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New Delhi: सौभाग्य से और प्रभु कृपा से कई लोग सपरिवार हिमालय वाले चारों धामों के दर्शन कर चुका है। वहां के पंडों, पुजारियों, बस्तीजनों और अन्य लोगों से तरह-तरह की जानकारी मिलती रहती हैं। उनमें एक यह कि कैसी भी प्राकृतिक तबाहियां आई हो, पर चारों धाम सुरक्षित रहे।
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व्यवस्था और व्यवस्थापकों ने उन्हें बचाया और सजाए-संवारे रखा। छोटे बड़े बदलाव और निर्माण तो होते रहे हैं पर मूलरूप जस का तस है। भले ही किवदंतियां हजारों हैं, पर मूल कथानक हजारों वर्षों से वही चला आ रहा है।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भगवान बद्रीनाथ की जो आरती वहां गाई जाती है, वह एक मुसलमान भक्त की लिखी हुई है। उस भक्त का मूल नाम फखरुद्दीन था, पर उनकी लिखी आरती जब मंदिरों में गूंजने लगी, तो उन्होंने अपना नाम बदलकर बदरुद्दीन कर लिया। फखरुद्दीन तब अठारह वर्ष के थे और चमोली जिले के नंदप्रयाग में पोस्ट मास्टर थे और वहीं रहते थे। उन्होंने 1865 में बद्रीनाथजी की आरती लिखी। फखरुद्दीन का निधन एक सौ चार वर्ष की उम्र में हुआ। वे जब तक जिए बद्री-केदार समिति के सदस्य रहे। उनके परिवार के लोग अब भी बद्रीनाथ में रहते हैं।
बद्रीनाथ महात्म्य नामक पुस्तक में इसका उल्लेख है। बदरुद्दीन के पौत्र का कहना है कि पहले श्री बद्रीनाथजी के मंदिर की दीवार पर यह आरती लिखी गई थी, ताकि लोगों को याद रहे। दीवार पर पढ़कर लोग इस आरती को गाते थे। अपने देश में बद्रीनाथजी की आरती का मुस्लिम द्वारा लिखा जाना कोई विचित्र प्रसंग नहीं लगता। महाकवि रसखान, कवि श्रेष्ठ रहीम, महाकाव्यकार मलिक मोहम्मद जायसी जैसे अनेक मुस्लिम कवि-गीतकारों द्वारा रचित आरतियां और भजन-कीर्तन मंदिरों, मठों और आश्रमों में गाए जाते हैं।
इस सदी का एक जीवित नाम है भाई अब्दुल जब्बार, जो चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) के निवासी हैं और पिछले 50 वर्षों से हिन्दी कवि सम्मेलनों के मंच पर सुसम्मानित हैं। उनका लिखा गंगा गीत ''निर्मल नीर गंगा का" आज भी हरिद्वार में हरकी पौड़ी पर गाया, बजाया और सुना जाता है। हमारी संस्कृति में साहित्य का शिखर सर्वोपरि है। एक महाकवि ने लिखा है-"ऐसे मुसलमान पर कोटिन हिन्दू वारिये।"
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