपी की जीत का दावा किया तब पीके ने उस दावे पर यह कहकर ट्विट किया कि बीजेपी के लिये इस चुनाव में डबल आंकड़े को भी पार करना मुश्किल है, और अगर ऐसा हुआ तब वह ट्विटर छोड़ देंगे। वहीं जवाब में राज्य में बीजेपी के मामलों को देख रहे कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि भाजपा की बंगाल में जो सुनामी चल रही है, उससे सरकार बनने के बाद इस देश को एक चुनावी रणनीतिकार खोना पड़ेगा।

 हालांकि कई बार ऐसे दावे चुनावी माहौल बनाने और बिगाड़ने के लिये भी किये जाते हैं, लेकिन इससे कौतूहल जरूर बढ़ता जा रहा है। अधिकांश निगाहें बंगाल चुनाव पर टिकी हैं। कभी 2014 के आम चुनाव में बीजेपी एवं प्रधानमंत्री मोदी की ब्रांडिग करने वाले पीके इस चुनाव में टीएमसी के लिये रणनीति बना रहे हैं। यूपी में कांग्रेस की रणनीति बनाने में भले ही असफलता मिली हो लेकिन प्रशांत किशोर की अब तक की सारी चुनावी रणनीति उम्मीदवार को जीत का रास्ता दिखा चुकी हैं, और अब बारी तृणमूल कांग्रेस की सत्ता में पुनः वापसी कराने की है। प्रशांत किशोर चुनावी रणनीतिकार बनकर टीएमसी में आए जरूर लेकिन उनके पार्टी में हस्तक्षेप को लेकर टीएमसी  में कई  नेता असंतुष्ट हुए और बीजेपी में शामिल हो गये। शुभेंदु अधिकारी जैसे बड़े नेताओं का साथ छोड़ना पार्टी के लिये बड़ा नुकसान है।

 इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक सुजाता पांडेय कहती हैं कि चुनावी रणनीति बनाने वाले दोनों ही सफल धुरंधर हैं । 2014 के चुनाव में मोदी की ब्रांडिंग करने एवं चाय पर चर्चा जैसे सबसे सफल कैंपेन के बावजूद प्रशांत किशोर बीजेपी से अलग हो गये तो कहीं न कहीं शाह से तालमेल का न होना भी बड़ी वजह रही। अब जब वह दोनों आमने सामने हैं तो रणनीतिक आजमाईश भी होगी।  सुजाता आगे कहती हैं  हालांकि ममता बनर्जी की छवि एक फाईटर की रही है, जो लगातार विभिन्न मुद्दों पर केन्द्र की मजबूत मोदी सरकार के सामने डटकर अपनी बात कहती नजर आती हैं।  बंगाल में बड़ी संख्या में लोग उन्हें अब भी पसंद करते हैं, लेकिन पिछले 10 वर्षों से मुख्यमंत्री रही ममता बनर्जी को एंटी इंकंबेंसी का कुछ नुकसान जरूर उठाना पड़ सकता है, और जिसके लिये प्रशांत किशोर को भी अधिक मशक्कत करनी पड़ सकती है और इसका बड़ा फायदा बीजेपी को मिल सकता है। बीजेपी के रणनीतिकार अमित शाह अपनी चुनावी रैलियों में उन्हीं भ्रष्टाचार, बेरोजगारी एवं भाई भतीजावाद की बातें कहकर सवाल उठा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ ममता बनर्जी बाहरी लोगों को बंगाल में नहीं आने देने की बात कर रही हैं। तो यह चुनाव कहीं न कहीं एक के लिये निहित राज्य का तो दूसरे के लिये राष्ट्र का है।

 पूरे देश में बीजेपी को स्थापित करने की शाह की मुहीम किसी से छिपी नहीं है। वह इसके लिये अथक परिश्रम भी करते दिखते हैं। अधिकांश राज्यों में बीजेपी की सरकार बनाने में अमित शाह की महत्वपूर्ण भूमिका यूं ही नहीं है। इसके पीछे उनकी एक अलग सोच है। अमित शाह एक कुशल और दूरगामी सोच रखने वाले संगठनकर्ता हैं।  बूथ जीत लिया तो चुनाव जीत लिया की सोच पर चलने वाले शाह पिछले कई महीनों से बंगाल में भी काम किये जा रहे हैं। केन्द्रीय मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री मोदी की भी चुनावी रैलियां अब बंगाल में होने लगी हैं। बीजेपी भविष्य में जीत को लेकर इसलिये भी उम्मीद से भरी नजर आ रही है क्योकि पिछले दो लोकसभा चुनावों के दौरान राज्य में इसका वोट प्रतिशत तेजी से बढ़ा है।

पिछले चुनावों में आंकड़ों की तुलना करें तो बीजेपी को 2014 में जहां 42 में से सिर्फ 2 सीटें मिलीं वहीं 2019 में यह बढ़कर 18 हो गई। यानि वोट प्रतिशत में 10 से लेकर 40 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसी तरह 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को केवल 3 सीटें मिली थी और बदली आबो हवा में उसे जादुई आंकड़े तक पहुंचने की उम्मीद है।

 वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में  तृणमूल को 211, लेफ्ट को 33, कांग्रेस को 44 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। ऐसे हालात में 2019 के चुनाव से पूर्व बीजेपी खुद अपनी मजबूत स्थिति का अंदाजा नहीं लगा रही थी, लेकिन आश्चर्यजनक चुनाव परिणाम ने उसे विधानसभा चुनाव में जीत के लिये दम देने का काम किया। बंगाल में आये दिन हो रही हिंसा और कई रूकावटों के बावजूद वह लगातार चुनाव प्रचार में लगी है।

 इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक सुजाता पांडेय कहती हैं कि बंगाल चुनाव में भाजपा की राह आसान नहीं होगी, और इसका सबसे बड़ा कारण ममता के पार्टी कैडर का जमीन से जुड़े मुद्दे पर उनकी पकड़ है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव में सिर्फ 3 सीटें निकालने वाली भजपा ने 2019 के चुनाव में ममता के गढ़ में सेंघ लगाकर 18 लोकसभा की सीटें निकाल ली, जिसमें मुख्य रूप से SC/ST/OBC और आदिवासी इलाके थे, लेकिन उसके बाद ममता और पीके की जोड़ी ने उन सारे इलाके में बूथ स्तर पर लोगों से जुड़ने का काम शुरू कर दिया। इसके साथ ही पिछले 1 साल में बहुत से ऐसे निर्णय और फेरबदल किये जिसने बंगाल की परंपरागत दलीय राजनीति  को पहचान की राजनीति में बदल दिया। इतना ही नहीं पीके ने सोची समझी रणनीति के तहत हर एक सांसद, विधायक और अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारियों को उनके क्षेत्र की आम जनता से जुड़ने का प्लान दिया। इसके जवाब में भाजपा ने तृणमूल को तोड़ने के लिये एड़ी चोटी का जोड़ लगा रखा है।

सुजाता आगे कहती है,”हालांकि अमित शाह 200 सीटें निकालने का दावा कर रहे हैं, लेकिन जिस तरह की बंगाल अपनी चुनावी हिंसा के लिये कुख्यात है, ये देखना दिलचस्प होगा कि किस तरह भाजपा बूथ स्तर पर वोटों का प्रतिशत अपने पक्ष में करने में कामयाब होती है। 

 वैसे भी शाह के पार्टी को स्वर्णकाल में देखने की ललक पूरी तभी हो सकती है, जब बंगाल में कमल के लिये रास्ते खुलेंगे। इसके लिये तृणमूल ने जिस तरह मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर सवाल खड़े किये तो अमित शाह ने यह कहते हुए बंगाल के लोगों को आश्वस्त करने की कोशिश की कि पार्टी को राज्य में बहुमत मिला तो मुख्यमंत्री बाहर का नहीं बल्कि बंगाल का ही होगा। उधर ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी को लेकर की गई टिप्पणी पर स्पेशल कोर्ट ने शाह को तलब किया तो वही युवा भाजपा नेत्री पामेला गोस्वामी के कोकीन के साथ पकड़े जाने से विरोधियों को कुछ मौके तो जरूर मिल रहे हैं, मगर यह चुनाव है, जहां पत्थर भी फेके जाएंगे और कीचड़ भी उछाले जाएंगे। कहीं ध्रुवीकरण की राजनीति तो कहीं निशाने पर उम्मीदवार होंगे।

अब बंगाल में हालात पहले की तरह होंगे, या बदलाव की हवा बहेगी , यह तो आगामी विधानसभा चुनाव में मतदाता ही तय करेंगे। फिलहाल कयासों का दौर तो जारी ही रहेगा।

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