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संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध 100 दोहे | Top Famous 100 Kabir ke Dohe
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय |1|
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अर्थ – गुरू और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान |2|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष (जहर) से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीश(सर) देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है |
सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज,
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए |3|
अर्थ – यदि सारी धरती को कागज़ मान लिया जाए , सारे जंगल – वनों की लकड़ी की कलम बना ली जाए तथा सातों समुद्र स्याही हो जाएँ तो भी हमारे द्वारा कभी हमारे गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते है ।हमारे जीवन मे हमारे गुरु की महिमा सदैव अनंत होती है, गुरु का ज्ञान हमारे लिए सदैव असीम और अनमोल होता है ।
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये,
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए |4|
अर्थ – हमें ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए, जिससे दूसरों को शीतलता का अनुभव हो और साथ ही हमारा मन भी प्रसन्न हो उठे।
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर |5|
अर्थ – खजूर के पेड़ के भाँति बड़े होने का कोई फायदा नहीं है, क्योंकि इससे न तो यात्रियों को छाया मिलती है, न इसके फल आसानी से तोड़े जा सकते हैं | आर्थात बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का लाभ नहीं होता |
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें,
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए |6|
अर्थ – जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है |
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय |7|
अर्थ – जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है |
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय,
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय |8|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों |
कबीर दास के दोहे
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रोंदे मोहे,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे |9|
अर्थ – मिट्टी, कुम्हार से कहती है, कि आज तू मुझे पैरों तले रोंद (कुचल) रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं तुझे पैरों तले रोंद दूँगी।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात,
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों सारा परभात |10|
अर्थ – कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी |
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये,
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए |11|
अर्थ – चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता।
मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार,
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार |12|
अर्थ – मालिन को आते देखकर बगीचे की कलियाँ आपस में बातें करती हैं कि आज मालिन ने फूलों को तोड़ लिया और कल हमारी बारी आ जाएगी। भावार्थात आज आप जवान हैं कल आप भी बूढ़े हो जायेंगे और एक दिन मिटटी में मिल जाओगे। आज की कली, कल फूल बनेगी।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब |13|
अर्थ – कबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो , कुछ ही समय में जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे |
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग,
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग |14|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं जैसे तिल के अंदर तेल होता है, और आग के अंदर रौशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्धमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूढ लो।
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप,
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप |15|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है।
जो घट प्रेम न संचरे, जो घट जान सामान,
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण |16|
अर्थ – जिस इंसान के अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के समान है।
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश,
जो है जा को भावना सो ताहि के पास |17|
अर्थ – कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।
जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान |18|
अर्थ – सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का |
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए,
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए |19|
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग,
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत |20|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि अब तक जो समय गुजारा है वो व्यर्थ गया, ना कभी सज्जनों की संगति की और ना ही कोई अच्छा काम किया। प्रेम और भक्ति के बिना इंसान पशु के समान है और भक्ति करने वाला इंसान के ह्रदय में भगवान का वास होता है।
तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार,
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार |21|
अर्थ – तीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है, लेकिन संतो की संगति से पुण्य मिलते हैं। और सच्चे गुरु के पा लेने से जीवन में अनेक पुण्य मिल जाते हैं |
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय,
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए |22|
अर्थ – शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं |
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए,
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए |23|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और नाही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीशक्रोध, काम, इच्छा, भय त्यागना होगा।
जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही,
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही |24|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय,
सार–सार को गहि रहै थोथा देई उडाय |25|
अर्थ – इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है, जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे |
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत,
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत |26|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही,
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही |27|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकारमैं था, तब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास है तो मैंअहंकार नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है।
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए,
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए |28|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती, मछली में तेज बदबू आती है।
प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय,
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय |29|
अर्थ – जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर,
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर |30|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे इंसान होने से क्या फायदा।
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और,
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर |31|
अर्थ – जो लोग गुरु और भगवान् को अलग समझते हैं, वे सच नहीं पहचानते। अगर भगवान् अप्रसन्न हो जाएँ, तो आप गुरु की शरण में जा सकते हैं। लेकिन अगर गुरु क्रोधित हो जाएँ, तो भगवान् भी आपको नहीं बचा सकते।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी,
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी |32|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा।
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय,
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय |33|
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिमबर्फ भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय |34|
अर्थ – बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके | कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा |
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय,
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय |35|
अर्थ – जीवन के अंत समय आने पर जब परमात्मा ने बुलावा भेजा तो कबीर रो पड़े और सोचने लगे की जो सुख साधु संतों के सत्संग में है वह बैकुंठ में नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जनों के सत्संग के सम्मुख वैकुण्ठ का सुख भी फीका है।
शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान,
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन |36|
अर्थ – शांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।
साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब
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