New Delhi : प्राचीन समय में साधु-संतों की अपनी एक मर्यादा होती है और उसी के अनुसार उनका व्यवहार भी होता है, लेकिन बदलते समय के साथ साधु-संत कुटिया से निकलकर लक्जरी कारों में नजर आने लगे हैं।
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गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस में कलियुग में साधु-संतों का व्यवहार कैसा होगा, इसके बारे में विस्तार से लिखा गया है, जानिए-
1. मारग सोई जा कहुं जोई भावा। पंडित सोई जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुं संत कहइ सब कोई।।
अर्थ- जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारेगा, वही पंडित कहलाएगा। जो आडंबर रचेगा उसी को सब संत कहेंगे।
2. निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।
जाकें नख अरु जटा बिसाला, सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।
अर्थ- जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़ देंगे, कलियुग में वही ज्ञानी कहलाएंगे। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएं होंगी, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी होगा।
3. असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।।
अर्थ- जो अमंगल वेष-भूषा धारण करेगा, भक्ष्य-अभक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेगा, वही योगी, सिद्ध हैं और पूज्यनीय होगा।
4. बहु दाम संवाहरिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही।।
अर्थ- संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाएंगे, उनमें वैराग्य नहीं रहेगा। तपस्वी धनवान हो जाएंगे और गृहस्थ दरिद्र।
5. गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
अर्थ- शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का हिसाब होगा। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनेगा नहीं, एक (गुरु) देखेगा नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं है)
6. हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक मुहं परई।।
अर्थ- जो गुरु शिष्य का धन हरण करेगा, वह घोर नरक में पड़ेगा
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