कुछ तुझ को है ख़बर हम क्या क्या
ऐ शोरिश-ए-दौराँ भूल गए..
वह ज़ुल्फ़-ए-परीशाँ भूल गए,
वह दीद-ए-गिरयाँ भूल गए..
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ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए
नज़रों में कोई सूरत ही नहीं..
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कीजिए
हम सूरत-ए-जानाँ भूल गए..
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं
अब दिल की कली खिलती ही नहीं..
ऐ फ़स्ले बहाराँ रुख़्सत हो,
हम लुत्फ़-ए-बहाराँ भूल गए..
सब का तो मदावा कर डाला
अपना ही मदावा कर न सके..
सब के तो गिरेबाँ सी डाले,
अपना ही गिरेबाँ भूल गए..
यह अपनी वफ़ा का आलम है,
अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए..
एक नश्तर-ए-ज़हरआगीं रख कर,
नज़दीक रग-ए-जाँ भूल गए..